Shyam kishore Choubey
मार्च, 2005 में झारखंड की जो दूसरी विधानसभा गठित हुई, उसके पहले ही कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने भविष्य में विद्रोह के संकेत दे दिये थे. एकीकृत बिहार के ही काल में भाजपा छोड़ चुके समरेश सिंह ने 20 जनवरी 2004 को मंत्रिपरिषद से इस्तीफा कर अपना एक अलग दल बना लिया था. भारत सरकार ने पूरे देश में मंत्रियों की संख्या नियंत्रित करते हुए सौ से कम सदस्यों वाले विधान मंडलों में मुख्यमंत्री सहित मात्र 12 सदस्यीय कैबिनेट की व्यवस्था कर दी थी. खान विभाग संभाल रहे कैबिनेट सदस्य मधु कोड़ा की तत्कालीन प्रदेश संगठन महामंत्री हृदयनाथ सिंह से टन-फिस्स के कारण चुनाव में उनको भाजपा का टिकट न मिला तो निर्दलीय जीत कर आये. चुनाव में सन 2000 के सापेक्ष भाजपा की तीन सीटें घटकर 30 ही रह गयीं. कोई भी दल बहुमत के करीब तक न पहुंच सका. त्रिशंकु सदन की स्थिति में जोड़-तोड़ का बाजार गर्म हो गया. इन्हीं परिस्थितियों में झामुमो प्रमुख सांसद शिबू सोरेन के नेतृत्व में 2 मार्च 2005 को सात सदस्यीय यूपीए सरकार ने शपथ ली. झारखंड राज्य बनने के बाद वस्तुतः विधानसभा का यह पहला चुनाव था. इसमें तीन निर्दलीय और झापा तथा एनसीपी के एक-एक सदस्य, यूजीडीपी और आजसू के दो-दो सदस्य जीतकर सदन पहुंचे थे. ये नौ एमएलए बहुत मायने रखने लगे, क्योंकि सबसे बड़े दल भाजपा के पास 30 और उसके बाद झामुमो के पास महज 17 ही एमएलए थे. सरकार गठन के लिए कम-अज-कम 41 विधायक आवश्यक थे. कांग्रेस नौ, राजद सात और जदयू छह सदस्यों पर अटके हुए थे. झामुमो के नैसर्गिक मित्रों कांग्रेस व राजद को मिला देने पर भी इस गठबंधन में महज 31 ही विधायक हो पाते थे. इसके बावजूद शिबू सोरेन ने मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब पाला. कहने की बात नहीं कि अब भाजपा पहलेवाली नहीं रह गयी थी. वह भी जोड़तोड़ में माहिर हो चुकी थी. ऐसी स्थिति में 10 मार्च को शिबू को सदन में बहुमत साबित करने में पसीने छूट गये. मंत्री बनाये जाने के बावजूद
यूजीडीपी की जोबा मांझी और एनसीपी के कमलेश सिंह सदन में नहीं आये. इधर विश्वासमत पर बहस लंबी खींची जाती रही. अंततः दूसरे दिन यानी 11 मार्च को बिना बहुमत साबित किये शिबू को इस्तीफा देना पड़ा.
गुजरे दो मार्च से दस मार्च तक नौ दिनों में झारखंड ने अपने नवनिर्वाचित विधायकों को रांची से दिल्ली और जयपुर तक लुकाये-छिपाये जाते देखा. जिन निर्दलीयों और एकल या दोहरे विधायकों पर यूपीए को भरोसा था, उनमें से कई को लेकर यूपीए के अड़ंगे के बावजूद भाजपा ले उड़ी थी. इन्हीं परिस्थितियों में यूपीए की सरासर राजनीतिक बेइज्जती के बाद 12 मार्च को अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने शपथ ली. इसमें पहली बार जीत कर आये झापा
के एनोस एक्का, निर्दलीय हरिनारायण राय और एनसीपी के कमलेश सिंह को मलाईदार विभाग देते हुए मंत्री बनाया गया. और तो और, जिस मधु कोड़ा को भाजपा ने चुनाव में टिकट तक देने से परहेज किया था, उनको भी संसदीय कार्य, खनन और सहकारिता जैसे विभाग दिये गये. आजसू के दोनों महानुभावों सुदेश महतो और उनके मौसा चंद्रप्रकाश चौधरी को भी उपकृत करना पड़ा. जदयू के छह में से दो रमेश सिंह मुंडा और राधाकृष्ण किशोर को भी मंत्री बनाया
गया. 30 सीटों वाली भाजपा के हिस्से में मुख्यमंत्री सहित चार ही मंत्री आये. दिलचस्पी का आलम यह कि जदयू में ही खींचतान बढ़ गयी. फलतः 29 मार्च को शपथ ग्रहण के महज 11 दिनों बाद राधाकृष्ण को इस्तीफा करना पड़ा. उनकी जगह पर जदयू के प्रदेश अध्यक्ष जलेश्वर महतो को 19 अप्रैल को मंत्री बनाया गया. राधाकृष्ण किशोर कांग्रेस छोड़कर इस चुनाव में जदयू में आए थे. इस लिहाज से वे पार्टी में बेचारे भी थे और जूनियर भी. मंत्री एनोस हों कि हरिनारायण या चंद्रप्रकाश अथवा कमलेश, इन सब की महत्वाकांक्षाएं उफान पर थीं. इन्होंने पहली बार विधानसभा में न केवल प्रवेश पाया था, साक्षात कैबिनेट मंत्री पद पर भी जबर्दस्त आवभगत के साथ अपनी शर्तों पर पहुंचे थे. मंत्री पद सीमित कर दिये जाने के कारण सूबे में राज्यमंत्री और उपमंत्री की गुंजाइश ही खत्म हो गयी थी. पदासीन होते ही इनकी इच्छाएं आसमान छूने लगीं और ये पूरी दुनिया अपनी मुट्ठी में करने का उपक्रम करने लगे. दिल्ली तक बदनामी पहुंचने लगी तो इनको मधु कोड़ा का सहारा मिला. कोड़ा की न तो मुंडा से बननी थी, न बनी. सुदेश, चंद्रप्रकाश, एनोस, हरिनारायण, कमलेश और कोड़ा जी-6 के अघोषित नाम से अलग प्रेशर ग्रुप बन गया. इस ग्रुप की आये दिन अलग-अलग स्थानों पर बैठकें होने लगीं. कैबिनेट में खींचतान के बेहद संगीन हालात में 19-20 महीने बाद सिंदरी में एक हत्या, एक सहकारिता
पदाधिकारी पर कार्रवाई तथा पश्चिम सिंहभूम में सड़क के एक ठेकेदार के बहाने 25 अगस्त 2006 को मानसून सत्र में सदन के अंदर मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा तथा संसदीय कार्य मंत्री मधु कोड़ा में तीखी नोंकझोंक हुई. पांच बजे के आसपास की इस घटना के तत्काल बाद कोड़ा लापता हो गये. इसके ठीक पहले इन पंक्तियों के लेखक को विधानसभा स्थित अपने कार्यालय कक्ष में बुलाकर कोड़ा ने कहा था, यदि आपका अखबार छाप सकता है तो छपवा दीजिए, ‘मुंडा की सरकार गयी. वे अपनी सरकार बचा सकते हैं तो बचा लें’.(जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)