Dr. Mayank Murari
झारखंड में एक बार फिर से सरना धर्म कोड को लेकर विभिन्न संगठनों द्वारा आंदोलन शुरू किया गया है. यह कहा जाने लगा है कि 2024 के पहले अगर सरना धर्म कोड लागू नहीं किया गया तो आदिवासी समाज वोट नहीं देगा. ऐसे में केंद्र सरकार को इस भावनात्मक और पहचान के संकट से जुड़े अहम विषय पर ध्यान देना चाहिए. आज आदिवासी समाज की जनसंख्या लगातार कम हो रही है. झारखंड की 26 फीसदी आबादी आदिवासियों की है. इसमें भी 78 फीसदी आबादी ग्रामीण और वनप्रदेशों में निवास करती है. यह कैसी विडंबना है कि आदिवासी विकास के नाम पर झारखंड राज्य को बने 23 साल हो गये, लेकिन अभी तक विकास की मुख्यधारा में आदिवासी समाज ही नहीं है. यह झारखंड में इनकी घटती संख्या से भी पता चलता है.
आजादी के समय 1951 में 36 फीसदी आबादी आदिवासियों की थीं, जिसमें दस फीसदी से ज्यादा की गिरावट आ गयी है. यहां चार प्रमुख आदिवासियों का दबदबा है और वे है- संथाल, उरांव, मुंडा और हो. इन चारों की आबादी आदिवासियों की कुल आबादी का 70 फीसदी है. सरकारी दावों के बावजूद आदिम जनजातियां निरंतर विलुप्ति के कगार पर पहुंच रही हैं. ऐसे में सरना कोड आदिवासी समाज को बचाने की एक कड़ी हो सकती है.
सरना धर्म कोड की मांग के पीछे यहां के समाज का पिछड़ापन एक अहम कारण है. झारखंड में 32 जनजातीय समाज हैं, परंतु विकास का लाभ कुछेक जनजातीय समाज तक ही पहुंच पा रहा है. यह लाभ भी कुछेक लोगों तक ही सीमित रह जाता है. राजनीति हो या आर्थिक या शैक्षणिक, हरेक स्तर पर संसाधन का वितरण या विकास का लाभ दूर-सुदूर के आदिवासी समाज तक नहीं पहुंच पाता है. समस्या इससे बढ़कर भी है. जिन लोगों ने सरना मत को छोड़ दिया, परंपराएं छोड़ दीं और अपनी पहचान को ईसाई और मुसलमान से जोड़ लिया, उन्होंने आदिवासी समाज के हक पर सबसे ज्यादा कब्जा किया है.
गैर सरना मतावलंबी जो मूलतः आदिवासी नहीं रहे हैं, वे लोग यहां के संसाधन पर कब्जा कर रहे हैं, 80 फीसदी अवसरों को ऐसे लोग छीन रहे हैं. यह हमारे संविधान की विडंबना है कि ऐसे गैर सरना लोग कभी अल्पसंख्यक का लाभ लेते हैं, तो कभी एसटी के लाभ में अपने को जोड़ लेते हैं. ये ही लोग आश्चर्यजनक रूप से सबसे ज्यादा संविधान और लोकतंत्र की दुहाई भी देते हैं.
ऐसे में आदिवासी समाज के विकास में अवरोधक शक्तियों की पहचान की जानी चाहिए. झारखंड के विभिन्न जिलों में लव जेहाद, जमीन जेहाद, धर्मांतरण, बहुविवाह के माध्यम से आदिवासी समाज की पहचान और प्रतिभा को कुचला जा रहा है. संथाल के सभी जिलों में लव जेहाद में आदिवासी लड़कियों को फंसाकर उनका मतांतरण कराया जा रहा है. पाकुड़, साहेबगंज, राजमहल के अलावा दक्षिण छोटानागपुर के विभिन्न भागों में जमीन जेहाद का षडयंत्र चल रहा है. बहुविवाह के माध्यम से आदिवासी जमीन पर कब्जा जमाया जा रहा है. इसके अलावा शिक्षा और स्वास्थ्य के माध्यम से मतांतरण का खेल अलग चल रहा है. आदिवासी समाज के भोलेपन का लाभ उठाकर इनके समाज के लोग भी शोषण में सहभागी होते हैं. कई बार लगता है कि सीएनटी और एसएनटी कानून यहां के आदिवासी समाज के विकास में ही बाधक बने हुए हैं.
झारखंड की अनुसूचित जनजातियों में उच्च स्तर का लिंगानुपात होने के बावजूद यहां इस समुदाय में महिला साक्षरता दर अत्यंत निम्न है, जो इस समुदाय के विकास का सर्वाधिक बड़ा कारक है. इसके अलावा बाल विवाह, कुपोषण और आधुनिकीकरण भी इनकी पहचान के संकट से जुड़ा है. आदिवासी समाज के युवा और युवतियों में पश्चिमीकरण का जो अंधाधुंध अनुकरण का लोभ है, वह भी उनको अपनी जमीन से काटता जा रहा है. हालांकि यह बुराई समूचे भारतीय समाज में बढ़ती जा रही है. शिक्षा सभी समस्याओं को मिटाने का एक कारगर माध्यम है, लेकिन अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या साक्षरता दर अपने राज्य झारखंड की औसत साक्षरता दर से भी काफी कम है. इसका अर्थ है शिक्षा और विकास की मुख्यधारा से झारखंड के आदिवासी अभी बहुत दूर हैं.
भारत और झारखंड की सामान्य और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की साक्षरता और लिंग-भेद का तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि दोनों ही स्थानों पर अनुसूचित जनजाति महिलाओं की साक्षरता दर देश में 20 प्रतिशत कम है तथा झारखंड में 10 प्रतिशत कम है, किन्तु लिंग-भेद में झारखंड देश से काफी आगे है. गांवों की अधिकांश अनुसूचित जनजाति महिलाएं निरक्षर हैं. ध्यातव्य है कि झारखंड की अनुसूचित जनजाति की 91 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण है. यही कारण है कि यहां की आदिवासी महिलाओं को प्रलोभन और बहलाकर अपने हितों के लिए उपयोग किया जाता है.
ऐसे में सरना आदिवासियों और उनके नेताओं की मांग जायज है कि आदिवासियों के धर्मांतरण पर पाबंदी लगनी चाहिए. इनका कहना है कि जो आदिवासी ईसाई बन चुके हैं, वे अपनी परंपरा और संस्कृति से दूर हो गए हैं और उन्हें एसटी आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए. आजादी के पहले 1941 तक जनगणना में आदिवासियों का सरना धर्म बिल्कुल अलग धर्म के तौर पर देखा जाता था, लेकिन आजादी के बाद इसे बंद कर दिया गया. जो आदिवासी ईसाई बन गए हैं, उनके जीवन में कई तरह की तब्दीली स्पष्ट रूप से दिखाई देती है. शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका के स्तर पर ये सरना आदिवासियों से आगे हैं. वैसे वर्षों से शोषित रहे इस समाज के लिए परिस्थितियां आज भी कष्टप्रद और समस्याएं बहुत अधिक हैं. ये समस्याएं प्राकृतिक तो होती ही हैं, साथ ही यह मानवजनित भी होती है. विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों की समस्या थोड़ी बहुत अलग हो सकती है, किन्तु बहुत हद तक यह एक समान ही होती है. ऐसे में वैचारिक से ज्यादा आदिवासी समस्या का समाधान नीतियों के कारगर क्रियान्वयन पर निर्भर करता है.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.