Shyam kishore Choubey
उन दिनों मैं दैनिक जागरण के झारखंड स्टेट ब्यूरो में कार्यरत था और विधानसभा की कार्यवाही की रिपोर्टिंग टीम में था. लौटकर मैंने संपादक से मधु कोड़ा के दावे पर बात की तो उन्होंने यह कहते हुए हंसी में उड़ा दिया था कि राजनाथ जी और मुंडा जी के सामने कोड़ा-वोड़ा की क्या बिसात है. दूसरे दिन उनकी खोज की जाने लगी तो पता ही न चला. सबकी सोच के ठीक विपरीत कोड़ा महोदय बरास्ता कोलकाता दिल्ली निकल चुके थे. संघ के घर-आंगन में शिक्षित-दीक्षित यह नौजवान भाजपा की उपेक्षा के बाद पहले तो निर्दलीय बना और अंततः यूपीए की दहलीज पर जा खड़ा हुआ. उसके बाद मुंडा कैबिनेट के हरिनारायण राय हों कि एनोस एक्का या कमलेश सिंह, एक-एक कर लापता होने लगे. इन लोगों पर हालांकि कड़ी नजर रखी जा रही थी लेकिन एक भी युक्ति काम न आयी. अलबत्ता कमलेश सिंह जब जमशेदपुर होकर कोलकाता जा रहे थे तो उनको जमशेदपुर के निकट चांडिल में पकड़ लिया गया था लेकिन तुरंत ही यह मीडिया ट्रायल का विषय बन गया. कुछ देर डिटेंशन के बाद कमलेश भी दिल्ली गामी हो गये. यहां यह याद करना मुश्किल नहीं है कि लगभग डेढ़ साल पहले मार्च 2005 में पहली बार चुनाव जीतकर सिमडेगा से एनोस रांची के लिए चले थे, तो कांग्रेस से बात हो जाने के बावजूद उनको हेलीकॉप्टर से भाजपा ले उड़ी थी. ऐसे ही हरिनारायण भी झामुमो से बात होने के बावजूद रांची आते ही भाजपा खेमे में जा गिरे थे और एक साधारण सा होटल उनका ठिकाना बना था. कमलेश सिंह ने तो खैर एक मर्तबा ‘जिसका राज, उसी का पूत‘ कहकर अपनी परिभाषा गढ़ दी थी. इसके बाद कांग्रेस, झामुमो, राजद आदि-आदि के विधायकों का दिल्ली कूच हो गया.
18 सितंबर, 2005 को कमलेश सिंह, एनोस एक्का और हरिनारायण राय संग 39 वर्षीय निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर भारतीय लोकतंत्र में एक इतिहास कायम कर दिया
वहां से शीघ्र ही पूरी मंडली को सुरक्षा के लिहाज से दक्षिण में शिफ्ट कर दिया गया. भाजपा हाथ मलती रह गयी. मार्च 2005 में जिन गैर भाजपाई विधायकों को वह जयपुर ले उड़ी थी, उनको ही अब कांग्रेस ले उड़ी. दस दिनों के इस हाई वोल्टेज ड्रामे के बाद पांच सितंबर को कोड़ा, हरिनारायण, एनोस और कमलेश ने मंत्री पद त्याग कर मुंडा सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. यह सारा कुछ दूर देस दक्षिण के कर्नाटक के एक रिसॉर्ट से फैक्स संदेश के माध्यम से हुआ. स्पीकर समेत महज 41 सदस्यों के सहयोग-समर्थन से चल रही मुंडा सरकार चार मंत्रियों के बिदक जाने से स्पष्टतः अल्पमत में आ गयी, क्योंकि 81 सदस्यीय सदन में 41 सदस्यों वाले दल/गठबंधन से ही बहुमत में आता है. बहरहाल, बदली राजनीतिक परिस्थितियों में दस दिनों तक तीन-पांच करने के बाद 14 सितंबर को भाजपा ने हथियार डाल दिये. मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने इसी दिन अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया और इस प्रकार उनकी सरकार गिर गयी.
8 अक्तूबर को लोकशाही में एक और इतिहास रचा, जब फॉरवर्ड ब्लॉक के चुनाव चिह्न शेर छाप पर चुनाव जीते भानु प्रताप शाही के पिता हेमेंद्र प्रताप देहाती को भी मंत्री पद की शपथ दिलायी गयी. देहाती एकीकृत बिहार में विधायक रहे थे लेकिन इस समय तो पूर्व विधायक का ही तमगा उनके साथ था.
