दिल्ली में मोदी और रांची में रघुवर की बहुप्रचारित डबल इंजन की सरकार की असल परीक्षा हुई 2019 में. थोड़ा ठहरकर यहां 2019 के लोकसभा चुनाव का जिक्र आवश्यक है. 2014 के लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपना जो रंग-ढंग दिखाया था और उसके बाद देश की विभिन्न विधानसभा चुनावों में उसका जो सर्वग्राही रूप देखने को मिला था, उससे अंदाजा तो था ही 2019 के लोकसभा चुनाव में कुछ विशेष होनेवाला है. जो हुआ, वह अजूबा था. (इसी कड़ी से)
Shyam Kishore Choubey
झारखंड की पिछली नौ सरकारों की तरह दसवीं सरकार यानी रघुवर सरकार के भी अनेक किस्से प्रचलित हैं. इसके बावजूद जिस मुस्तैदी से उन्होंने सरकारी विभागों को घटाकर हठात् 31 पर ला दिया, वह काबिलेगौर है. झारखंड जब सन 2000 में अस्तित्व में आया था, तब इसके पास 19 ही विभाग थे लेकिन कई दलों की उस खिचड़ी सरकार में 27 मंत्रियों को एडजस्ट करना पड़ा था. संभवतः इस कारण भी विभागों की संख्या रबर की भांति तानते-तानते 42 तक पहुंचा दी गयी थी. एक कारण यह भी था कि एक ही विभाग के दो-तीन पहलुओं में से मंत्रियों की पसंद अलग-अलग पहलू हुआ करते थे. इसलिए भी विभागों में तोड़ताड़ की गयी. 2004 के बाद जब मंत्रियों की संख्या तय कर दी गई कि मुख्यमंत्री सहित 12 ही मंत्रियों की कैबिनेट होगी तो 42 विभाग ढोने का कोई मतलब न रह गया था. इस व्यवस्था के 11 वर्ष तक चलते रहने के बाद सुधार रघुवर ने ही किया. उन्होंने कैबिनेट डिसिजन लेकर विभागों की संख्या घटाते हुए 29 कर दी. हालांकि बाद में दो विभाग और क्रियेट कर दिये गये. ऐसे ही चाहे नयी विधानसभा बनवाने का सवाल हो या हाईकोर्ट परिसर के निर्माण में तेजी लाने या हज हाउस बनवाने का, ये ऐसे मसले थे, जो वर्षों से लटक रहे थे. रघुवर ही थे, जिन्होंने इनके निर्माण में अतिरिक्त दिलचस्पी दिखायी. इतना ही नहीं, रांची में पत्रकारों के लिए उन्होंने भव्य प्रेस क्लब भी तय समय में बनवाया. उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में राज्य में सड़क और भवन निर्माण का भी रिकार्ड कायम हुआ. इसके अलावा बजट निर्माण के पूर्व नागरिकों और विभिन्न संस्थाओं से रायशुमारी कराने की भी उन्होंने पहल की. इन कृत्यों पर सवाल उठ सकते हैं लेकिन जो पहल की गई और कार्यरूप दिया गया, उसकी सराहना भी होनी चाहिए. हां, एक अन्य विषय का भी उल्लेख जरूरी है कि उपराजधानी दुमका में समय-समय पर कैबिनेट बैठक करने का सिलसिला जमाने के बावजूद वे बरकरार न रख सके. उनके पूर्व हेमंत की 17 महीने की सरकार के दौरान दो मर्तबा दुमका में कैबिनेट बैठक जरूर की गयी थी, लेकिन केवल इतने से राजनीतिक कर्मकांड से उपराजधानी का कायाकल्प नहीं हो सकता. 2016 में दो सीटों पर हुए द्विवार्षिक राज्यसभा का भी एक मसला है, जिसके छींटे रघुवर पर पड़े, लेकिन उसका जिक्र फिर कभी.
