जगदीप धनकड़ का विवाद से गहरा रिश्ता है. बंगाल के राज्यपाल बनने के बाद से ही वे किसी न किसी विवाद के केंद्र बने रहे हैं. ऐसा जान पड़ता है कि विधानसभा चुनाव भले ही ममता बनर्जी ने भारी बहुमत से जीत लिया हो, उन्हें पद से हटाने की केंद्र सरकार और राज्यपाल धनकड़ की मुहिम जारी है. धनकड़ उन राज्यपालों की श्रेणी में हैं. जिन्होंने संवैधानिक पद, केंद्र और प्रधानमंत्री के प्रति अटूट निष्ठा के फर्क को मिटा दिया है. वैसे भी भारत में कई राज्यपालों ने केंद्र के इशारे पर निर्वाचित राज्य सरकारों को पदच्यूत करने का रिकार्ड बनाया हैं. रोमेश भंडारी और बुटा सिंह को भला कौन भूल सकता हैं. रोमेश भंडारी ने तो 24 घंटे में ही मुख्यमंत्री का राजनीति ड्रामा को अंजाम दिया था. महाराष्ट्र के राज्यपाल भरत सिंह कोश्यिरी को भी कोई नहीं भूल सका है. जिन्होंने सुबह होने के पहले ही देवेंद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री पद का शपथ दिला दिया था. धारा 356 के तहत राष्ट्रपतिशासन के कई उदाहरण मौजूद हैं जो केवल और केवल केंद्र सरकारों के इशारे पर लगाए गए थे. पंचायत चुनाव के बाद तो उत्तर प्रदेश में भी वैसी ही हिंसा हुई जैसी बंगाल में. लेकिन बंगाल केंद्रीय टीम भेजी गयी, राज्यपाल वोट देने की कीमत चुकाने की मतदाताओं की मजबूरी और लोकतंत्र के भविष्य की बात कर रहे हैं. लेकिन उत्तर पद्रेश की राजनीतिक हिंसा को तो चर्चा का विषय ही नहीं बनने दिया गया.
बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनकड़ ने अब घोषणा की है कि वे उन इलाकों का दौरा करेंगे. जहां चुनाव के बाद हिंसा हुई है. इसमें कोई विवाद भी नहीं होना चाहिए. लेकिन अब उनका आरोप है कि ममता बनर्जी की सरकार उनके दौरे का मुकम्मल इंतजाम नहीं कर रही है. तृणमूल को तो प्रतिक्रिया देनी ही थी. उसने राज्यपाल पर राजनीति करने का आरोप लगा दिया है और कहा है कि ममता बनर्जी ने 5 मई को शपथ लिया है. उसके पहले चुनाव काल में राज्य का शासन और विधि व्यवस्था चुनाव आयोग की देखरेख में था.
बंगाल में ऐसा दिख रहा है कि भले ही चुनाव खत्म हो गए हैं. लेकिन चुनाव की पूर्वपीठिका तैयार करने का खेल शुरू कर दिया गया है. याद कीजिए दिसंबर के 2020 के अंतिम दिनों को जब अंग्रेज शासक लार्ड कर्जन के टेबल पर बैठ कर 1905 के बंगाल विभाजन के फैसले की सराहना कर दिया था. बंगाल विभाजन के बाद रवींद्रनाथ टैगोर सहित बंगाल के तमाम नागरिक उस विभाजन के फैसल के खिलाफ सड़क पा आ गए. बाद में उस फैसले को बदलना पड़ा था. राज्यपाल के ट्वीट पर भी बंगाल में जबरदश्त प्रतिक्रिया हुई थी. और उन्हें उसे विरोध के दबाव में डिलीट करना पड़ा था. यहीं नहीं 5 अक्तूबर को राज्यपाल ने एक भाजपा कार्यकर्ता की हत्या के मामले में जिस तरह ममता बनर्जी की सरकार के खिलाफ स्वतंत्र जांच की मांग की थी. उस ने भी भारी विवाद पैदा किया था.
बंगाल की यह एक त्रासदी बन गयी है कि राज्यपाल कार्यालय और मुख्यमंत्री कार्यालय के बीच गहरे तनाव का रिश्ता है. इसने इस सवाल को एक बार फिर से खड़ा कर दिया है कि आखिर राज्यों की स्वायत्तता क्या है. एक चुनी हुई राज्य सरकार के लिए राज्यपालों की दखल का क्या असर हो रहा है. अभी कुछ ही दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह राज्यपालों के साथ बैठक किया. उससे भी राज्यों की चुनी गयी सरकारों के संघात्मक अधिकार को ले कर अनेक सवाल खड़े हुए. दिल्ली को राज्य दर्जा दिए जाने के बाद से आमतौर पर चुनी गयी सरकार की भूमिका सर्वोपरि रही है. आम आदमी पार्टी की 2015 में जीत के बाद से दिल्ली उपराज्यपाल बनाम मुख्यमंत्री के अधिकार के विवादों में उलझा हुआ था. सुप्रीम कोर्ट ने चुनी गयी सरकार के अधिकार को स्वीकार भी किया. लेकिन अब एक नया कानून बना कर चुनी गयी सरकार को एक अधिकारीविहीन नगरनिगम में बदल दिया गया है. राज्य और केंद्र के विवाद के संदर्भ में इस कानूने ने चिंता पैदा कर दिया है. इस कानून के बाद यह सवाल भी पूछा गया कि क्या उन राज्यों में जहां भाजपा बारबार चुनाव हार जाती है वहां के निजाम को पूरी तरह राज्यपाल को अधिक अधिकार संपन्न बना कर केंद्र के हवाले करने की कोई रणनीति तो भविष्य में देखने को मिलेगा ? हालांकि इसकी संभावना कम है बावजूद इस सवाल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. कई संविधानविद तो भारत के संघात्मक ढांचे में किसी भी सुराख को लेकर चिंता प्रकट करते रहे हैं.