Sunil Badal
नए भारत में 24X7 एक से बढ़कर एक ध्वनि प्रभावों के साथ नाटकीय, चमकदार और ब्रेकिंग न्यूज से सजे खबरिया चैनल पत्रकारिता के नए आयाम गढ़ रहे हैं. इसी दौड़ में नए इंडिया एलायंस ने कथित भेदभाव करने वाले 14 एंकर की सूची जारी कर बाक़ायदा आदेश निकाला कि इनके कार्यक्रमों में एलायंस के प्रवक्ता भाग नहीं लेंगे और एक नई खबर जोड़ दी. इसमें सालाना करोड़ों वेतन पाने वाले स्टार एंकर भी हैं. यह एक अभूतपूर्व घटना है, क्योंकि आजतक मीडिया से मधुर संबंध बनाकर ही राजनैतिक पार्टियां सफलता की सीढ़ियां चढ़ती रही थीं. इस बदले युग में नेता भी याचक नहीं और मीडिया भी बाजार के दबाव से मुक्त नहीं. जिस देश में बैंक का ऋण और शिक्षा उत्पाद मान लिया जाए, वहां आधुनिक मीडिया के प्रतीक एंकर को समाज निष्पक्षता का चेहरा मानने को तैयार नहीं, पर एंकर या मीडिया की निष्पक्षता ही उसकी विश्वसनीयता की पूंजी होती है. वह दबाव के बावजूद अपना अस्तित्व बचाने का प्रयास तो करेगा ही. वरना उसके पाठकों या दर्शकों की संख्या कैसे बढ़ेगी? दरअसल यह पाठक संख्या या टीआरपी ही असली ताकत है, जो विज्ञापनों के रूप में उसे आर्थिक रूप से मजबूत करती है. आजकल सरकारें विज्ञापनों के दबाव में बहुत हद तक बाजार की तरह मीडिया को नियंत्रित करती हैं. इलेक्ट्रॉनिक की तुलना में प्रिंट मीडिया ने उसका अधिक निडरता से मुकाबला किया है, जिस कारण आज भी उसकी अधिक विश्वसनीयता बची हुई है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अधिक देर तक दर्शकों को बांधे रखने के लिए बहुत से ऐसे शो करने पड़ते हैं, जिनसे कुछ हद तक प्रिंट बचा हुआ है.
जिस तरह बड़े विज्ञापन दाताओं के परोक्ष दबाव में मीडिया रहती है, उसी प्रकार टीवी चैनल भी हैं. कुछ टीवी चैनल कुछ विशेष राज्यों के सरकारी विज्ञापन दिन रात दिखाते हैं और उन राज्यों को उपकृत करने या अधिक कवरेज देने से गुरेज नहीं करते, जबकि किसी पार्टी या विशेष विचारधारा के लोगों को कई बार समय समाप्त हो रहा है या ब्रेक का टाइम हो गया जैसे बहानों से कम महत्व दिया जाता है. यह आरोप लगाने वाले लोग भी अपनी पसंद के चैनल में यही करते रहे हैं और सोशल मीडिया पर इन्हें लताड़ा भी गया. देश की गंभीर समस्याओं और जनता के दुःख दर्द से परे इन टीवी बहसों के विषय अक्सर बहुत ही सतही या पीआर एजेंसी के तैयार किए हुए किसी पार्टी के नेता द्वारा जानबूझकर उछाले हुए होते हैं. किसी धर्म किसी विवादास्पद बयान पर हफ्तों तक चर्चा होती और इन बहसों में पार्टियों के प्रवक्ता मुद्दे पर पूछे गये सवालों के जवाब न देकर अपनी विरोधी पार्टी के पुराने मुद्दे उठाते हैं या अपनी पार्टी का गुणगान करते हैं. इन बहसों में कई बार मारपीट तक की नौबत आ गई थी. धर्म पर टिप्पणी को लेकर एक बड़े अंग्रेजी चैनल में हुई बहस में विवाद इतना बढ़ा या बढ़ाया गया कि कई देश इसमें शामिल हो गए. सोशल मीडिया को खाद पानी इससे मिलता है और जाति धर्म की भावना उभार कर राजनीति करने वाली पार्टियों को ऐसे मुद्दों की तलाश रहती है. सभी पार्टियां इसमें कूद पड़ती हैं, क्योंकि उससे गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई से जुड़े मुद्दे दब जाते हैं.
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर पीआर एजेंसियां इन्हें तैयार करती हैं और भोली भाली जनता फिल्मों में विलेन की पिटाई की तरह इन नाटकों को देखकर खुश होती है. उन्हें लगता है कि उनकी मनपसंद पार्टी के नेता ने विरोधी को धोया. कई बार सोशल मीडिया पर लाखों व्यूज इस बात को मिलते हैं कि फ़लां एंकर ने उस नेता को कैसे धोया! इन बहसों, टॉक शो या इंटरव्यू में कई बार कथित रियलिटी शो की तरह मुद्दे तय रहते हैं. सफल एंकर उसे माना जाता है, जो आकर्षक हो और उसे ऐसे संचालित करे कि वह दिलचस्प भी हो और फिल्मों के जोरदार डायलॉग की तरह सनसनीख़ेज़ हो. सनसनी की तलाश में लोग, ऐसे शो में टूट पड़ते हैं और टीआरपी में उछाल आ जाता है, जबकि आकाशवाणी, दूरदर्शन या गंभीर विषयों पर बहस कराने वाले टीवी चैनल अपेक्षाकृत कम देखे जाते हैं. इन एंकर पर सवाल उठाने वाले लोगों में वे भी शामिल हैं, जिन्होंने 2011 में पीएम मनमोहन सिंह का चुने हुए संपादकों का वह इंटरव्यू देखा होगा, जब एक टीवी चैनल की मालकिन और संपादक ने सवाल पूछा था कि आपका पसंदीदा क्रिकेट खिलाड़ी कौन है? एंकर तो हमारे समाज का वह पैरामीटर है, जिसे हमने जैसा गढ़ा है, तय किया है वैसा दिख रहा है.
वैसे एंकर या रिपोर्टर किसी भी माध्यम का हो, चूंकि वह सामने रहता है तो लोग उसे ही उस संस्थान का प्रतिनिधि मान लेते हैं और उससे अपेक्षाएं भी बहुत रहती हैं. बहुधा सरकारों या व्यवस्था से पीड़ित या निराश लोग मीडिया के पास आते हैं और यह मान कर चलते हैं कि उनकी लेखनी या स्वर से उनकी आवाज बुलंद होगी और वहां तक पहुंचेगी जहां से उनकी समस्याओं का समाधान होना है. अधिकांश मामलों में ऐसा होता भी है पहले ने न किया तो किसी न किसी ने जरूर उसके दर्द को साझा किया होता है. कई बार न्यायालय तक बातें मीडिया के माध्यम से ही पहुंचती हैं. हालांकि इसके कई अपवाद भी हैं नीरा राडिया कांड में कई बड़े नाम आए जिनसे साख गिरी पर इसे अपवाद ही माना जाना चाहिए. दूसरी तरफ अति उत्साह में एंकर खुद वकील खुद जज बनाने लगता है और न्यायिक प्रकिया की प्रतीक्षा लिए बिना एक तरह से फैसला सुनाकर किसी को भी दोषी बताने लगता है. मीडिया ट्रायल और खबर पालिका जैसे शब्दों का उदय इसी कारण हुआ भी. अनेकों बार मीडिया ट्रायल में दोषी बताया जा रहा व्यक्ति निर्दोष साबित हुआ भी.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.