Shyam Kishore Choubey
इस प्रकार बाबा यानी शिबू सोरेन यानी दिशोम गुरु का झारखंड में ‘अबुआ राज’ साढ़े पांच वर्ष बाद दूसरी मर्तबा शुरू हो गया. जैसा कि एक विदेशी चिंतक ने कहा है, मैन इज बार्न फ्री, बट एवरी ह्वेयर ही इज इन चेन्स, मधु कोड़ा के साथ भी ऐसा ही हुआ और बाबा के साथ भी ऐसा ही हुआ. कोड़ा राज में तो कांग्रेस कैबिनेट से दूर ही रही और शिबू कैबिनेट में भी उसने मंत्री पद के ललबतिया सुख का ‘लोभ’ नहीं दिखाया. अलबत्ता उसने जैसे कोड़ा के जमाने में विधानसभा के स्पीकर का पद अपने पास ही रखा था, वैसे ही शिबू के राज में भी यह महिमामंडित कुर्सी अपने पास रख रिंगमास्टर की भूमिका निभाती रही. इतना ही नही, मुख्यमंत्री शिबू सोरेन के ओएसडी और राजनीतिक सलाहकार के पद पर बड़ी चालाकी से हरियाणा के नीरज और बिहार के अजित को बहाल करवाकर सत्ता के ‘अंतःपुर’ पर कब्जा कायम कर लिया. जैसा कि बाद में पता चला, शिबू सोरेन इन दोनों से परिचित तक न थे. ये दोनों पद ऊपरी तौर पर तो विशेष महत्व के नहीं लगते, लेकिन इन पर आसीन सक्षम पुरुष हर राज से वाकिफ हो जाता है.
लाख समझाइश के बावजूद एनोस और हरिनारायण नहीं माने, तो शिबू ने 18 दिसंबर 2008 को इन दोनों मंत्रियों को कैबिनेट से बर्खास्त करने की सिफारिश कर दी, जिसे तत्कालीन एक्टिंग गवर्नर रघुनंदन लाल भाटिया ने अगले दिन मंजूरी दे दी.
बहरहाल, अबुआ राज टुकदुम-टुकदुम चलने लगा. शिबू मूलतः आंदोलनकारी और संगठनकर्ता थे, लेकिन प्रशासक कतई नहीं. उनको शासन के रंग-ढंग से परिचित होने में वक्त लगना ही था. इसलिए राज्य की बेहतरी के लिए कड़े फैसले लेने के बजाय वे लोकलुभावन कार्यों में लगे रहे. आरंभिक आंदोलन काल में वे नशा सेवन के विरूद्ध अभियान चलाते रहे थे, उसकी छाया उनके मुख्यमंत्रित्व काल में भी देखी गयी. वे हड़िया सेवन बंद करने की भी नसीहत देने लगे. इसी प्रकार उनका मानना था कि सिपाही बहाली में डिग्री के बजाय उसको भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए, जो सीधे लंबे पेड़ पर आसानी से चढ़ जाये. शिबू कैबिनेट में आफत के परकाले वे तमाम मंत्री थे, जो अर्जुन मुंडा और मधु कोड़ा की कैबिनेट में ऐश कर चुके थे. दूसरी ओर बाबा की बड़ी परेशानी यह थी कि अपनी कुर्सी महफूज रखने के लिए उनको विधानसभा की सदस्यता बाकायदा प्राप्त करनी थी. यह किसी सीट पर उपचुनाव से ही संभव था. चूंकि वे लोकसभा के सदस्य थे, इसलिए छह महीने के अंदर उनका विधायक चुना जाना जरूरी था. यही आवश्यकता प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के समक्ष पेश आयी थी.
राज्य गठन के पूर्व ही रामगढ़ सीट से सीपीआइ विधायक भेड़ा सिंह के नाम से मशहूर शब्बीर अहमद कुरैशी के असामयिक निधन से बाबूलाल को उपचुनाव में जाने और जीतने का मौका मिल गया था. उन दिनों राजनीतिक गलियारे में जो चर्चा आम हो गयी थी, उसके अनुसार शिबू सोरेन के लिए किसी श्योर सीट की तलाश की जा रही थी, लेकिन पार्टी का कोई विधायक अपनी इच्छा से कुर्सी त्यागने को तैयार नहीं था. ऐसी सूरत में रिक्त तमाड़ सीट से शिबू के उपचुनाव लड़ने की गुंजाइश बनायी जा रही थी. इस क्षेत्र के धाकड़ समता पार्टी के विधायक रमेश सिंह मुंडा की उनके पैतृक आवास से कुछ ही दूर भरे बुंडू बाजार में शिबू के राज्यारोहण से प्रायः दो महीने पहले नौ जुलाई 2008 को नक्सलियों ने हत्या कर दी थी. रमेश सिंह मुंडा काबिल विधायक थे. वे अकेले जनप्रतिनिधि थे, जो चुनाव के दौरान किसी बाहरी स्टार प्रचारक को नहीं बुलाते थे. उनका कहना होता था, मेरे क्षेत्र में मुझसे बड़ा स्टार प्रचारक कौन हो सकता है?
