Faisal Anurag
भारत की संसदीय परंपराओं को तारतार करने की कोई भी प्रक्रिया लोकतंत्रविरोधी है. दुनिया की वैज्ञानिक और आधुनिक प्रगति थियोक्रेसी यानी धर्मराज्य को खारिज करने की बाद ही हुयी.लोकतंत्र और संसदीय परंपराओं का इतिहास भी इसी निषेध की देन है. यह दुखद है कि भारत समेत दुनिया के कुछ देशों में थियोक्रेसी की मांग जोर पकड़ रही है और चुनावी जीत-हार का जरूरी तत्व बनाया जा रहा है. नस्लवाद, जातिवाद और धर्मराज्य के नारे के साथ आमलोगों के आर्थिक और सामाजिक न्याय और समावेशी उन्नति की राह में बाधाएं खड़ी की जा रही है.यही कारण है भविष्य के सपने बनाने के बजाए पुरातन दर्प को ही राजनैतिक हथियार बनाने का खेल किया जा रहा है. भारत की आजादी के संघर्ष के समय ही तय हो गया था कि राज्य धर्मनिरपेक्ष होगा और प्रतीक भी इसी बुनियाद के आसपास होंगे. लेकिन धार्मिक प्रतीकों को वेशभूषा और निजी आस्था के रंगों को सावर्जजनिक तरीके से उकेरा जा रहा है. इसका नशा सामयिक खुशी और श्रेष्ठता का अहसास तो दे सकता है लेकिन दीर्घकाल में यह कारपोरेटशाही की गिरफ्त को ही मजबूत करेगा.
भारत सहित दुनिया भर में देखा गया है शतीकाल की समाप्ति के बाद न केवल धार्मिक प्रतीकों का बोलबाला बढ़ा बल्कि वैश्विकीकरण के नाम पर आर्थिकतंत्र से मेहनतकश तबकों को बाहर करने का सिलसिला भी शुरू हुआ. इसी प्रवृति ने आज की दुनिया में वैश्वीकरण के हितों के लिए श्रमिकों,किसानों,मध्यवर्ग, युवा, महिलाओं ओर दलितों आदिवासियों को आर्थिक रूप से बेबस और परनिर्भरता के गर्त में धकेल दिया है. रोजगार में जिस तरह के अनुबंधों का दोर शुरू हुआ उसने श्रमिकों की आजादी को छीन लिया. अब तो किसानों के हाथें से उनकी जमीन,
फसल और कृषि संस्कृति को छीन लेने के कानून भली बना दिए गए हैं. देश का किसान और रमिकों के बढ़ते असंतोष और प्रतिरोध के बीच हिंदू मुसलमान प्रतीकों के सहारे राजनीतिक बिसात बिछा दी गयी है. यह वही दौर देर है जब रोजगार के आंकड़े भयावह हो चुके हैं और सरकारी क्षेत्र में रोजगार के खात्मे के लिए निजीकरण के दरवाजे पूरी तरह खेल दिए गए हैं. सीएमआइइ के ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि अगस्त महीने में 16 लाख लोगों से नौकरियां छीन ली गयी. यही नहीं खाद बीज बेचने के लिए अमेजन को जिस तरह कहा गया वह बताता है कि आने वाले दिनों में किसानों की हालत और कितनी बदतर होने जा रही है.
भारत ने गरीब और 1947 के बाद आजाद हुए देशों को धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र का रास्ता दिखाया. आज भारत क्या रासता दिखा रहा है, इसका एक नजारा झारखंड की विधानसभा में पिछले तीन दिनों से चल रहा है. यह तमाशा न केवल यह बता रहा है कि किस तरह आमलोगों के सवालों को दरकिनार कर दिया गया बलिक धर्म के नाम पर वोटरों के बीच ध्रुवीकरण किया जा रहा है. झारखंड विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष विधायक सीपी. सिंह ने यूं ही तो नहीं कहा कि उन्हें वोट देने वाले केवल हनुमान चलीसा ही पढ़ते हैं. यह बयान संसदीय राजनीति के पतन को बताने के लिए पर्याप्त है. विधानसभा न तो इबादगाह है और न ही पूजास्थल. संविधान इसकी इजाजत भी देता है. इस संवैधानिक तथ्य को राजनीतिक दलों को समझना चाहिए. किसी एक गलती को सुधारने के लिए उससे बड़ी गलती करने की इजाजत देने का मतलब है आधुनिक मूल्यबोध जिसने मानव प्रजाति को अनेक बंधनों से मुक्त किया है उसे अस्वीकार कर देना.
विधानसभा को बहस का रणक्षेत्र ही रहने दें, इसे धार्मिक प्रतीकों और निजी आस्था के दंभ का प्रदर्शन स्थल न बनने दें. इस बात को समझाना ही होगा. झारखंड ने एक लंबे संघर्ष के बाद राज्य हासिल किया है. सो सालों का संघर्ष इसलिए नहीं हुआ था कि झारखंड के लोग शर्मसार किए जाएं. हो सकता है कि चुनावी जीत की राह आसान हो लेकिन लोकतंत्र ओर संसदीय मूल्यों के हनन की प्रवृति इससे नहीं रूकेगी. विकास और समानता के लिए वह दिन अत्यंत घातक होगा. पहले से ही कारपरेट कंपनियों की गिद्ध दृष्टि संसाधनों की लूट पर लगी हुयी है. लोकतंत्र ने थियोक्रेसी के मूल्यों को खारिज कर ही सफर जारी रखा है. एक समय था जब अरब की विज्ञान खास कर गणित के क्षेत्र में दुनिया भर में डंका बजता था. मशहूर पत्रकार हसन निसार ने ठीक ही कहा है कि बंद दिमाग वालेी सत्ताओं के उभार के साथ ही अरब यूरोप से पिछड़ गया. एशिया के अधिकांश हिस्से का भी यही हाल रहा है. यह सब हुआ जब सत्ताओं ने धर्मराजय के नाम पर विज्ञान की प्रगति को खारिज कर दिया. जिस गिर्रोडानो ब्रूनों को यह कहने के लिए कि धरती ही सूर्य की प्ररिक्रमा करती है जला दिया गया था उसी यूरोप ने धर्म से राज्य को अलग करने के बाद विज्ञान के साथ आर्थिक प्रगति के क्षेत्र में दुनिया को पछाड़ दिया. झारखंड के बाद जिस तरह उत्तर प्रदेश और बिहार में पूजा—इबादत के लिए विधानसभा में जगह की मांग की गयी है वह लोकतंत्र और संविधान के मूल्यों ओर नागरिक अधिकरों के समापन का खतरा न पैदा कर दे.