उन दिनों राज्यपाल सैय्यद सिब्ते रजी थे. केंद्र में यूपीए सरकार थी. इसलिए झारखंड में यूपीए के लिए परेशानी की कोई बात ही नहीं थी. 16 सितंबर की रात में मधु कोड़ा ने सरकार बनाने का दावा फैक्स संदेश के माध्यम से भेजा और 17 सितंबर की शाम वे सदलबल विशेष विमान से रांची आ धमके. अगले दिन 18 सितंबर, 2005 को सभी एकल सदस्यों कमलेश सिंह, एनोस एक्का और हरिनारायण राय संग 39 वर्षीय निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर भारतीय लोकतंत्र में एक इतिहास कायम कर दिया. जैसा कि इसके पहले भी होता रहा, इस बार भी मंत्रियों के चयन से लेकर विभाग निर्धारण तक केवल और केवल माथापच्चियों का दौर और रूठना-मनाना चलता रहा. छह दिनों बाद झामुमो के सुधीर महतो और नलिन सोरेन, यूजीडीपी की जोबा मांझी और बंधु तिर्की को मंत्री पद की शपथ दिलायी गयी, जबकि आठ अक्टूबर को झामुमो के स्टीफन मरांडी और दुलाल भुइयां तथा आजसू के चंद्र प्रकाश चौधरी का शपथ ग्रहण हुआ.
इस दिन लोकशाही में एक और इतिहास रचा, जब फॉरवर्ड ब्लॉक के चुनाव चिह्न शेर छाप पर चुनाव जीते भानु प्रताप शाही के पिता हेमेंद्र प्रताप देहाती को भी मंत्री पद की शपथ दिलायी गयी. देहाती एकीकृत बिहार में विधायक रहे थे लेकिन इस समय तो पूर्व विधायक का ही तमगा उनके साथ था. दरअसल, यह पद भानु के लिए आरक्षित रखा गया था, लेकिन हरिजन उत्पीड़न के मामले में अर्जुन मुंडा के मुख्यमंत्री रहते ही उनकी गिरफ्तारी हो चुकी थी, इसलिए उनकी जमानत के इंतजार में उनके पिता को बतौर अमानत मंत्री पद गिफ्ट कर दिया गया. आपसी अविश्वास का यह नतीजा था. चार महीने बाद जब भानु की जमानत हुई, तब आठ फरवरी 2007 को उनको यह पद सौंपा गया. इसके पहले पिता का इस्तीफा हो गया. कांग्रेस और राजद इस सरकार से बाहर रहे, लेकिन समर्थन करते रहे. ऐसी विकट परिस्थितियों में कोड़ा सरकार ने सदन में 42 सदस्यों के समर्थन से काम-काज शुरू किया. 20 सितंबर 2006 को मधु कोड़ा ने जब सदन में विश्वासमत पेश किया था, तो अपोजिशन बेंच पर केवल एक सदस्य माले के विनोद कुमार सिंह की मौजूदगी थी, बाकी 38 सदस्यों ने मतविभाजन में भाग नहीं लिया. इसके विपरीत 15 मार्च 2005 को जब अर्जुन मुंडा ने सदन में विश्वासमत पेश किया था तो समर्थन और विरोध में वाद-विवाद के बाद सभी प्रतिपक्षी सदस्यों ने मतविभाजन में भाग नहीं लिया था. जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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झारखंड की राजनीतिक उठापटक को समझने के लिए युवा पीढ़ी के लिए ऐतिहासिक है। मैं तो 18 मार्च 2003 और 2009 से 2014 तक के घटनाक्रम को नजदीक से कुछ घटनाओं का गवाह जैसा हूँ। उस दौर में अंदर की जानकारी मालूम न थी उसे भी समझ पा रहा हूँ।
बहुत ही अच्छी रिपोर्ट है। संपादक जी का खोज (श्याम जी) अतुलनीय है। जारी रहे।
सराहनीय प्रयास
बहुत अच्छा
चौबे जी पुनः लिखते पा कर मन प्रसन्न हो गया ।
👌👌👏😊🙏