दिल्ली में मोदी और रांची में रघुवर की बहुप्रचारित डबल इंजन की सरकार की असल परीक्षा हुई 2019 में. थोड़ा ठहरकर यहां 2019 के लोकसभा चुनाव का जिक्र आवश्यक है. 2014 के लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपना जो रंग-ढंग दिखाया था और उसके बाद देश की विभिन्न विधानसभा चुनावों में उसका जो सर्वग्राही रूप देखने को मिला था, उससे अंदाजा तो था ही 2019 के लोकसभा चुनाव में कुछ विशेष होनेवाला है. जो हुआ, वह अजूबा था. इस चुनाव के पहले ही वरिष्ठतम भाजपा सांसदों में से एक कड़िया मुंडा, जो लोकसभा उपाध्यक्ष थे, को पद्म विभूषण अलंकरण नवाज कर संकेत दे दिया गया था कि अब वे शो केस में रखने लायक हो गए हैं. घर-परिवार के बीच उनके आराम करने के दिन आ गए हैं. वे 75 पार कर चुके थे. ऐसे ही रांची के सांसद रामटहल चौधरी को भी टहला दिया गया. और तो और जब भाजपा के अच्छे दिन न हुआ करते थे, तब से कांग्रेस त्याग कर भाजपा के सांसदों में एक संख्या का इजाफा कर रहे गिरिडीह के सांसद रवींद्र कुमार पांडेय को बहुत अजीब तरीके से चलता कर दिया गया. इसी प्रकार विद्यार्थी जीवन से ही संघ और भाजपा के झंडाबरदार रहे कोडरमा के सांसद प्रो. रवींद्र राय की भी छुट्टी कर दी गयी. रवींद्र द्वय सीटिंग सांसद थे. भाजपा के ही खेमे में कहा गया कि जिस किसी ने भी रघुवर की थोड़ी भी शिकायत की, उसका टिकट कट गया. टिकट तो चतरा के सांसद सुनील कुमार सिंह का भी पचड़े में डाल दिया गया था लेकिन दिल्ली और कुछ अन्य जगहों के उनके संपर्कों ने अंततः राहत बख्श देने में मदद की.
इस चुनाव में भाजपा ने कड़िया को मौका न देते हुए तीन बार मुख्यमंत्री और एक मर्तबा सांसद रह चुके अर्जुन मुंडा को खूंटी से उम्मीदवार बनाया. पांच वर्षों तक एक तरह से वनवास झेलने के बाद अर्जुन मुंडा को यह मौका मिला. कहा तो यह भी जाता है कि मुंडा के खिलाफ साजिशन यह कदम उठाया गया था. उनके जीतने की पक्की उम्मीद न थी. बात यहां तक आयी कि चुनाव कैंपेनिंग में उनको पर्याप्त मदद नहीं मिली लेकिन बेहद कड़े मुकाबले में वे विजयी रहे और मोदी 2.0 कैबिनेट में उनको जगह भी मिल गयी.
रवींद्र पांडेय का खास जिक्र इसलिए कि उनके संसदीय क्षेत्र गिरिडीह के अंतर्गत बाघमारा विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे ढुलू महतो की इच्छा सांसद बनने की हो गई थी. कोई भी विधायक यह अपॉरचुनिटी चाहेगा. ढुलू महतो रघुवर के इतने प्रिय थे कि उन पर चल रहे केस-मुकदमे उठा लेने की सरकार ने सिफारिश कर दी थी, जो मुकाम न पा सकी. उनकी खासियत ही मानी जायेगी कि जेवीएम छोड़कर वे 2014 में भाजपा में आये थे, लेकिन उन पर सरकार की किरपा बरसने लगी. यह महज जातीय समीकरण था या और कुछ, यह बहस का विषय है. ये वही ढुलू महतो हैं, जो जेल से इलाज के नाम पर दिल्ली एम्स ले जाये गये थे, लेकिन वहां उन्होंने तफरीह भी की. खैर, उन्होंने लोकसभा चुनाव के पूर्व रवींद्र पांडेय के विरोध में मोर्चा खोल दिया था. दोनों में मनमुटाव दुश्मनागत की हद तक चला गया. भाजपा जैसा अनुशासनप्रिय संगठन इस विषय पर मौन ही रहा. यह देख सियासी हलके में गॉसिप बढ़ चली कि इस बार चुनाव में भाजपा रवींद्र को हाशिये पर डाल ढुलू को ही वरेगी. इस बीच आजसू प्रमुख सुदेश महतो अचानक दिल्ली तलब किये गये और सारी उम्मीदों एवं अटकलबाजियों को पानी पिलाते हुए मोदी-शाह की जोड़ी ने वह सीट गठबंधन पार्टनर आजसू को सौंप रघुवर सरकार में पेयजल मंत्री चंद्रप्रकाश चौधरी के हवाले कर दी. भाजपाई हाय-हाय करते रह गये. उनकी चुटिया हस्तिनापुर से बंधी थी, सो थोड़ा-बहुत हाय-हाय करने के अलावा और अधिक कर भी क्या सकते थे? चंद्रप्रकाश के लोकसभा में चले जाने का राज्य पर एक यही असर पड़ा कि उन्होंने 31 मई 2014 को विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा कर दिया. लगे हाथ आजसू के एक अन्य विधायक रामचंद्र सहिस को मंत्री बनाकर चंद्रप्रकाश के जिम्मे के तमाम विभाग सौंप दिये गये.
