Dr. Mayank Murari
फ्रांसीसी राजनीतिक चिंतक रूसो ने वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास पर आधारित सभ्यता के खतरों से आगाह किया और विकासशील मानव से प्रकृति की ओर लौट चलने की अपील की, तो लोगों ने उन्हें अप्रगतिशील करार दिया. इसी प्रकार महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज के माध्यम से 1909 में ही कहा था कि ये असीमित उपभोग पर आधारित सभ्यता है और यह एक दिन अपने को नष्ट करेगी. लेकिन तब भी दुनिया ने उनकी बातों को नजरअंदाज कर दिया. लेकिन वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास को आधार बनाकर 20 वीं सदी का एक कंप्यूटर वैज्ञानिक डेनिस मीडोज ने 1972 में न्यूयार्क में कंप्यूटर की सहायता से वर्तमान विकास गति को 21 वीं सदी के अंत तक महाविनाश का द्योतक घोषित किया, तो पूरी दुनिया चौंक गयी. लेकिन यह सच है. भौतिक भूख, भोग और उन्मुक्त तथा निर्बाध स्वच्छदता से संचालित पश्चिमी विकास के मॉडल अब सीमाओं का अतिक्रमण कर आत्महंता विकास की ओर बढ़ रही है.
प्रकृति का अवैज्ञानिक दोहन दुनिया को नष्ट कर देगा. तेल, कोयला, लोहा आदि प्राकृतिक संसाधनों एवं खनिजों का सीमित भंडार ही धरती के पास है. जब ये खत्म होंगे, जो बहुत ज्यादा दिन तक नहीं चलेंगे, तो इस धरती और उसके मानव का क्या होगा ? इसके लिए हमें खुद हड़प्पा, मोहनजोदड़ो सभ्यता के अंत तथा सरस्वती जैसी महानदी के विनाश के कारण को खोजना होगा. इनके कारणों के खोजने से पता चलेगा कि दुनिया के ज्ञात इतिहास में जितनी सभ्यताओं का नाश हुआ, उसके पीछे नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन तथा प्रकृति आधारित विकास को नकारना जैसे मुख्य कारण रहे.
अब सवाल यह उठता है कि क्या विकासोन्मुख समाज को पीछे लौटने को कह दिया जाए ? विकास के चक्र को पीछे लौटा दिया जाना चाहिए? नहीं. विकास को प्रकृति एवं समाजोन्मुख करना होगा, जिसकी वकालत उपनिषद के ऋषियों, रूसो एवं महात्मा गांधी ने किया था. जब रूसो ने पश्चिमी सभ्यता को कहा कि प्रकृति की ओर वापस लौटो तो उनका आशय सभ्यता की बर्बरता की ओर लौटना नहीं था. गांधीजी के सादगी और अहिंसा के विचार के पीछे कोई पिछड़ापन का आशय नहीं था. प्रकृति ने मनुष्य का सृजन किया है और मनुष्य उसका सर्वश्रेष्ठ उत्पादन है. ऐसे में प्रकृति का मनुष्य से अपेक्षा है कि वह उसका आश्रय बनाये, उसका सुंदरीकरण करे. लेकिन आधुनिक सभ्यता प्रकृति के विनाश पर तुली है, जिसकी गोद में खुद उसकी जिंदगी है. अन्यथा चिपको आंदोलन और ग्रीन आंदोलन नहीं चलाये जाते.
