Lagatar Desk : देश में वर्तमान में लोगों के बीच कई तरह के मतभेद चल रहे हैं. आपसी गलतफहमियां बढ़ रही हैं. झारखंड भी इससे अछूता नहीं है. राज्य के विकास में किसकी कैसी भागीदारी हो और लोग आपसी सौहार्द्र बनाए रखें. जिससे समाज का सर्वांगीन विकास हो सके. इसी मुद्दे पर lagatar.in की न्यूज एडिटर श्वेता कुमारी ने आर्च बिशप फेलिक्स टोप्पो से बातचीत की.
सवाल : जल, जंगल और जमीन के सवाल हमेशा से झारखंड में मुखर रहे हैं. आप इसे कैसे देखते हैं?
जवाब : इसमें दो पहलू हैं. यहां के जो आदिम वाशिंदें हैं, उनके लिए जल, जंगल और जमीन बहुत ही अहम हैं. उनका जीवन इससे इस कदर जुड़ा हुआ है कि उन्हें अलग करना मुश्किल है. उनकी जीविका और संस्कृति इससे जुड़ी हुई है. यहां तक कि उनका धर्म और विश्वास भी इससे ही जुड़ा हुआ है. ये तो पहला पहलू हो गया.
इससे अलग कई लोग झारखंड में बाहर से आकर भी बसे हैं. बाहरी लोगों की संख्या के कारण यहां के आदिवासी अल्पसंख्यक हो गए है. जो लोग बाहर से आकर बसे हैं, उन्हें यहां के जल, जंगल और जमीन से कोई मतलब नहीं है. वे लोग सिर्फ अपनी संपन्नता चाहते हैं. एक तरह से कह सकते हैं कि जल, जंगल और जमीन के मामले पर जितने गंभीर प्रयास होने चाहिए थे, नहीं हो पा रहे हैं. सरकार भी उद्योगों को लगाने के लिए जमीन चाहती है. झारखंड में बहुत से खदान हैं जिनमें सोना और यूरेनियम पाया जाता है. इनसे लोग फायदा चाहते हैं. इससे एक तरह से आदिवासी विस्थापित हो रहे हैं. लोगों को समझना चाहिए कि यदि हमें विकास चाहिए तो ये देखना होगा कि आदिवासियों का शोषण ना हो और उन पर अत्याचार भी न हो. जल, जंगल और जमीन की रक्षा किसी भी तरह से होनी चाहिए. गर्मी के दिनों में जलस्रोत सूख जाते हैं और पानी की कमी हो जाती है. ऐसे में आदिवासी भाई-बहन वनों के उत्पाद का इस्तेमाल करते हैं. अगर हम वनों की रक्षा नहीं करेंगे तो वनों का विकास कैसे हो सकेगा? फिर तो ये तबाह हो जाएगा.
सवाल : झारखंड को बने 22 साल होने वाले हैं. विकास को लेकर सरकार की अब तक की बनी नीतियों पर आपकी राय क्या है?
जवाब : नीतियां तो कई बनीं लेकिन ये कुछ वर्ग के लोगों के लिए ही फायदेमंद रहीं. शेष के लिए हानिकारक ही रहीं. झारखंड में कई बड़े उद्योगपतियों को लाया गया. उन्हें जमीन और बड़े जलाशय और बिजली के पावर ग्रिड चाहिए. इसका ऊंचे तबके के लोगों को तो फायदा मिलेगा, लेकिन गरीबों को हानि हो रही है क्योंकि गरीबों की जमीन चली जाती है. वे विस्थापित हो जाते हैं. दूसरी ओर जो शिक्षा नीति है, उससे भी हानि हो रही है. कोविड की वजह से भी हानि हुई है. पहले जो एक स्थिर एजुकेशन सिस्टम था, वह अभी के दौर में स्थिर नहीं है. अभी तो नई एजुकेशन पॉलिसी आ रही है तो लोग संशय में हैं कि पता नहीं क्या होगा. देहात के शिक्षकों के सामने बड़ी समस्या है. कई एप्रूव्ड तो कई अनएप्रूव्ड हैं. एप्रूव्ड को तो अच्छी तनख्वाह मिल जाती है, लेकिन जो एप्रूव्ड नहीं हैं उन्हें स्कूल की ओर से ही कुछ दिया जाता है. दोनों में बहुत अंतर हो जाता है. इस कारण शिक्षकों में हताशा है.
