राज्य के नेताओं और राजनीतिक दलों में सत्ता की लालसा किस कदर घर कर गयी है, इसका उदाहरण बना 2019 का चुनाव. यूं तो हर चुनाव में नेता और दल मौका ताड़ते रहते हैं कि कहां जाने से जीत मिलेगी और किसको अपने पाले में लाने से जीत मिलेगी, लेकिन सत्ता और केवल सत्ता के लिए ऐसी हड़बोंग पहले कभी न देखी गयी. (इसी कड़ी में पढ़ें)
Shyam kishaore Choube
भाजपा से विलग होने पर आजसू ने सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. इसके बाद भाजपा के राधाकृष्ण किशोर और ताला मरांडी ने भी बिना सदन की सदस्यता त्यागे आजसू जॉइन कर ली. राधाकृष्ण किशोर राज्य की राजनीति में एक जाना-माना नाम थे, जो पांच बार विधायक चुने जा चुके थे. उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी कांग्रेस से शुरू की थी और 1980 में पहली बार पलामू के छतरपुर से विधायक चुने गये थे. झारखंड बनने के बाद 2005 में वे जदयू के टिकट पर सदन पहुंचे थे. 2009 के चुनाव के पूर्व राधाकृष्ण अपने जीजा रिटायर्ड डीजीपी वीडी राम को भाजपा की सदस्यता और पलामू सीट से लोकसभा चुनाव का टिकट दिलाने में इंस्ट्रूमेंटल रहे थे और ऐन चुनाव के मौके पर खुद भी कमल थामे नजर आये. चुनाव जीतने के बाद उनको कैबिनेट में तो शामिल नहीं किया गया था, किंतु कुछ अरसा बाद मंत्री के दर्जा वाले सत्ताधारी गठबंधन का मुख्य सचेतक पद जरूर दे दिया गया था. टाटा लीज एरिया के मसले पर विधानसभा की समिति का नेतृत्व करते हुए उन्होंने जो रिपोर्ट दाखिल की थी और यदा-कदा साफगोई से बोलने के कारण अंदरखाने से उनको खबर मिली कि इस बार उनके परंपरागत क्षेत्र छतरपुर क्षेत्र से राजद के सांसद रह चुके मनोज भुइयां की पत्नी को टिकट मिलनेवाला है. इस कारण वे आजसू में चले गए. ताला मरांडी को यूं तो भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष ही बनाया गया था, किंतु पारिवारिक विवाद की छाया उनका चुनाव तक पीछा करती रही, जिस कारण उनका भी टिकट संशय के दायरे में था. इसलिए उन्होंने भी आजसू में जाना बेहतर समझा. आजसू के विकास कुमार मुंडा झामुमो में चले गये. मुख्यमंत्री रघुवर दास से चली आ रही कटुता के कारण मंत्री सरयू राय का टिकट कटने की नौबत आयी तो उन्होंने भाजपा का दामन छोड़ निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया. साथ ही फैक्स संदेश के माध्यम से अपना इस्तीफा स्पीकर को प्रेषित किया, जिसे उन्होंने अस्वीकृत कर दिया था. इस प्रकार हम देख रहे हैं कि चौथी विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने के डेढ़-दो महीने पहले दल-बदल का सिलसिला शुरू हुआ, जिसमें अंत-अंत तक आठ विधायकों ने पाला बदल लिया. इनमें से केवल एक सरयू राय ने फैक्स के माध्यम से ही सही अपनी सदस्यता से त्यागपत्र स्पीकर को भेजा. बाकी सात ने दल-बदल अधिनियम की कतई परवाह न की. न तो स्पीकर ने स्वतः संज्ञान लिया, न संबंधित दलों ने शिकायत दर्ज करायी. सभी दलों पर चुनाव जीतने का भूत सवार था. ऐसे में दल-बदल वाला संविधान का पार्ट किसी कोने में सुबकता रहा.
