Shyam kishaore Choube
21 वर्षों के झारखंड की राजनीति में दो ही ध्रुव हैं, जो अन्य दलों को समय-कुसमय आकर्षित करते रहते हैं. एक तरफ घोर दक्षिणपंथी भाजपा तो दूसरी तरफ कभी इधर तो कभी उधर रहनेवाला झामुमो. यूं, भाजपा की संगति करके भी झामुमो ठीक वैसे ही दक्षिणपंथी नहीं बन पाता, जैसे बिहार में जदयू अपनी पहचान नहीं छोड़ पाता. झामुमो की प्रवृत्ति मूलतः धर्मनिपरेक्षता की रही है लेकिन वह पूरी तरह कांग्रेस भी नहीं बन सकता. 2006 से 2020 तक इस राज्य में भाजपा से छिटककर एक अलग पार्टी अस्तित्व बनाने के प्रयास में लगी रही. नाम था जेवीएम-प्रजातांत्रिक लेकिन उसे लोग जेवीएम के ही नाम से जानते रहे, जैसे सीपीआई-माले को सिर्फ माले कहकर भी लोग पुकारते हैं.
2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में नेताओं की जो इधर से उधर भागा-भागी मची, उसी क्रम में झामुमो, कांग्रेस, जेवीएम और राजद के संबंधों पर भी गौर किया जाना जरूरी है. जेवीएम में हालांकि कई नामी-गिरामी नेताओं का आवागमन लगा रहा किंतु इसकी पहचान बाबूलाल मरांडी ही रहे. बाबूलाल चूंकि संघ के रास्ते भाजपा में आये थे और लंबे अरसे तक उससे जुड़कर राज्य और केंद्र की राजनीति करते रहे, इसलिए उनकी पार्टी के अंत-अंत तक यह चर्चा होती रही कि वे संघ के ही एजेंडे पर काम करते हैं. उनका मिशन एक अलग किस्म की स्वतंत्र राजनीति का था, इसलिए सहयोग-समर्थन हर जाति-धर्म का आवश्यक था. इसी दिशा में उन्होंने घोर प्रयास किये. भाजपा के समानांतर संगठन बनाने की ओर उन्होंने कभी कदम नहीं बढ़ाया. यह संभव भी नहीं था. इसी कारण उन्होंने दिन-रात एक कर अलग पहचान वाला बड़ा संगठन तैयार करने की जुगत लगायी. ऐसा हो न सका. आज की राजनीति में पैसा बहुत मायने रखता है, जिसकी उनके पास संभवतः उतनी पहुंच न थी. उन्होंने डॉ शबा अहमद, बंधु तिर्की जैसे नेताओं को जोड़कर अपनी अलग पहचान बनाने की भरपूर कोशिश की. उनकी खुद की पहचान में कोई कमी न थी, न है लेकिन तीन चुनावों के परिणाम बताते हैं कि उनके दल का ग्राफ नीचे ही जाता रहा. 2009 के चुनाव में जहां उनके 11 विधायक सदन में पहुंचे, वहीं 2014 में आठ और 2019 के चुनाव में महज तीन. उन पर डोरे डालने में न भाजपा पीछे थी, न ही कांग्रेस. चूंकि वे दुमका संसदीय सीट पर झामुमो को चुनौती देते रहे थे, उनका खुद का कद बड़ा रहा और वे मुख्यमंत्री भी रहे, इसी कारण झामुमो का झुकाव उनकी ओर नहीं रहा. 2013 में हेमंत सोरेन के मुख्यमंत्री बनने और शिबू सोरेन का स्वास्थ्य गिरावट की ओर आ जाने के कारण पार्टी की कमान क्रमशः हेमंत के हाथों में आने लगी. क्षेत्रीय पार्टियों में ऐसा ही होता भी है.
2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव का झारखंड की राजनीति पर पर्याप्त असर पड़ा तो बाबूलाल और जेवीएम की ओर कांग्रेस का ध्यान बढ़ गया. शायद बाबूलाल ने भी अपनी राजनीतिक हैसियत का आकलन कर सहयोग-समझौते का रूख अख्तियार किया. देश की राजनीति में मोदी नामक हौव्वा था, जिसे देखते हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में झामुमो, कांग्रेस, जेवीएम और राजद में महागठबंधन का खाका तैयार किया गया. इससे वोटों का बिखराव रोककर भाजपा को चुनौती दी जा सकती थी. उन दिनों कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ अजय कुमार थे, जो जेवीएम के टिकट पर 2011 के उपचुनाव में जमशेदपुर सीट से सांसद चुने जा चुके थे. यह उपचुनाव भाजपा के अर्जुन मुंडा के इस्तीफे के कारण हुआ था क्योंकि वे राज्य के मुख्यमंत्री बना दिये गये थे. जैसा कि उस समय यह बात सामने आई थी, महागठबंधन में जेवीएम को शामिल करने पर हेमंत सोरेन को हिचक थी. सवाल केवल लोकसभा चुनाव का ही नहीं, पांच-छह महीने बाद होनेवाले विधानसभा चुनाव का भी था और झामुमो के लिए यह अधिक महत्वपूर्ण था. विधानसभा चुनाव के बाद संयोग जुटने पर मुख्यमंत्री पद पर जिच संभावित थी. कांग्रेस की उत्सुकता कुछ अधिक थी. उसको मालूम था कि अकेले चुनाव लड़ने में नुकसान अधिक होगा. इतिहास साक्षी है, विधानसभा चुनाव में जब-जब कांग्रेस अकेले उतरी, उसको नुकसान ही हुआ. हेमंत केवल लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन पर राजी न थे. उधर बाबूलाल भी बहुत उत्सुकता नहीं दिखा रहे थे, अलबत्ता उनके प्रमुख सिपहसालार प्रदीप यादव की दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी. उनकी नजर गोड्डा सीट पर दो मर्तबा पटखनी दे चुके भाजपा के निशिकांत दुबे को किसी भी सूरत में हार का स्वाद चखाने की थी. इन्हीं परिस्थितियों में बात बढ़ी तो लिखित समझौते पर अटक गयी. हेमंत लिखित रूप में चाहते थे कि लोकसभा का चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में भले ही लड़ा जाये, किंतु विधानसभा चुनाव की कमान उनके हाथ में रहे. नेतृत्व का फार्मूला अधिक सीटें अपने हिस्से में लेने से जुड़ा हुआ था. (जारी)
नोटः यह श्रृंखला लेखक के संस्मरणों पर आधारित है. इसमें छपी बातों से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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