सवाल : चर्च के काम माइल स्टोन की तरह झारखंड में हैं. बदलते परिवेश को देखते हुए यहां की शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में और किस तरह के बदलाव होने चाहिए?
जवाब : चर्च की शुरूआत 19वीं शताब्दी में हुई. 19वीं शताब्दी में जो प्रचारक थे, उन्होंने सभी तरह के स्कूल खोले, डिस्पेंसरी भी खोल दी. इससे शिक्षा का तो काम हुआ ही, स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी काम हुआ. सामाजिक सेवा का काम भी हुआ. तीनों कार्य साथ-साथ चलते रहे. अभी कई शिक्षण संस्थान हो गए हैं. उस दौर में मांडर में एक हॉस्पिटल था और वहां दूर से लोग इलाज कराने के लिए आते थे. उसके बाद रांची और आसपास कई बड़े अस्पताल हो गये तो मांडर धीरे-धीरे कमजोर हो गया. हालांकि अब फिर से उसका कायाकल्प हुआ है. लोहरदगा में चर्च के हॉस्पिटल में पेशेंट आते थे. अब पता चल रहा है कि वहां 44 छोटे-बड़े अस्पताल चल रहे हैं. ऐसे में चर्च जो हेल्थ केयर करता था, वह सेवा कमजोर हुई है. सरकारी नियम कहता है कि हर डिस्पेंसरी में एक डॉक्टर होना चाहिए.यह संभव नहीं है. इससे चर्च का स्वास्थ्य सेवा का काम बाधित हुआ है. देहात के लोगों को तकलीफ होती है क्योंकि क्लिनिक जाने पर उन्हें बहुत पैसे खर्च करने पड़ते हैं. स्पेशलाइज्ड अस्पतालों में दूर जाना भी इनके लिए संभव नहीं है. हां, शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर कार्य हुए हैं. सभी जानते हैं कि मिशनरी में अच्छे-अच्छे स्कूल हैं और एडमिशन के वक्त बहुत प्रेशर होता है. एडमिशन के लिए बड़े-बड़े मंत्रियों के अलावा दूर दराज से भी लोग फोन करते हैं. मुझ पर भी बहुत प्रेशर होता है. सामाजिक सेवा का काम उतना अच्छा नहीं चल रहा है. पहले विदेशों से काफी पैसे मिल जाते थे. सरकार के नये नियम के तहत हरेक सोशल डेवलपमेंट सेंटर, जो रजिस्टर्ड हैं, उसमें एक सर्टिफिकेट प्राप्त व्यक्ति सोशल साइंस का होना चाहिए जो नहीं हो पा रहा है. सरकार भी सोशल डेवलपमेंट का काम कर रही है.
सवाल : आदिवासी समाज में जिस तरह के अंतर्विरोध हैं, उसे आप कैसे देखते हैं?
जवाब : सबसे पहले तो ये समझना होगा कि ये अतर्विरोध कैसे आ रहा है. पूरे राष्ट्र में विभिन्न जाति धर्म के लोगों का ध्रुवीकरण हो रहा है. इससे आपसी तनाव हो रहा है. यहां आदिवासी, सरना या क्रिश्चियन समाज है. इनके बीच बाहरी तत्व खाई बना रहे हैं. लोग कहते हैं कि क्रिश्चियन आदिवासी नहीं हैं और उन्हें डिलिस्टिंग कर दिया गया है. वहीं सरना लोगों को क्रिश्चियन के खिलाफ भड़काया जाता है. इस कारण से भी अंतर्विरोध है. कई जगहों पर लोग इसे समझ गये हैं.
सवाल : पर्यावरण संरक्षण हमारी परंपरा रही है फिर भी राज्य में ग्लोबल वॉर्मिंग के हालात पैदा हुए हैं. आपकी राय क्या है?
जवाब : वनों की रक्षा होनी चाहिए. गांव के प्रमुख पहले ये देखते थे कि जितनी आवश्यकता होगी, जंगल से लकड़ियां उतनी ही काटी जाएंगी. अभी उल्टा हो रहा है. सरकार की ओर से चलायी जा रही प्रोजेक्ट के लिए कई जंगलों को नष्ट कर दिया गया. अगर जंगल नष्ट होंगे तो ग्लोबल वॉर्मिंग तो होगा ही. ग्लोबल वॉर्मिंग की एक वजह ये भी है कि अभी जंगलों का डीफॉरेस्टेशन हो गया है, जिससे पानी की कमी हो गयी है.
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