Nishikant Thakur
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना दिसंबर 1885 में हुई और इसका पहला सम्मेलन बंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज में हुआ, जहां देशभर से 72 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था. सम्मेलन के अध्यक्ष थे, व्योमेश चन्द्र बनर्जी और वही पहले कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने. उनके बाद से आज तक 97 अध्यक्ष बन चुके हैं. मल्लिकार्जुन खड़गे राष्ट्रीय कांग्रेस के 98वें अध्यक्ष के तौर पर पद पर आसीन हो चुके हैं. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपने बुद्धि बल से अंग्रेजों से 36 का आंकड़ा बनाने वाले सभी इस पार्टी के माध्यम से अंग्रेजों से दो-दो हाथ करते रहे हैं. चाहे गरम दल कांग्रेस के सुभाष चंद्र बोस रहे हों या नरम दल के महात्मा गांधी, दोनों पार्टी के अध्यक्ष रह चुके हैं. इतनी पुरानी और अपने बनाए गए संविधान के अनुसार, चलने वाली देश में अब तक कांग्रेस ही रही है. आज भी देश ही नहीं, विश्व की सबसे बड़ी कथित लोकतांत्रिक पार्टी कहलाने वाली कोई भी पार्टी अपने अध्यक्ष का चयन अपने तय सिद्धांतों और संविधान के अनुसार नहीं करती है. देश की कोई भी राजनीतिक पार्टी क्यों न हो, सबमें वही होता है, जो उस पार्टी का ‘बॉस’ चाहता है.
क्या राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष बनने के लिए लालू प्रसाद यादव ने पार्टी का कोई चुनाव लड़ा है? क्या नीतीश कुमार ने जनता दल यूनाइटेड का कोई संगठनात्मक चुनाव लड़ा है? क्या भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह ने पार्टी अध्यक्ष बनने के लिए या फिर जगत प्रकाश नड्डा ने अपने दल का कोई चुनाव लड़कर पार्टी के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया है? यह तो चंद उदाहरण भर हैं. देश में मात्र कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है, जिसमें अध्यक्ष पद पर बैठने के लिए पार्टी के अंदर चुनाव लड़कर और उसे जीतकर आना पड़ता है. कभी तो भारतीय जनता पार्टी द्वारा कांग्रेस मुक्त भारत की बात की जाती रही है. आज यदि वह अपने आंतरिक संविधान के अनुसार, कार्य करके आगे बढ़ रही है, तो इससे दूसरे दलों के पेट में मरोड़ क्यों होने लगती है? आज यदि कांग्रेस दुबारा संगठित हो गई है तो विपक्षी खासकर भाजपा क्यों विचलित हो रही है. जबकि, भाजपा ने तो उसके अस्तित्व को ही नकार कर ‘कांग्रेस मुक्त भारत’का नारा दिया था. अब तो एक दूसरा नारा भी भाजपा अध्यक्ष ने देना शुरू कर दिया है कि केवल एक ही भाजपा रहेगी, शेष सभी स्थानीय पार्टियां समाप्त हो जाएंगी. आज तो केवल कांग्रेस की एक ‘भारत जोड़ो यात्रा’से ही सत्तारूढ़ दल परेशान और विचलित है. यदि सभी विपक्षी दल संगठित हो जाएं तो क्या स्थिति बनेगी, भाजपा को इस पर गंभीरता से सोचना ही पड़ेगा. बहरहाल, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्षी पार्टियों को एकजुट करने का प्रयास शुरू कर दिया है. परिणाम कुछ भी हो, लेकिन भाजपा को सबक सिखाने के उद्देश्य से उन्हें सफलता भी मिल रही है.
अभी गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं. दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार है. इन राज्यों की सत्ता पर फिर से काबिज होना भाजपा के लिए नाक की लड़ाई वाली बात हो गई है. दोनों राज्यों में भाजपा की काट के लिए केवल कांग्रेस ही है और उसको शीर्ष नेतृत्व देने वाले राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर देश में एकता और अपनत्व कायम करने के उद्देश्य से कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पैदल यात्रा कर रहे हैं. यह यात्रा अभी दक्षिण भारत में ही है, लेकिन इसे जो जनसमर्थन मिल रहा है और जनता का राहुल गांधी के प्रति जो लगाव दिख रहा है, उससे ऐसा लगता है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इससे परेशान है और उसे वर्ष 2024 का लोकसभा चुनाव में टक्कर नजर आ रहा है. सच में राहुल गांधी के प्रति इतना घृणित दुष्प्रचार किया गया, उसका ही नुकसान अभी तक कांग्रेस को उठाना पड़ रहा है.
मल्लिकार्जुन खड़गे एक कद्दावर राजनेता रहे हैं.
कांग्रेस के नए अध्यक्ष के रूप में उन्होंने यही तो कहा था कि —“सोनिया गांधी हमारी मार्गदर्शक हैं उन्होंने कांग्रेस के मुश्किल समय में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है, वह सदैव हमारी ताकत रही हैं और सदैव ही भविष्य की चुनौतियों का सामना करने का मार्ग प्रशस्त किया है”. उन्होंने ऐसा उस परिवार का देश के प्रति प्रतिबद्धता और कुर्बानियों को ध्यान में रखकर ही कहा होगा, लेकिन कुछ टीवी चैनलों ने इसके उलट इसे इतना तूल दिया, जिससे ऐसा लगने लगा कि वह परिवार अछूत हो, जिसका इस देश के लिए कोई योगदान न हो. ऐसे लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि इसी परिवार की इंदिरा गांधी को कितनी निर्दयता से उनके आवास पर ही गोलियों से भून दिया गया था. उसके बाद उनके बेटे और राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी की किस तरह निर्मम हत्या कर दी गई. हत्या भी सामान्य नहीं, बल्कि उनके शरीर के इतने टुकड़े हुए, जिनकी पहचान उनके जूतों से हुई थी.
मल्लिकार्जुन खड़गे उसी परिवार की बात कर रहे थे. एक बात और जो समझ से बाहर है, वह यह कि यदि दो दलों के बीच उठा पटक होती रहती है तो मीडिया बीच में कूदकर एकपक्षीय क्यों हो जाता है. टीवी चैनलों पर तो पढ़े-लिखे पत्रकार बैठे होते हैं, लेकिन वह बात ऐसी करते हैं, जिससे उनकी बातों से स्पष्ट हो जाता है कि वह सत्तारूढ़ पार्टी के वकील हैं और वह ऊपर बैठकर दोनों पक्षों को नहीं, बल्कि सरकार द्वारा कही बातों को बिना जांचे-परखे जनता में परोस देते हैं. पत्रकारिता के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति कुछ वर्षों में ही आई है. इसीलिए समाज में आमलोगों का विश्वास टीवी समाचारों से उठ गया है और अखबार में छपी बातों को सत्य मानकर उसे पढ़ना शुरू कर दिया है. पाठकों में यह विश्वास बढ़ा है कि लिखित डॉक्यूमेंट होने के कारण समाचार-पत्र सत्य प्रचारित करता है और टीवी पर बोले गए समाचार झूठ का पुलिंदा होते हैं.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.