तमाड़ क्षेत्र मुंडाओं का गढ़ है. शिबू चाहे जितने महान नेता हों, वहां के वोटर उनके जैसे संताल को नहीं स्वीकार कर सकते. दूसरी बात यह कि भितरघात भी हुई. ऐसे ही तीसरी, चौथी, कई बातें हैं, जिनसे यह उपचुनाव प्रभावित हुआ.
शिबू सोरेन यूं तो मस्त-मौला राजनेता हैं, लेकिन उनको उपचुनाव की चिंता सताती रहती थी. जैसा कि आमतौर पर मुख्यमंत्री जैसे उच्च पदस्थ व्यक्ति के साथ होता है, उनको भी चढ़ाने वालों की कमी नहीं थी. साथी-सहयोगी दलों के नेता उनको तमाड़ सीट से उपचुनाव लड़ जाने के लिए अक्सर उकसाया करते थे. कहा तो यहां तक जाता है कि कुछ पदाधिकारियों ने भी आश्वस्त किया था कि बाबा, आपको कोई नहीं हरा सकता. कोई सुरक्षित सीट खाली नहीं करायी जा पा रही थी, ऐसे में उनके समक्ष तमाड़ से उपचुनाव लड़ने के अलावा कोई चारा न था और वे मुख्यमंत्री बनने के प्रायः दो महीने बाद दिसंबर में लड़ गये. इस चुनावी मैदान में उनका सामना हुआ झारखंड पार्टी के नये-नवेले प्रत्याशी गोपाल कृष्ण पातर उर्फ राजा पीटर से. मजे की बात देखिए जिस झापा के प्रत्याशी राजा पीटर से शिबू दांव आजमा रहे थे, उसी झापा के एनोस एक्का उनकी कैबिनेट के सदस्य यानी सरकार में मंत्री थे. एनोस का साथ एक अन्य मंत्री हरिनारायण राय दे रहे थे. यह स्थिति किसी भी मुख्यमंत्री के लिए नाकाबिले बर्दाश्त हो सकती है. लाख समझाइश के बावजूद एनोस और हरिनारायण नहीं माने, तो शिबू ने 18 दिसंबर 2008 को इन दोनों मंत्रियों को कैबिनेट से बर्खास्त करने की सिफारिश कर दी, जिसे तत्कालीन एक्टिंग गवर्नर रघुनंदन लाल भाटिया ने अगले दिन मंजूरी दे दी.
लगभग महीने भर की चुनावी गहमागहमी और आशा-अनुमानों के दौर के बाद आठ जनवरी 2009 को आये परिणाम में शिबू के हिस्से में हार आयी. गोपाल कृष्ण पातर उपचुनाव में विजयी रहे. यहां एक बात ध्यान देने की है कि आदिवासी एकता की चाहे जितनी बातें की जाये, लेकिन जनप्रतिनिधि चुनने में यह कौम बेहद चूजी होती है. तमाड़ क्षेत्र मुंडाओं का गढ़ है. शिबू चाहे जितने महान नेता हों, वहां के वोटर उनके जैसे संताल को नहीं स्वीकार कर सकते. दूसरी बात यह कि भितरघात भी हुई. ऐसे ही तीसरी, चौथी, कई बातें हैं, जिनसे यह उपचुनाव प्रभावित हुआ. सबसे बड़ी बात, हम पहले भी देख चुके हैं और आगे भी देखेंगे, शिबू की कुंडली में पक्का राजयोग है ही नहीं. ऐसा प्रतीत होता है मानो उनकी किस्मत में राजयोग के छींटे भर हैं.
खैर, उपचुनाव में हार के चार दिनों बाद 12 जनवरी 2009 को शिबू सोरेन ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. दलीय मतभेदों के कारण झामुमो के सेकेंड इन कमांड माने जाने वाले उपमुख्यमंत्री स्टीफन मरांडी ने उनके ठीक पहले इस्तीफा कर दिया था. राज्यपाल ने शिबू का इस्तीफा स्वीकार करते हुए उनको वैकल्पिक मुख्यमंत्री बने रहने का निर्देश दिया था. वे हफ्ता भर इसी पद पर रहे. 19 जनवरी 2009 को झारखंड राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. राज्यपाल ने विधानसभा को भंग करने के बजाय निलंबित ही रखा. उनको शायद लगा हो कि सदन के बचे 11 महीनों में पांचवीं सरकार बनने की गुंजाइश शेष है. (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)