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कॉरपोरेट परस्त निजीकरण के खिलाफ किसानों के बाद बैंकक​र्मियों की हड़ताल

Faisal Anurag कॉरपोरेट परस्त कृषि कानूनों पर पीछे हटने के लिए मजबूर होने के बावजूद मोदी सरकार एक अन्य प्रमुख क्षेत्र में राष्ट्रीयकरण को उलटने पर अमादा है. वह क्षेत्र है- बैंकिंग. बैंकों के राष्ट्रीकरण के ऐतिहासिक कदम के पांच दशक बाद सरकार इस बात के लिए व्यग्र है कि सार्वजनिक क्षेत्र के चुनिंदा बैंकों में खुले निजीकरण के अलावा वह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी को 51 प्रतिशत से घटा कर 26 प्रतिशत करना चाहती है. सरकार इस बात को जानती है कि इन पांच दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की छवि सुरक्षित और स्थिर बैंकों की बन गयी है जबकि निजी बैंकों के बारे में यह आम धारणा है कि वे असुरक्षित हैं. इसलिए निजीकरण शुरू करने से पहले सरकार ने “जमाकर्ता प्रथम” का राग छेड़ा है, जिसमें जमाकर्ताओं से वायदा किया जा रहा है कि बैंकों के डूबने की दशा में, नब्बे दिनों के भीतर, उन्हें पांच लाख रुपए तक वापस मिलेंगे. दो दिनों की बैंक हड़ताल इसी निजीकरण के खिलाफ है. बैंक यूनियनों के नेताओं ने बैंको को निजी हाथों में देने को राष्ट्र के लिए विनाशकारी बताया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में केंद्रीय सता संभालते ही एलान किया था कि व्यापार करना सरकार का काम नहीं हैं. इसके बाद से ही विनिवेश की प्रक्रिया को तेज करने के लिए कानूनी प्रावधानों को बदलने का प्रयास किया जाने लगा. सबसे बड़ा पहला प्रयास भूमि अधिकार कानून को बदलने के लिए किया गया, लेकिन देश भर और संसद में भारी विरोध के कारण राज्यसभा में इसे पेश करने का साहस नहीं जुटाया जा सका और विधेयक को स्वत: ही मरने के लिए छोड़ दिया गया. इसी दौरान राज्यों से कहा गया कि वे राज्य स्तर पर भूमि कानून बना कर कंपनियों के लिए जमीन खरीदने की प्रक्रिया को सुगम करें. लेकिन अपने दूसरे कार्यकाल में तो नरेंद्र मोदी की सरकार ने बाजब्ता सार्वजनिक क्षेत्रों को एक एक कर विनिवेश का हिस्सा बना रहे हैं. सरकार ने 2021-22 में विनिवेश से 1.75 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है. इसके साथ ही भारत पेट्रोलियम कारपोरेशन, एयर इंडिया, शिपिंग कॉरपारेशन , कंटेनर कॉरपारेशन, निलांचल इस्पात निगम सहित दर्जनों सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों को बेचने का एलान हुआ. हवाई अड्डों और रेल में भी विभिन्न कंपनियों को विनेविशीकरण की बात की गयी. अनेक बड़े हवाई अड्डे अडाणी समूह को दिए जा चुके हैं और एयर इंडिया भी टाटा को दिया गया है. सरकार आडीबीआइ बैंक को बेचने की रणनीति को अंतिम रूप देने में लगी हुयी है. केंद्र ने पहले तो बैंकों के विलय को तेज कर आठ बैंक बनाए फिर अब चार बैंकों को इसी साल बेचने की बात कर रही है. बैंकों के नेताओं के अनुसार बैंकों में जमा धनराशि की मात्रा बैंक राष्ट्रीकरण के पांच दशकों में निरंतर बढ़ी है और पिछले कुछ वर्षों में तो काफी तेजी से बढ़ी है. पिछले एक दशक में बैंकों