हर पदार्थ में चेतना की अभिव्यक्ति के माध्यम से भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ सामंजस्य और प्रकृति की सुरक्षा को बढ़ावा दिया गया. इस विचार प्रक्रिया का परिणाम ही है कि यह माना जाने लगा कि पेड़ पवित्र हैं, पृथ्वी पवित्र है और जल पवित्र है और सर्वोपरि पर्यावरण यानी जंगल, पहाड़, नदी और सागर पवित्र है. विकास की अवधारणा एवं अनुभवों से दो चीजें स्पष्ट होती हैं. पहला यह सत्य कि जहां एक तरफ आर्थिक विकास जरूरी है, वहीं दूसरी ओर यह सत्य कि यह विकास गरीबी कम करने या टिकाऊ विकास के लिए पर्याप्त नहीं है. दूसरा वर्तमान युग में प्रौद्योगिकी के बिना किसी भी विषय का प्रबंधन संभव नहीं है. और साथ ही यह हरेक समस्या का समाधान भी नहीं है. ऐसे में जरूरी है कि सांस्कृतिक चेतना का विकास किया जाए. इससे रचनात्मक कार्यों में संलग्न व्यक्तियों के बीच सहयोग होगा . साथ ही अच्छी राज्य व्यवस्था भी बनानी होगी. अच्छी राज्य व्यवस्था के बिना टिकाऊ विकास संभव नहीं है. अचल संसाधन वाले समाज में बिचौलिये एवं ठेकेदार राजनीतिज्ञों एवं लोकसेवकों के साथ मिलकर संसाधनों पर कब्जा जमा बैठे हैं और समाज के व्यापक हित के बदले अपने लाभ के लिए संसाधनों का दोहन करते हैं.
विकास के लिए मौजूदा भौतिकवादी विचारों को तिलांजलि देनी होगी. जरूरत है कि विकास की परिभाषा को पुनः बदला जाए. विकास को नये परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए सभ्यता, संस्कृति एवं विरासत को आधार बनाकर कार्य करना होगा. क्योंकि मेरा मानना है कि जब भोग और मौज का दौर हो, कोई वर्जनाएं न हों तो समाज की रचना और व्यक्ति के निर्माण के लिए संस्कृति का होना जरूरी है. यह संस्कृति हमारी कलाओं, शिक्षा, दर्शन, धर्म, सामाजिक आचरण और राजनैतिक संस्थाओं के माध्यम से व्यक्त होती है. अतएव सांस्कृतिक चेतना जिस समाज में ज्यादा होगी, वहां आक्रामक आर्थिक प्रतिस्पर्धा में भी शांतिपूर्ण विकास रचना पर विचार संभव हो सकेगा. विकास की हर अवधारणा में बेहतर जीवन के सभी संदर्भों मसलन उत्पादन प्रक्रिया, स्वास्थ्य की देखभाल, बच्चों का विकास, पारिवारिक जीवनमूल्यों की स्थापना, सामाजिकता का विस्तार आदि बेहद महत्वपूर्ण तत्व होते हैं. सांस्कृतिक गतिविधियों का उचित प्रबंधन किया जाए, तो विकास निश्चित ही टिकाऊ होगा.
कदाचित यही कारण है कि समाज पर अपना वर्चस्व कायम रखने तथा उसे अपनी नीति एवं विचारों के अनुसार चलाने के लिए प्रशासन की अवधारणा में भी लगातार परिवर्तन किया जाता रहा. यह परिवर्तन आजादी के पूर्व से जारी होकर आज भी बदस्तूर जारी है. आजादी के पूर्व प्रशासन तंत्र भारत में अंग्रेजी हुकूमत का विस्तार करने और उपनिवेशिक संरचना को सुदृढ़ करने के लिए था. अधिकारी तंत्र का मुख्य कार्य समाज में शांति व्यवस्था कायम रखना था, कल्याणकारी प्रशासन का लक्ष्य कभी नहीं रहा. भारत में प्रशासन तंत्र औपनिवेशिक शोषण का सबसे बड़ा साधन रहा. तब भी उस प्रशासन तंत्र के कारण भारतीय समाज को रेलवे, डाक-तार, अस्पताल एवं पश्चिमी शिक्षा जैसे सामाजिक सेवाएं प्राप्त हुईं. यहां यह समझना होगा कि पश्चिमी समाज में विकास प्रक्रिया आर्थिक क्षेत्र से शुरू हुई. भौगोलिक खोज, पूंजीवाद के उदय के साथ मध्यमवर्ग का विस्तार, मतदाताओं की संख्या में बढ़ोतरी से राजनीतिक दलों एवं मजदूर संगठनों का उदय हुआ और इसके परिणाम स्वरूप प्रशासन तंत्र का प्रादुर्भाव हुआ.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.