Brijendra Dubey
देश में 18वीं लोकसभा के गठन के लिए चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. 543 लोकसभा सीट के लिए चुनाव सात चरणों में होंगे. 19 अप्रैल को पहले चरण की वोटिंग हो चुकी है. इसका आखिरी चरण एक जून को खत्म होगा. चुनाव नतीजे 4 जून को आएंगे. चुनावी प्रक्रिया को पूरा होने में 46 दिन लगेंगे. कुछ राज्यों में तो मतदान एक ही चरण में पूरा हो जाएगा, लेकिन कुछ राज्यों में यह सात चरणों तक चलेंगे.
इस बार चुनावी प्रक्रिया पूरी होने में 46 दिन लगेंगे. यह दूसरी बार होगा, जब चुनावी प्रक्रिया में इतना लंबा वक्त लग रहा है. इससे पहले पहले साल 1951-52 में पहला संसदीय चुनाव चार महीने तक हुआ, जो 25 अक्तूबर 1951 से लेकर 21 फरवरी 1952 तक चुनाव प्रक्रिया चली थी. उस दौरान चुनाव 68 चरणों में हुए थे, जिसे भारतीय इतिहास में सबसे लंबी चुनावी प्रक्रिया कहा जा सकता है. 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें, तो उस दौरान 11 अप्रैल से 19 मई के बीच सात चरणों में चुनाव प्रक्रिया चली थी और वोटों की गिनती 23 मई को हुई थी. कुल मिला कर 38 दिनों में पूरी चुनाव प्रक्रिया खत्म हुई. वहीं, सबसे कम समय के लिए वोटिंग साल 1980 में हुई थी, जो महज चार दिन तक चली थी. वहीं 1957 में दूसरे आम चुनाव में, यह प्रक्रिया 19 दिनों तक चली थी, जो 1962 में घट कर सात दिन और 1967 में घट कर पांच दिन रह गई. 1971 में यह अंतराल बढ़ कर 10 दिन हो गया, लेकिन 1977 में फिर से घट कर पांच दिन और फिर चार दिन हो गया. 1980, 1984 और 1989 के चुनावों में भी मतदान की अवधि पांच-पांच दिन थी.
1991 के चुनावों में, मतदान का पहला चरण 20 मई को शुरू हुआ, तीसरा और अंतिम चरण 15 जून को समाप्त हुआ, जिसके परिणामस्वरूप 27 दिनों का अंतराल हुआ. इसके बाद, 1996 में यह अंतर बढ़ कर 34 दिन हो गया, जो 1998 में घट कर केवल आठ दिन रह गया. 1999 में पहले और आखिरी चरण के मतदान के बीच का अंतर 32 दिन था, जबकि 2004 में यह 22 दिन, 2009 में 28 दिन और 2014 में 36 दिन था.
पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी चुनाव प्रक्रिया लंबी होने से सहमत नहीं है. उनका कहना है कि हम पहाड़ी इलाकों में होने वाली दिक्कतों को तो समझ सकते हैं, लेकिन महाराष्ट्र, यूपी समेत दूसरे मैदानी इलाकों में तो एक ही चरण में चुनाव कराए जा सकते थे. उन्हें इतना लंबा ले जाने की जरूरत नहीं थी. वह कहते हैं कि आज से 20-25 साल पहले बिहार, यूपी में चुनावों के दौरान हिंसा होती थी, तो तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने पैरामिलिट्री फोर्सेज भेजना शुरू कर दिया और ब्लड फ्री इलेक्शन होने लगे. बाद में बाकी राज्यों के राजनीतिक दल भी पैरामिलिट्री की मांग करने लगे, जिससे चुनाव लंबे खिंचने लगे. एसवाई कुरैशी कहते हैं कि सरकार खुद कहती है कि जम्मू-कश्मीर में तो अब आतंकवाद का दौर खत्म हो गया है. वहां से तो अब हमारे सुरक्षा बलों को वापस बुलाया जाने लगा है. वहीं झारखंड और छत्तीसगढ़ में भी अब पहले जैसी नक्सली हिंसा नहीं है, तो ऐसे में वहां इतनी फोर्सेज तैनात करने की जरूरत क्या है. वह कहते हैं कि चुनाव आयोग को चाहिए कि बिना किसी दबाव के वह अपनी रणनीति में बदलाव करे.