में जमा धनराशि लगभग तीन गुना बढ़ी है. यह फरवरी 2011 में 50 ट्रिलियन रुपये से बढ़ कर सितंबर 2016 में 100 ट्रिलियन रुपये हो गयी और मार्च 2021 के अंत तक यह धनराशि 150 ट्रिलियन रुपये थी. निजी बैंकों के निरंतर प्रचार-प्रसार और उन्हें प्रोत्साहित किए जाने के बावजूद अभी भी भारत की कुल बचत का दो तिहाई हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में जमा है. नोटबंदी का काले धन पर तो कोई खास असर नहीं पड़ा लेकिन निश्चित ही इसने और अधिक लोगों को बैंकिंग की ओर बढ़ने के लिए विवश किया है और बढ़ते डिजिटल लेनदेन ने भी बीते कुछ वर्षों में बैंकिंग के क्षेत्र की बढ़त में योगदान दिया है. बैंकों के निजीकरण का सबसे पहला आशय है सार्वजनिक बचत के जरिये बने विशाल वित्तीय संसाधनों पर निजी कंपनियों का प्रत्यक्ष नियंत्रण करवाना. कॉरपारेट के हित साधने का असर यह हुआ है कि 11,68,095 करोड़ रुपये अर्थात लगभग 11.7 ट्रिलियन के न चुकाए गए ऋण यानी फंसे हुए कर्ज (बैड लोन) को पिछले दस वर्षों में बट्टे खाते में डाल दिया गया, जिसमें से 10.72 ट्रिलियन तो 2014-15 से अब तक यानी मोदी काल में ही माफ किया गया. तकनीकी तौर पर तो बट्टे खाते में डाला गया ऋण वसूल किया जा सकता है, पर हकीकत में ऐसी वसूली की दर 15 प्रतिशत से अधिक नहीं है. इस बीच समय-समय पर बट्टे खाते में डाले जाने के बावजूद एनपीए का बढ़ना जारी है. तकरीबन 12 मिलियन के एनपीए को बीते एक दशक में बट्टे खाते में डाले जाने के बावजूद एनपीए का मूल्य 6 ट्रिलियन रुपये से अधिक है. सीपीआइएमएल ने कहा है ```` आम लोग सिर्फ अपनी जमा पूंजी की सुरक्षा के लिए ही चिंतित नहीं हैं. वे बैंकिंग तंत्र की समग्र दिशा और प्रदर्शन को लेकर भी चिंतित हैं. बैंकिंग को जनता तक ले जाने के मोदी के जुमलों के बावजूद बैंकिंग आम उपभोक्ताओं के लिए मंहगा होता जा रहा है, जिन्हें अपने खुद के जमा धन के लिए भी उपयोग शुल्क (यूजर चार्ज) चुकाना पड़ रहा है. हम देखते हैं कि कैसे जान बूझ कर ऋण न चुकाने वाले बड़े कॉरपोरेट आराम से बच निकलते हैं जबकि किसान, माइक्रोफ़ाइनेंस से ऋण लेने वाले और अन्य छोटे ऋण लेने वाले जैसे छात्र, रोजगार इच्छुक और व्यापारियों को अपने मामूली कर्ज को समय पर न चुकाने के लिए अंतहीन उत्पीड़न से गुजरना पड़ता है. यह यंत्रणा इतनी अधिक होती है कि कई बार कर्ज लेने वाला आत्महत्या करने को तक विवश हो जाता है. गिरती ब्याज दरों के चलते, बैंकों से अपनी जमा रकम में निरंतर वृद्धि की आस लगाए,पेंशनरों और बैंक पर निर्भर माध्यम वर्गीय उपभोक्ताओं को भारी मुश्किल दौर से गुजरना पड़ रहा है.```` निजीकरण या विनिवेश को अनेक बड़े आर्थिक जानकार आज की आर्थिक चुनौतियों से निपटने की दिशा में एक भोथरा कदम बताते रहे हैं. बावजूद भारत की सरकार व्यापार से बचने के नाम पर सार्वजनिक संपत्तियों को निजी हाथों में दे रही हैं. बैंक हड़ताल इसी का प्रतिरोध है और बजट सत्र के दौरान देश भर के 10 बड़े यूनियन मिल कर श्रमिकों के बड़े हड़ताल का एलान कर चुके हैं. [wpse_comments_template]

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