Faisal Anurag
केंद्र सरकार से दिल्ली हाईकोर्टः आप शुतुरमुर्ग की तरह छुप जा सकते हैं, लेकिन हम नहीं.
यूपी सरकार से इलाहाबाद हाई कोर्टः ”आक्सीजन की कमी से होने वाली मरीजों की मौत किसी जनसंहार से कम नहीं.”
गुजरात सरकार से गुजरात हाई कोर्टः “हम राज्य सरकार और निगम के रवैये से बहुत व्यथित हैं. इस न्यायालय द्वारा पारित आदेशों की पूरी तरह से अनदेखी की जा रही है. पिछले तीन आदेशों में, हम रियल टाइम अपडेट के मुद्दे का उल्लेख कर रहे हैं, लेकिन आज तक राज्य या निगम द्वारा कुछ भी नहीं किया गया है.”
बिहार सरकार से पटना हाईकोर्टः ”सरकार महामारी से निपटने में अक्षम साबित हो रही है. पूरी व्यवस्था ढ़ेर हो चुकी है. सरकार के पास डॉक्टर, वैज्ञानिक, अधिकारियों की कोई सलाहकार समिति तक नहीं है. जो अपने अनुभवी विचार इस महामारी से निपटने के लिए दे सके.”
कर्नाटक सरकार से कनार्टक हाईकोर्टः ”क्या आप चाहतें हैं कि लोग मर जाएं. आप बताइए कब तक आप आक्सीजन की कमी को पूरा करने में सक्षम होंगे.’’
झारखंड सरकार से रांची हाईकोर्टः झारखंड एक स्वास्थ्य आपातकाल की ओर बढ़ रहा है. सीटी स्कैन मशीन की अनुपलब्धता गंभीर चिंता का विषय है. अस्पतालों में बिस्तर और ऑक्सीजन आधारित बिस्तर की अनुपलब्धता के कारण स्थिति दयनीय है. मरीज घर में आइसोलेशन (अलग-थलग) में रहने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि दवाओं की सप्लाई न होने की वजह से उन्हें उन दवाओं की उपलब्धता नहीं है.
महाराष्ट्र सरकार से बॉम्बे हाईकोर्टः ऑक्सीजन की आपूर्ति के संदर्भ में एक जनहित याचिका को विचार के लिए स्वीकार कर लिया है. बांबे हाईकोर्ट आक्सीजन आपूर्ति के संदर्भ में 10 मई के बाद सुनवायी करेगी. इसके पहले बॉम्बे हाईकोट लोगों की जिंदगियों को ले कर अपनी चिंता को सार्वजनिक किया है.
मीडिया के एक हिस्से ने इन टिप्पणियों को स्थान तो दिया है लेकिन इसे बहस का मुद्दा नहीं बनाया है.
मीडिया के एक हिस्से ने इन टिप्पणियों को स्थान तो दिया है लेकिन इसे बहस का मुद्दा नहीं बनाया है.
टिप्पण्यिां बेहद सख्त हैं. शायद अमेरिका या यूरोप की कोई अदालत सरकारों पर ऐसी टिप्पणी करता तो वहां के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का पद पर बने रहना संभव नहीं होता. लेकिन ये टिप्पण्णियां उन सरकारों के लिए की गयीं हैं, जो भारत में हैं. एक केंद्र में और दूसरी देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में. यहां तो जार्डन जैसे देश का उदाहरण भी कोई मायने नहीं रखता, जहां के स्वास्थ्य मंत्री को अभी कुछ ही दिन पहले एक अस्पताल में छह मरीजों की मौत होने के कारण बर्खास्त कर दिया गया.
न तो केंद्र के स्वास्थ्य मंत्री ओर न ही उत्तर प्रदेश या किसी दूसरे प्रदेश के मुख्यमंत्री या स्वास्थ्य मंत्री से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे इन टिप्पण्णयों से कम से कम शर्मसार ही हों लें. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री का बयान तो याद ही होगा जो पांच दिनों पहले का है, जिसमें उन्होंने कहा है कि न तो आक्सीजन की कमी है और न ही दवा की.
दुनिया के जिन देशों ने आक्सीजन भेजा है, उनके वितरण में पारदर्शिता क्यों नहीं बरती जा रही है. केंद्र सरकार के कुछ अस्पतालों को जरूर आक्सीजन सिलेंडर मुहैया करा दिए गए हैं. लेकिन शेष का क्या हाल होगा. जिन्हें घर में रह कर ही इलाज कराने का सुझाव डाक्टरों ने दिया है, उन्हें जरूरी होने पर कौन आक्सीजन देगा.
दरअसल जो विदेशी मदद आ रही है, उस के वितरण में अब तक पारदर्शिता नहीं दिख रही है. देर सबेर अदालतों को इसे भी अपने संज्ञान में लेना ही होगा. राज्यों के अस्पतालों में यदि संकट है, तो उसे मीडिया की चर्चा से बाहर कर झुठलाया नहीं जा सकता है. पिछले सात दिनों ने मृतकों की संख्या साढ़े तीन हजार से ज्यादा है. इन में वे मौते शामिल नहीं हैं जो घरों में हो जा रही हैं.
4 मई को दिल्ली हाईकोर्ट ने तो बेहद खड़ा लहजा अपनाते हुए केंद्र सरकार को कारण बताओ नोटिस जारी किया. पूछा कि दिल्ली को पर्याप्त ऑक्सीजन सप्लाई करने के कोर्ट के आदेश का पालन नहीं करने के लिए उनके ख़िलाफ़ अदालत की अवमानना का मामला क्यों नहीं दर्ज किया जाए.
जब देश की अदालतें इतनी बेचैनी भरी बातें कह रही हैं, तब भी सरकारों की वह सक्रियता लोगों को महसूस क्यों नहीं हो रही है. जिससे वे अपने प्रियजनों की जिंदगियों के लिए आश्वस्त हो सकें. बिहार में तो पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा ही तब की गयी जब ऐसा करने को हाईकोर्ट ने कहा.
जो जिंदगियां मौत से लड़ रहीं हैं, उन्हें बचाने के लिए सरकार की व्यवस्था कब तक कारगर होगी. यह सवाल किसी को भी परेशान कर सकता है. केवल बिहार में ही कोरोना से 94 चिकित्सकों की मौत हो चुकी है. इससे जाहिर होता है कि राज्यों के पास अपने फ्रंटलाईन वरियर की सुरक्षा के भी पर्याप्त साधन नही है.
कहा जा सकता है कि इस बार लहर इतनी तेज गती से आयी है कि संभलने में देर हुई. लेकिन यह तो एक बहाना भर ही होगा. विशेषज्ञों की चेतावनियों पर सक्रिय होने के बजाय एक राज्य के चुनाव जीतने के लिए केंद्र सरकार मुस्तैद रही.