Satya Sharan Mishra
Ranchi: एक जमाने के झारखंड के बड़े और चर्चित नेता के रूप में जाने आधा दर्जन नेता आज आइडेंटिटी क्राइसिस से गुजर रहे हैं. इनमें से कुछ राजनीतिक दलों के प्रदेश अध्यक्ष तक रह चुके हैं. अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए इन नेताओं ने दल बदल कर अपना कद और ऊंचा करना चाहा, लेकिन यह प्रयोग काम न आया और आज हालत ये हो गई है कि वे न घर के रहे न घाट के. सुखदेव भगत, प्रदीप बलमुचू, दुलाल भुईंया, ताला मरांडी, लालचंद महतो और राधाकृष्ण किशोर जैसे नेताओं ने बड़ी उम्मीद से अपना ठिकाना बदला. चुनाव में टिकट तो मिला, लेकिन जनता ने इन्हें नकार दिया. अब ये राजनीतिक गलियारे में भी हाशिये पर जा चुके हैं. जब पहचान पर संकट आयी तब इन्हें पुराने संगठन की याद आ रही है. जब ये पद और पावर में थे, तब संगठन में आने के लिए लोग इनकी पैरवी करते थे. लेकिन आज हालत ये है कि संगठन में जुड़ने का दिया गया आवेदन भी महीनों से लंबित है.
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बलमुचू और सुखदेव पर कांग्रेस ने अबतक नहीं किया फैसला
झारखंड कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष के साथ-साथ विधायक रहे प्रदीप बलमुचू और सुखदेव भगत की हालत पेंडुलम की तरह हो गई है. इन दोनों ने कांग्रेस में वापसी के लिए कई महीने पहले ही पार्टी को आवेदन दिया है. प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर के मुताबिक, अबतक इन दोनों के आवेदन पर पार्टी हाईकमान की तरफ से कोई फैसला या संकेत नहीं मिला है. प्रदीप और सुखदेव ने 2019 के विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी बदली थी. प्रदीप बलमुचू आजसू में शामिल होकर कांग्रेस के खिलाफ घाटशिला से चुनाव लड़े थे, लेकिन वे चुनाव हार गये. उधर सुखदेव भगत ने बीजेपी का दामन थाम कर लोहरदगा से कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ा था. उन्हें भी हार का मुंह देखना पड़ा था. चुनाव हारने के बाद दोनों नेता नये ठिकाने में धीरे-धीरे हाशिये पर जाने लगे. जब पहचान की संकट पैदा हुई, तो फिर पुराने दल की ओर रुख किया, लेकिन पुरानी पार्टी यानी कांग्रेस भी इनके धैर्य की परीक्षा ले रहा है.
पुराने घर की चाबी तलाश रहे हैं ताला
बीजेपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी भी पुराने घर की चाबी तलाश रहे हैं. 2019 के विधानसभा चुनाव में बोरियो से टिकट कटने के बाद ताला मरांडी आजसू में शामिल हो गये थे. आजसू ने टिकट भी दिया, लेकिन वे चुनाव हार गये. धीरे-धीरे उनका आजसू से मोहभंग हो गया. अब एक बार फिर ताला बीजेपी में वापसी के लिए पैरवी कर रहे हैं. हाल ही में उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश से मुलाकात की थी. बताया जाता है कि ताला ने इस मुलाकात में बीजेपी में शामिल होने की इच्छा जताई थी, जिसपर प्रदेश अध्यक्ष ने कोर-कमेटी की बैठक में फैसला होने की बात कही थी. विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए ताला मरांडी ने सीएनटी-एसपीटी एक्ट पर तत्कालीन रघुवर सरकार की लाइन से अलग बयान देकर चर्चा में आये थे. इसके बाद अपने बेटे की नाबालिग लड़की से शादी के मामले में वे विवाद में आये और उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा था.
दल बदलने के बाद भी नहीं बदलते राधाकृष्ण किशोर के हालात
छतरपुर विधानसभा सीट से 5 बार विधायक रहे राधाकृष्ण किशोर सबसे ज्यादा दल बदलने वाले नेताओं में से हैं. राधाकृष्ण किशोर एक सुलझे हुए नेता हैं, लेकिन राजनीतिक करियर को बचाने के लिए वे दल बदलते रहे हैं. फिलहाल वे आरजेडी में हैं. 2019 में बीजेपी से टिकट कटने के बाद वे आजसू में शामिल हुए थे, लेकिन चुनाव हार गये और फिर उनका आजसू से भी मोहभंग हो गया और आरजेडी का दामन थाम लिया. राधाकृष्ण किशोर 1980,1985 और 1995 का चुनाव का उन्होंने कांग्रेस की टिकट पर लड़ा और जीते थे. इसके बाद 2005 में वे जेडीयू से विधायक बने. 2009 के बाद राधाकृष्ण किशोर ने अपने पुराने घर कांग्रेस में वापसी की, लेकिन वहां दोबारा अपनी मजबूत पकड़ नहीं बना सके. दोबारा कांग्रेस से मोहभंग होने के बाद वे बीजेपी में शामिल हो गये. बीजेपी ने भी टिकट काटा तो आजसू और अब आरजेडी के साथ हो गये. आरजेडी में भी उन्हें कोई बड़ी जिम्मेदारी अबतक नहीं मिली है.
दुलाल भी गुजर रहे हैं पहचान की संकट से
झारखंड सरकार में मंत्री रह चुके दुलाल भुईंया भी आइडेंटिटी क्राइसिस से गुजर रहे हैं. 2005 में जेएमएम की टिकट से उन्होंने जुगसलाई विधानसभा सीट पर जीत दर्ज की थी. विधानसभा चुनाव 2014 के पहले दल बदलने के मामले में दुलाल भुईंया ने तो इतिहास ही रच दिया. जुगसलाई सीट से बीजेपी, जेवीएम और जेएमएम से टिकट हासिल करने में नाकाम होने के बाद किसी तरह वे कांग्रेस से टिकट पाने में सफल तो हो गए. लेकिन चुनाव हार गये. कांग्रेस के बाद वे बसपा में शामिल हो गये और 2019 का विधानसभा चुनाव बसपा की टिकट पर लड़ा.
मंत्री और 4 बार विधायक रहे गिरिनाथ भी आइडेंटिटी क्राइसिस से गुजर रहे
बिहार सरकार में मंत्री और गढ़वा से 4 बार विधायक रहे गिरिनाथ सिंह भी राजनीतिक पहचान बचाने की जद्दोजहद कर रहे हैं. 1993 से 2019 तक वे लालू के साथ रहे. लेकिन झारखंड में आरजेडी के गिरते जनाधार और आरजेडी प्रत्याशी के रूप में लगातार हार से निराश होकर वे बीजेपी के साथ चले गये. 2019 के विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने बीजेपी का दामन थामा. लेकिन उन्हें गढ़वा से टिकट नहीं मिला. बीजेपी में भी वे अबतक खुद को स्थापित नहीं कर पाये हैं. 1993 के उपचुनाव में पहली बार गिरिनाथ जनता दल से विधायक बने. इसके बाद 1995 और 2000 के चुनाव में उन्होंने जनता दल और राजद के प्रत्याशी के रूप में जीत दर्ज की. 1997 में वे राबड़ी देवी के मंत्रिमंडल में पीएचइडी के राज्यमंत्री भी बने. 2005 में वे आखिरी बार आरजेडी से विधायक बने. 2009 के बाद ये सीट जेवीएम, बीजेपी के बाद जेएमएम के पास चली गई.
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