प्रेमकुमार मणि
महाशिवरात्रि का दिन मशहूर किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती का जन्म- दिन भी है. लोग उन्हें भूलने लगे हैं, लेकिन एक समय था जब इस स्वामी ने देश की राजनीति को अपने तेवर से झकझोर दिया था. 1930 के दशक में देश का राष्ट्रीय आंदोलन जो वामपंथी रुझान लेने लगा था, उस में स्वामीजी की महती भूमिका थी.रामगढ़ (अब झारखंड) में 1940 में हुए सुभाष बाबू के समझौता विरोधी कांफ्रेंस की पूरी तैयारी स्वागताध्यक्ष के नाते इन्होंने ही की थी. उससे पहले 1938 में डॉ आंबेडकर से मिलकर इन्होंने साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद विरोधी एक राजनीति विकसित करने का फलसफा तैयार किया था, जो दुर्भाग्य से सफलीभूत नहीं हो सका.
लगभग इन्हीं दिनों सुभाषचंद्र बोस द्वारा गठित लेफ्ट कंसोलिडेशन कमिटी में स्वामी जी के नेतृत्व वाली किसान सभा सक्रिय रही. बिहार के कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट उनका सम्मान करते थे और अनेक आंदोलनों में सब ने मिलजुल कर काम किया. वह चिर विद्रोही प्रवृत्ति के थे और पूरी जिंदगी अन्याय व शोषण के खिलाफ संघर्ष करते रहे. उनकी आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ मेरी प्रिय पुस्तकों में एक है.
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उत्तरप्रदेश के एक किसान परिवार में 1889 में जन्मे सहजानंद के बचपन का नाम नवरंग राय था. सामान्य स्कूली पढाई तो केवल नौंवी कक्षा तक हुई क्योंकि आध्यात्मिक रुचि के होने के कारण वेद -वेदांगों की धार्मिक शिक्षा की तरफ इनका झुकाव हुआ और अंततः इन्होंने संन्यास ही ले लिया. लेकिन इनका संन्यास मठ और पंथ विकसित करने के लिए नहीं था. दरअसल वह दौर ही ऐसा था, जब अनेक आध्यात्मिक रूचि संपन्न व्यक्तित्व समाज व राष्ट्र की सेवा की ओर प्रवृत्त हुए थे. गांधी,आंबेडकर, राहुल, स्वामी सहजानंद आदि इसी श्रेणी के थे. इनकी धार्मिकता अपनी मुक्ति के लिए नहीं, सामाजिक मुक्ति हेतु थी.
स्वामीजी का कार्य क्षेत्र हमारा इलाका रहा.पटना जिले के बिहटा में इनका डेरा था,जहां से इन्होंने अपने आंदोलन को संचालित किया.मेरे दिवंगत पिता ने उनके अभियान में सक्रिय भागीदारी की थी, अतएव बचपन से ही उनके बारे में सुनता रहा.वह एक किंवदंती -पुरुष थे. बिहार जैसे सूबे में अंग्रेजी राज के खात्मे से भी ज्यादा जरूरी जमींदारी व्यवस्था का खात्मा था. इसी के खिलाफ स्वामी ने शंखनाद किया और इसे खत्म करके ही दम लिया. ज़मींदारी उन्मूलन ने बिहार के किसानों के जीवन में नयी रौशनी ला दी.
उनके कंधे से गुलामी का वास्तविक जुआ उतर गया. एक दिलचस्प तथ्य यह है कि बिहार में सबसे अधिक जमींदार उसी बिरादरी के थे, जिससे स्वामीजी आते थे. अपने आरंभिक जीवन में स्वामी ने जाति-सभा का काम भी किया था. संन्यासी साधु थे, इस कारण जमींदार लोग इनका पैर-पूजन भी करते थे. लेकिन जब इन्होंने उनके खिलाफ बगावत की, तब वे सब इनके जानी दुश्मन बन गये. उन्हें हिकारत के भाव से देखने लगे. अपने इलाके के एक बुजुर्ग पूर्व – जमींदार से युवाकाल में मैंने स्वामीजी की ‘तारीफ’ इन शब्दों में सुनी थी-
“.ऐनखांव मेले में उसका भाषण सुना. जहर की तरह बोली और राढ़-रेयान जैसा काला -कलूटा चेहरा. मैंने तो शुरू में ही जान लिया कि यह आदमी शैतान है. नीच जात वालों को उठा रहा है और भूमिहारों की कब्र खोद रहा है.”
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बिहार का दुर्भाग्य है कि स्वामी का सही आकलन नहीं हुआ. जमींदारों की संततियां उन्हें त्रिदंडी स्वामी घोषित कर हिंदू बनाने पर तुली हैं और जिन लोगों के लिए उन्होंने जीवन कुर्बान किया, वे उनकी जाति-बिरादरी तलाशने में लगे हैं. उन पर व्यवस्थित रूप से काम किया अमेरिकी विद्वान वालटर हाउसर (1924-2019 ) ने.1957 में वह भारत आये और चार वर्षों के परिश्रम के बाद बिहार प्रदेश किसान सभा और स्वामी सहजानंद विषय पर शिकागो यूनिवर्सिटी से उन्होंने पीएचडी की उपाधि प्राप्त की.
उन्होंने स्वामी सहजानंद और किसान आंदोलन पर अन्य किताबें भी लिखीं. स्वामी जी की आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष का अंग्रेजी अनुवाद भी हाउसर ने किया. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उनपर बिहार में कोई काम नहीं हुआ. उनके नाम पर एक शोध संस्थान तो होना ही चाहिए था, जिसमें किसानों और कृषि उपक्रमों पर अध्ययन -चिंतन होता. आज जब देश भर के किसान कृषि -व्यवस्था के पूंजीवादीकरण के विरुद्ध सड़कों पर संघर्षरत हैं, तब स्वामी जी कुछ अधिक याद आ रहे हैं.
कवि दिनकर ने उन्हें दलितों का संन्यासी कहा था. आज उनकी चंद पंक्तियां देखना बुरा नहीं होगा.
निज से विरत, सकल मानवता, के हित में अनुरत वह
निज कदमों से ठुकराता मणि, मुक्ता स्वर्ण -रजत वह
वह आया, जैसे जल अपर, आगे फूल कमल का
वह आया, भूपर आये ज्यों, सौरभ नभ -मंडल का
लोकभाव अंजलि, ये सबके लिए, लिये कल्याण
आया है वह तेज़ गति से, धीर वीर गुणगान
आया है जैसे सावन के आवे मेघ गगन में
आया है जैसे आते कभी संन्यासी मधुवन में
हवन पूत कर में सुदंड ले मुंडित चाल बिरागी
आया है नवपथ दिखलाने, दलितों का संन्यासीII
दलितों के इस संन्यासी को उनके जन्मदिन पर नमन।
(डिस्लेमर – ये लेखक के निजी विचार हैं.)