Shyam Kishore Choubey
जनवरी 2013 में भाजपा-झामुमो की अर्जुन मुंडा सरकार का पतन दरअसल खुद अर्जुन मुंडा के लिए खराब दिनों की आहट थी, जबकि थोड़ी-बहुत परेशानियों के बाद हेमंत सोरेन का असल राजयोग सामने आनेवाला था. बेशक अर्जुन मुंडा समझदार और मंजे हुए राजनेता हैं लेकिन चाहे जितना महान व्यक्ति हो, वह परिस्थितियों का दास तो होता ही है. राष्ट्रपति शासन चाहे जैसा भी हो, चुनी हुई लोकप्रिय सरकार की बराबरी नहीं कर सकता. तिस पर राज्यपाल डॉ सैय्यद अहमद बीमार शख्स थे और उनमें छपास की हद तक बीमारी थी. पूर्व के राष्ट्रपति शासन के दौरान एक सलाहकार, जो सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी थे, पर यदा-कदा कुछ न कुछ वैसे ही आरोप लगते रहते थे, जैसे कुछ मंत्रियों पर लगते रहे हैं. उसी कार्यकाल में राजभवन के कुछ कर्मी भी आरोपों में घिरे. यहां तक कि एक आइएएस अधिकारी भी घिरे, हालांकि बाद में वे बेदाग साबित हो गये. बहरहाल, तीसरे राष्ट्रपति शासन के दौरान 14 मार्च 2013 को लोकसभा और 21 मार्च को राज्यसभा से झारखंड का अगले वित्तीय वर्ष का 39,548.90 करोड़ का बजट पारित किया गया. तीसरी विधानसभा में राष्ट्रपति शासन लागू होने का यह दूसरा दौर था, जो ठीक साढ़े पांच महीने तक चला.
इस बीच शिबू सोरेन और उनके पुत्र हेमंत सोरेन की दिल्ली आवाजाही बढ़ गयी. अगले साल अप्रैल-मई में लोकसभा चुनाव होना था. केंद्र की मनमोहन सरकार पर आये दिन किसी न किसी स्कैंडल का आरोप लगता रहता था और यहां तक कि खुद कांग्रेस में भी असंतोष गहराता जा रहा था. इसलिए वह झारखंड और खासकर झामुमो को एकदम इग्नोर करने की स्थिति में नहीं थी. कांग्रेस के तत्कालीन झारखंड प्रभारी बीके हरिप्रसाद यहां की स्थितियों से पूरी तरह वाकिफ थे. वे इस मंशा के थे कि अपनी सरकार हो तो चुनाव में सुविधा हो सकती है. कांग्रेस भी यही चाहती थी, लेकिन वह यह भी जानती थी कि सोरेन परिवार कुछ अधिक ही उत्सुक है, इसलिए वह दिखावे के लिए टालमटोल करती रही. उसको मालूम था कि अब सोरेन परिवार के पास कांग्रेस के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. इन्हीं परिस्थितियों में दोनों दलों के बीच सहयोग-समन्वय का रास्ता बना और 12 जुलाई 2013 को हेमंत सोरेन राजा यानी मुख्यमंत्री बन गये. इस प्रकार हम देख रहे हैं कि तीसरी विधानसभा की तीसरी और 13 वर्षों के झारखंड की नौवीं सरकार काफी खींचतान के बाद अस्तित्व में आ गयी. राज्य इस बीच तीन मर्तबा राष्ट्रपति शासन के कुल जमा 21 महीने भी देख चुका था. चार साल पहले बड़े पुत्र दुर्गा सोरेन के निधन के बाद से ही शिबू सोरेन एक तो अन्यमनस्क हो चले थे, दूसरे लगातार संघर्ष और जवानी के दिन जंगल-देहात में भागदौड़ करते हुए गुजारने और ढलती उम्र के कारण उनका शरीर अपेक्षाकृत शिथिल पड़ता जा रहा था. ऐसी स्थिति में पार्टी के अंदर भी नेतृत्व का प्रश्न खड़ा किया जा रहा था. इसलिए यही वह सही समय था, जब वे अपना उत्तराधिकारी सुनिश्चित कर निश्चिंत हो सकते थे. हुआ भी यही. हेमंत के उभार की सारी परिस्थितियां जमा हो चुकी थीं.
हेमंत सरकार ने अपने ढंग से कमोबेश अच्छा ही काम किया. अलबत्ता आंतरिक राजनीतिक झंझावात कुछ अधिक ही झेलने को विवश हुई. इस सरकार में झामुमो और कांग्रेस के अलावा राजद की भागीदारी थी. सो, एहतियातन 12 जुलाई 2013 को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के अलावा कांग्रेस के राजेंद्र प्रसाद सिंह और राजद की अन्नपूर्णा देवी ने मंत्री पद की शपथ ली. कांग्रेस के ही आलमगीर आलम स्पीकर चेयर पर आसीन कराये गये. 22-23 दिनों बाद चार अगस्त को अन्य छह मंत्रियों को शपथ दिलायी गयी. इस दिन झामुमो के पाले से चंपाई सोरेन, साइमन मरांडी, हुसैन अंसारी और जयप्रकाश भाई पटेल तथा कांग्रेस की गीताश्री उरांव और राजद के सुरेश पासवान मंत्री बनाये गये. तीन पद अभी भी खाली थे, जिनको अगले बीस दिनों बाद 24 अगस्त को कांग्रेस के चंद्रशेखर दुबे, मन्नान मल्लिक और योगेंद्र साव से भरा गया. इस सरकार की खासियत यह थी कि हेमंत सोरेन तो पहली बार मुख्यमंत्री बने ही थे, कांग्रेस कुल के राजेंद्र प्रसाद सिंह सहित सभी पांच मंत्रियों और राजद के सुरेश पासवान समेत झामुमो के चंपाई और जयप्रकाश को भी पहली बार ही मंत्री बनने का मौका मिला. इस सरकार में तीन नेताओं के भी मंत्री बनने का सुयोग बाकी था, जबकि जयप्रकाश भाई पटेल के भी मंत्री बनने का किस्सा कम दिलचस्प नहीं था. इसके अलावा भी हेमंत सरकार के अंतर्विरोधों से हम आगे रू-ब-रू होंगे. (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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