केस-मुकदमों और जेल यात्रा से हैरान-परेशान नौजवान संघर्ष मोर्चा के भानु प्रताप शाही ने भी इसी दौरान भाजपा जॉइन कर अपना राजनीतिक शुद्धिकरण करा लिया. पांकी क्षेत्र गठबंधन में कांग्रेस के हिस्से में जाने के कारण झामुमो के शशिभूषण मेहता भी भाजपा में आ गये. पड़ोस की सीट लातेहार के जेवीएम विधायक प्रकाश राम ने भाजपा में कूद लगा दी, तो झामुमो ने पूर्व में मंत्री रह चुके भाजपा के बैद्यनाथ राम को अपने पाले में लेकर जीत दिला दी. आजसू का दामन त्याग विकास कुमार मुंडा झामुमो में आ गये. झरिया के चर्चित सिंह मेंशन में पल-चल रहे आपसी विवाद का परिणाम यह हुआ कि जेल में बंद भाजपा विधायक संजीव सिंह की भाभी पूर्णिमा सिंह कांग्रेस में आ गयीं. इस सीट पर पिछले बीस वर्षों से अपने जमाने के बाहुबली विधायक सूर्यदेव सिंह के परिवार का कब्जा चला आ रहा है. उनकी कोठी सिंह मेंशन इस परिवार की पहचान बन चुकी है. सूर्यदेव सिंह के देहांत के बाद उनके भाई बच्चा सिंह समता पार्टी के टिकट पर विधायक चुने गये थे. बाद के दो चुनावों में सूर्यदेव सिंह की विधवा कुंती देवी बतौर भाजपा विधायक चुनी जाती रहीं. 2009 में उनके पुत्र संजीव सिंह ने यह सीट पायी लेकिन अपने चचेरे भाई नीरज सिंह की हत्या की साजिश में 11 अप्रैल 2017 से जेलबंद हैं. नीरज की हत्या 17 मार्च 2017 को हुई थी. इस चुनाव में उनकी पत्नी रागिनी सिंह और भाभी यानी नीरज सिंह की विधवा पूर्णिमा सिंह आपस में भिड़ गयीं. जीत पूर्णिमा की हुई, वह भी कांग्रेस के टिकट पर. झारखंड बनने पर पहली बार कांग्रेस को यह उपलब्धि हासिल हुई. संजीव की पत्नी रागिनी भाजपा प्रत्याशी थीं. बगल की निरसा सीट पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि फॉरवर्ड ब्लॉक की अपर्णा सेनगुप्ता भाजपा में आ गयीं. गांडेय सीट से दिग्गज कांग्रेसी नेता डॉ सरफराज अहमद झामुमो में चले गये. पिछली मर्तबा जेवीएम से चुने जाने के बावजूद जो गणेश गंझू दल बदल करते हुए भाजपा में चले गये थे, इस बार उनको भाजपा ने टिकट से ही वंचित रखा और किशुन कुमार दास को प्रत्याशी बनाकर सिमरिया सीट से जीत दिला दी. बरही के कांग्रेसी मनोज यादव भाजपा में चले गये, तो कांग्रेस ने भाजपाई उमाशंकर अकेला को अपने पाले में ला जीत दिलायी. रघुवर सरकार के कार्यकाल में ही मार्के का एक राजनीतिक हृदय परिवर्तन हुआ था. 2014 के चुनाव के पूर्व लड़-झगड़कर झामुमो से बड़े नेता साइमन मरांडी भाजपा में चले गये थे और अपनी परंपरागत सीट लिट्टीपाड़ा गवां बैठे थे. वे ही साइमन जब उपचुनाव की बारी आयी तो झामुमो में वापस हो गये. 2014 के चुनाव में झामुमो ने साइमन के मुकाबले अनिल मुर्मू नामक नये चेहरे को उतारा था. 2017 की 17 जनवरी को अनिल मुर्मू को देहांत हो गया. इसके बाद हुए उपचुनाव में साइमन की गृह वापसी हुई और वे विजयी रहे. खराब सेहत के कारण 2019 के चुनाव में झामुमो ने उनके पुत्र दिनेश विलियम मरांडी को मौका दिया, जो जीतकर विधायक बन गये.
इस तरह 2019 के विधानसभा चुनाव में नेताओं के अद्भुत रूप से दल और दिल बदलने का मौन गवाह बना झारखंड. ऊपर उन दलबदलुओं के नाम हैं, जो इस दल से उस दल में कूद-फांद कर चुनाव जीत सके और माननीय बन गये. राज्य के नेताओं और राजनीतिक दलों में सत्ता की लालसा किस कदर घर कर गयी है, इसका उदाहरण बना 2019 का चुनाव. यूं तो हर चुनाव में नेता और दल मौका ताड़ते रहते हैं कि कहां जाने से जीत मिलेगी और किसको अपने पाले में लाने से जीत मिलेगी, लेकिन सत्ता और केवल सत्ता के लिए ऐसी हड़बोंग पहले कभी न देखी गयी. और तो और लंबे समय तक कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष रह चुके प्रदीप कुमार बलमुचू भी इसी चुनाव के दौरान आजसू में चले गये. कांग्रेस ने उनको विधायक, मंत्री, राज्यसभा सदस्य, प्रदेश अध्यक्ष यानी सबकुछ बनाया. लेकिन चूंकि उनकी परंपरागत सीट घाटशिला इस बार गठबंधन में झामुमो के पाले में चली गयी थी, इसलिए इस फैसले के विरोध में चुनाव लड़ने के शौकवश वे आजसू में जाकर अपनी तौहीन करा बैठे. वे चुनाव हार गये. उनके जैसे ही अनेक नेताओं ने इस बार पाला बदलने में परहेज नहीं किया लेकिन दल बदल लेने मात्र से ही सबको जीत हासिल नहीं हो जाती न! (जारी)
नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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