पूर्व मुख्य आयुक्त एसवाई कुरैशी कहते हैं कि चुनाव आयोग जिस तरह से सात चरणों में वोटिंग करा रहा है, उससे निश्चित तौर पर तमाम चुनौतियों से निपटने में आयोग को मदद मिलती है, लेकिन लंबा चुनाव होने का सियासी फायदा सत्ता पक्ष को मिल सकता है. उसे ज्यादा रैलियां, सभाएं करने का समय मिलता है. वह कहते हैं कि चुनावी प्रक्रिया को छोटा किया जाना चाहिए. प्रक्रिया जितनी लंबी होगी, सत्तारूढ़ दल के लिए प्रचार के लिए सरकारी बुनियादी ढांचे का उपयोग करने का उतना ही अधिक मौका होगा. एसवाई कुरैशी कहते हैं कि चुनाव आयोग ये दावे भी करता है कि लंबे चरण का चुनाव देश के लिए फायदेमंद है, लेकिन इसके बड़े नुकसान भी हैं. अब सड़कों से ज्यादा चुनावी जंग सोशल मीडिया पर लड़ी जा रही है. सोशल मीडिया अफवाहें फैलाने में अव्वल है और फेक न्यूज का बोलबाला है, जो चुनाव के लिए नुकसानदायक है. वह कहते हैं कि लंबे चरण में चुनाव होने से सोशल मीडिया पर चल रहीं अफवाहों का असर अगले चरण पर पड़ता है. इससे दंगे भड़क सकते हैं. एक राज्य में अगर एक बार में ही चुनाव हो जाए, तो कम चुनावी चरण होंगे. इससे अफवाहें भी कम फैलेंगी और चुनाव भी शांतिपूर्ण संपन्न होंगे.
इस मामले में चुनाव आयोग का अपना ही तर्क है. उसका कहना है कि इस बार देश में मतदान केंद्रों की संख्या 10.48 लाख हो गई है, जो 2019 में 10.35 लाख थी. मतदान में 1.5 करोड़ मतदान कर्मी और सुरक्षा अधिकारी, 55 लाख ईवीएम और चार लाख वाहन शामिल होंगे. इतना सब मैनेज करने के लिए बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की जरूरत पड़ती है, जिन्हें लाना-ले जाना आसान नहीं होता. सुरक्षा बलों को दो चुनाव चरणों के बीच आने-जाने और पुनः तैनाती के लिए कम से कम छह दिनों की जरूरत होती है. लोकसभा चुनाव और चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में राज्य पुलिस फोर्स के साथ-साथ 3.4 लाख केंद्रीय सुरक्षा बल के जवानों की भी तैनाती की जाएगी. पश्चिम बंगाल में 92,000 सीएपीएफ कर्मियों की तैनाती की जा सकती है, जबकि जम्मू-कश्मीर में यह संख्या 63,500 कर्मियों की होगी. नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ में 36,000 जवानों की तैनाती होगी, यहां तीन चरणों में वोटिंग होगी.
वहीं विपक्षी दल भी इस तर्क से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है चुनाव प्रक्रिया शुरू होते ही मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट लागू हो जाता है और ज्यादा लंबे चरण होने से सरकारों का सामान्य कामकाज रुक जाता है. इतने लंबे समय तक सरकार के कामकाज को रोके रखना गलत है. सरकारी मशीनरी पूरी तरह से चुनावों में लग जाती है, इससे प्रोजेक्ट ठप पड़ जाते हैं और आम आदमी के हित के काम नहीं हो पाते हैं. विपक्षी दल आरोप लगाते हैं कि सत्ता पक्ष को अपने खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को खत्म करने का पूरा वक्त मिल जाता है. कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने आरोप लगाया कि चुनाव को तीन या चार चरणों में पूरा किया जा सकता था. उन्होंने चिंता जताते हुए कहा था कि अधिकांश सरकारी काम कम से कम 4 जून तक रुक जाएंगे. करीब 70-80 दिनों तक सारे काम रोकने से देश कैसे आगे बढ़ेगा? चुनाव आचार संहिता के कारण सामग्री की आपूर्ति नहीं होगी और बजटीय खर्च भी नहीं होगा. इसलिए मेरे हिसाब से यह फायदेमंद नहीं है.