Deepak Ambastha
झारखंड में आदिवासियों को बैंक लोन अब तक तो दिवास्वप्न से अधिक नहीं है. अविभाजित बिहार के जमाने की बात करें या फिर झारखंड गठन के बाद की परिस्थितियों में इस मामले में कहीं कोई परिवर्तन नहीं है. आदिवासियों को बैंक ऋण मामले पर एक बैठक आयोजित कर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने फिर से इस मामले को चर्चा में ला दिया है,बैठक के दौरान मुख्यमंत्री ने बैंकों से आग्रह किया है कि वे आदिवासियों को ऋण देने के लिए कोई रास्ता निकालें. यह कोई नयी बात नहीं है वर्ष 2000 में झारखंड गठन के बाद से बनने वाले मुख्यमंत्री समय-समय पर यह मामला उठाते रहे हैं, लेकिन हाल अब तक यही है कि ना नौ मन तेल हुआ और ना राधा नाच सकी. झारखंड गठन के 20 साल बाद भी नौ मन तेल जमा करने की कवायद चल रही है.
यह सर्वविदित है कि बैंक ऋण के कुछ कायदे कानून होते हैं उनसे हट कर बैंक ऋण नहीं दे सकते क्योंकि यह वित्तीय मामला है तो वैसे भी नियम कानून और निश्चित गारंटी के बिना बैंक आदिवासी तो क्या किसी को ऋण नहीं दे सकते हैं. ऋण देने के पहले यह देखना होता है कि ऋण लेने वाला यदि ऋण वापस नहीं कर सका तो बैंक का पैसा डूब ना जाए, ऐसे में बैंक अपना पैसा वापस कैसे हासिल करें इसके लिए कॉलेटरल सिक्योरिटी की मांग करते हैं ताकि ऐसी परिस्थिति में कॉलेटरल सिक्योरिटी के माध्यम से बैंक अपना पैसा वापस ले सके. झारखंड में आदिवासियों की समस्या है कि उनके पास ऋण के एवज में कॉलेटरल सिक्योरिटी के रूप में देने के लिए कुछ नहीं है सिवाय उनकी अपनी जमीन के. बैठक के दौरान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने यह कहा भी है कि आदिवासियों के पास सिर्फ जमीन है यह जानना अच्छा रहेगा कि बैंक जमीन के एवज में भी ऋण उपलब्ध कराते हैं. परंतु जब मामला सीएनटी (छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट) और एसपीटी (संथाल परगना टेनेंसी एक्ट) का हो तो बैंकों के पास ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि वह सीएनटी, एसपीटी की जमीन पर किसी आदिवासी को ऋण दे सकें, ऋण देने में सीएनटी और एसपीटी के प्रावधान बाधक हैं.
मुख्यमंत्री का कहना है कि बैंक आदिवासी जमीन पर किसी निर्माण, जैसे घर या कुछ और को कॉलेटरल मान कर उन्हें ऋण के प्रावधान पर विचार करें, मुख्यमंत्री का प्रस्ताव तब तक काल्पनिक ही है जब तक वह सीएनटी, एसपीटी एक्ट में ढील के लिए पहल ना करें. ऐसे प्रावधान का प्रारूप तैयार न करें, इसे अनुमोदित कराने के लिए केंद्र सरकार, राज्यपाल और राष्ट्रपति को विश्वास में ना लें,पर क्या झारखंड में आदिवासी हितों की बात करने वाली किसी सरकार के लिए यह कर पाना संभव है ? जवाब नहीं में ही आना है, तब ऐसी स्थिति में आदिवासियों को बैंक ऋण आकाश कुसुम ही है.
एक रास्ता है कि सरकार आदिवासियों के बैंक लोन की गारंटर बने, ऋण लेने वाला यदि ऋण वापस नहीं कर पाता है तो ऐसी स्थिति में सरकार अपने खजाने से बैंकों को ब्याज समेत ऋण वापस करे, पर इसके लिए क्या कोई मुख्यमंत्री या किसी पार्टी की सरकार तैयार होगी,?
आदिवासियों को बैंक लोन कैसे मिले इसके लिए राज्य सरकार मंथन कर रही है. ऐसी जानकारी सोमवार को बैंक अधिकारियों के साथ मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की बैठक के बाद सामने आई है, लेकिन सवाल यह है कि क्या देश केबैंकिंग कानून बदल दिए जाएंगे, क्या सरकार आदिवासियों की गारंटर बनेगी या फिर यह की जो आदिवासियों के साथआदिकाल से होता रहा है वही चलता रहेगा ? आदिवासियों के हिस्से में सिर्फ आश्वासन, भरोसा ही रहेगा बैंक ऋण नहीं ?