कोडरमा सीट के विषय में तो इतना ही कहना-जानना काफी होगा कि रघुवर सरकार को और अधिक मजबूत बनाने में तत्कालीन सांसद और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रवींद्र राय की भी भूमिका अहम रही थी. अपने राजनीतिक जीवन के बीच के थोड़े काल में वे विचलित जरूर हुए थे, जब बाबूलाल मरांडी के संग जेवीएम में चले गये थे, लेकिन उनकी घर वापसी भी हो गयी थी. उनकी निष्ठा देखते हुए ही पहले भाजपा किसान मोर्चा और फिर प्रदेश अध्यक्ष की जवाबदेही सौंपी गयी थी. कोडरमा का जातीय समीकरण भी उनके पक्ष में था. लेकिन जैसा कि पता चला, भाजपा के एक बड़े यादव नेता ने संपर्क साधा और राजद की प्रदेश अध्यक्ष अन्नपूर्णा यादव ने लालटेन त्याग कमल फूल थाम लिया. रवींद्र पांडेय की ही तरह रवींद्र राय भी घर बैठने को विवश हो गये.
इधर कांग्रेस ने भी एक अजूबा किया. कभी मुख्यमंत्री रहे मधु कोड़ा की विधायक पत्नी गीता कोड़ा को उसने सिंहभूम सीट से अपना झंडा पकड़ा दिया. चूंकि घोटाले के आरोप में मधु कोड़ा को पूर्व में दो वर्ष से अधिक की सजा सुनाई जा चुकी थी, इसलिए चुनाव लड़ने से वे अयोग्य हो चुके थे. गीता को मय मधु कोड़ा कांग्रेस ने सदस्यता दे दी. इस चुनाव में भाजपा ने कड़िया को मौका न देते हुए तीन बार मुख्यमंत्री और एक मर्तबा सांसद रह चुके अर्जुन मुंडा को खूंटी से उम्मीदवार बनाया. पांच वर्षों तक एक तरह से वनवास झेलने के बाद अर्जुन मुंडा को यह मौका मिला. कहा तो यह भी जाता है कि मुंडा के खिलाफ साजिशन यह कदम उठाया गया था. उनके जीतने की पक्की उम्मीद न थी. बात यहां तक आयी कि चुनाव कैंपेनिंग में उनको पर्याप्त मदद नहीं मिली लेकिन बेहद कड़े मुकाबले में वे विजयी रहे और मोदी 2.0 कैबिनेट में उनको जगह भी मिल गयी. कड़िया मुंडा की ही तरह रामटहल चैधरी की जगह रांची सीट से भाजपा ने राज्य खादी ग्रामोद्योग आयोग के चेयरमैन संजय सेठ को प्रत्याशी बनाया. संजय-रघुवर का अपनापन हर कोई जानता है. संजय हालांकि इसके पूर्व वार्ड पार्षद तक का चुनाव नहीं लड़ पाये थे, लेकिन लोकसभा चुनाव में उन्होंने तीन मर्तबा केंद्रीय मंत्री रह चुके कांग्रेस के बड़े नेता सुबोधकांत सहाय के विरुद्ध जबर्दस्त तरीके से बाजी मार ली. अलबत्ता चतरा सीट पर कैंपेनिंग के दौरान सुनील सिंह को बार-बार विरोध का सामना करना पड़ा. नागरिकों का आरोप था कि पहली पारी में सांसद चुने जाने के बाद उन्होंने सुध-बुध नहीं ली, ज्यादा समय दिल्ली में ही बिताया. इसके बावजूद सुनील विजयी रहे. एक और बात ध्यान देने योग्य है कि हजारीबाग सीट से दुबारा विजयी रहने के बावजूद जयंत सिन्हा को मोदी मंत्रिमंडल में इस बार कोई जगह नहीं मिली, जबकि पहली बार उनको समुचित बर्थ दी गयी थी. चर्चा यही चली कि चूंकि उनके पिता यशवंत सिन्हा, जो कभी भाजपा के स्टालवार्ट नेताओं में शुमार किये जाते थे, वित्त और विदेश मंत्री रहने का जिनको अनुभव रहा, उनके बागी हो जाने का दंश जयंत को झेलना पड़ा. यशवंत 2014 के चुनाव के बाद ही बागी हो गये थे, लेकिन जयंत का मुंह देखते हुए भाजपा ने 2019 में उनको टिकट तो दे दिया, लेकिन जीत का ईनाम नहीं दिया.
इधर यूपीए के खेमे में पहली मर्तबा बाबूलाल मरांडी शरीक हुए. कांग्रेस, झामुमो, राजद और जेवीएम की चौकड़ी ने दांव आजमाया लेकिन उनके हिस्से में दो ही सीटें आयीं. सिंहभूम से कांग्रेस की गीता कोड़ा और राजमहल से झामुमो के विजय हांसदा ही जीत सके. परंपरागत दुमका सीट से झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन हार गये. इस प्रकार मोदी-शाह काल में 2014 के पहले चुनाव के सापेक्ष भाजपा को एक कम यानी 11 ही सीटें मिल सकीं, लेकिन एनडीए की घटक आजसू की गिरिडीह सीट पर विजय ने उसे 12 का 12 कर दिया. (जारी)
(नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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