भाजपा के सांसदों से प्रसिद्ध संगीतकार टीएम कृष्णा का लिखा एक पत्र अंग्रेजी दैनिक ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ में छपा है. Dear Members of BJP शीर्षक से. पठनीय है. अगर आपने नहीं पढ़ा हो तो जल्दबाज़ी में किया हुआ यह हिन्दी अनुवाद पढ़ सकते हैं.- संपादक
प्रिय भाजपा – सदस्यों
मैं इस देश के एक नागरिक के रूप में आपको यह खत लिख रहा हूं. एक ऐसा नागरिक जिसके सामाजिक-राजनीतिक विचार आपसे अलहदा हैं. आप और मैं ग़ैर-नतीजाखेज़ बहस करते रह सकते हैं. लेकिन अपने-अपने रास्ते जाते हुए हममें यह सामर्थ्य होना चाहिए कि पारस्परिक आदर भाव बना रहे. क्योंकि इंसानियत को हम दोनों के लिए एक साझा उसूल तो होना ही चाहिए. मैं सह-नागरिकता की इस भावना के साथ ही आपको यह खत लिख रहा हूं. यह मानते हुए कि हम सब इस भारत-भूमि को प्यार करते हैं.
देश इस समय एक गहरे संकट में है. हज़ारों लोग रोज़ मर रहे हैं. बहुतेरे तो हमारी निगाहों की परास से भी बाहर हैं और मृतकों में उनकी गिनती तक नहीं हो रही. जो सेहतमंद हैं, उनको बचाए रखने के लिए भी हमें संघर्ष करना पड़ रहा है. यह अभूतपूर्व है और हमें इस अंधेरे में राह को टटोलने की ज़रूरत है.
ग़रज़ कि हमें अपनी ग़लतियों को पहचानना होगा और दायित्वों की उस घोर अवहेलना की ओर इशारा करना होगा. जिसने असंदिग्ध रूप से हमारे हालात को बद से बदतर किया है. इसके लिए कोविड-19 का दौर गुज़रने के बाद के विश्लेषण का इंतज़ार नहीं किया जा सकता. क्योंकि चीज़ों को अविलंब और बिल्कुल अभी दुरुस्त करने की ज़रूरत है. महामारी से लड़ने में यह हमारी ज़िम्मेदारी थी. और है कि ऐसे तरीक़े अपनाएं जो हितकारी और वैज्ञानिक हों. लोगों की ज़िंदगियां दांव पर लगी हैं.
नरेंद्र मोदी सिर्फ़ आपकी पार्टी के नेता नहीं हैं. वे हमारे प्रधानमंत्री हैं. इस संवैधानिक भूमिका की अपनी अर्थवत्ता है. आपको उन्हें पूरे देश के नेता के रूप में देखना होगा. न कि अपनी पार्टी के राजनीतिक विश्वासों के रक्षक के रूप में. बस थोड़ी देर के लिए आप मेरी जगह से सोचिए. इस बात को किनारे कर दीजिए कि मोदी आपकी पार्टी के सबसे ताक़तवर नेता हैं. ऐसा ताक़तवर नेता, जैसा दशकों से आपकी पार्टी को नहीं मिला और जिसने आपकी पार्टी को एक नहीं, दो-दो बार संसद में पूर्ण बहुमत दिलवाया.
अगर मोदी किसी और राजनीतिक दल के होते तो क्या आप उस समय चुप बैठे रहते जब उन्होंने हज़ारों प्रवासी मजदूरों को, महज़ घर लौटने के लिए, भूखे-प्यासे हफ्तों देश के इस कोने से उस कोने तक पैदल चलने के लिए मजबूर किया? क्या आपने प्रधानमंत्री और उसकी सरकार को घोर कुप्रबंधन और अकुशल प्लानिंग के लिए दोषी नहीं ठहराया होता?
क्या आपने उस प्रधानमंत्री से सवाल नहीं किए होते, जिसकी देखरेख में टीकाकरण का कार्यक्रम बीच रास्ते अटक गया है और जनता को चंद निजी कंपनियों की दया पर छोड़ दिया गया ?
क्या आप इस बात से हक्के-बक्के न रह जाते कि राजधानी में ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं है? क्या इस बात से आप चौंकते नहीं कि सुप्रीम कोर्ट को ऑक्सीजन आपूर्ति के लिए केंद्र सरकार को निर्देश देने पड़े?
क्या आपने मांग नहीं की होती कि सरकार कुछ राज्यों से आने वाले कोविड डाटा की विसंगतियों की जांच करे?
क्या आपने न कहा होता कि यह गवर्नेंस की अवैज्ञानिक प्रकृति है. जिसके कारण महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक सलाहों की अनदेखी की गई? और कितनी ग़ज़ब की बात है कि इस पूरी तबाही के बीच मंत्रीगण अपनी छवि बचाने के प्रबंधन में और सोशल मीडिया टिप्पणीकारों को ब्लॉक करने में व्यस्त हैं. और सरकार सेंट्रल विस्टा बनवाने में जुटी हुई है.
राज्यों के चुनाव जिस विवादास्पद तरीक़े से सम्पन्न हुए, उसे भूल जाइए. पर क्या यह सुनकर आपको झटका नहीं लगा था कि जब भारत में संक्रमण की संख्या तेज़ी से शिखर की ओर बढ़ रही थी, तब प्रधानमंत्री अपने भाषण के मौक़े पर इकट्ठा भारी भीड़ का जश्न मना रहे थे?
जब वे ही ऐसा उदाहरण पेश कर रहे थे, तब हम इस देश के नागरिकों को कोविड प्रोटोकॉल का पालन न करने का दोषी कैसे ठहरा सकते हैं?
आपको सचमुच इस तर्क में भरोसा है कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया की दिलचस्पी सिर्फ़ भारत की साख को बिगाड़ने में है, मैं नहीं मान सकता. तस्वीरें, आंकड़े, खबरें-सब सच हैं. चिताओं पर जलते हुए शव असली मानव-देह हैं. लोग हर सांस के लिए संघर्ष कर रहे हैं. मदद की भीख मांग रहे हैं. सरकार से नहीं, दूसरे नागरिकों से.
क्या इसने आपको अंदर से हिला नहीं दिया है? आपने और मैंने इस महामारी में कितने ही दोस्तों को खोया है. और तब भी क्या आप यह नहीं कहना चाहते कि केंद्र सरकार इस सबके लिए ज़िम्मेदार है?
क्या ज़िंदगियों को बचाने के मुक़ाबले अपने नेता की छवि को बचाने में आपकी दिलचस्पी ज़्यादा है? आपकी पार्टी आंतरिक लोकतंत्र की बात बहुत करती है. वह व्यवहार में कहीं नज़र क्यों नहीं आता, खास तौर से इस समय में?
निश्चित रूप से, राज्य सरकारें भी दायित्व की अनदेखी के लिए ज़िम्मेदार हैं. पर कोविड-19 महामारी को संभालने की ज़िम्मेदारी मुख्यतः केंद्र की है. मार्च 2020 में केंद्र सरकार ने आपदा प्रबंधन क़ानून 2005 को लागू किया. तब से जितने महीने गुज़रे हैं, सहकारी संघवाद (को-ऑपरेटिव फेडरलिज़्म) का सिद्धांत कहीं दिखा नहीं.
मोदी सरकार लगातार विरोधात्मक मुद्रा में ही नज़र आती रही है. केंद्र किसी भी राज्य से कहीं ज़्यादा ताक़तवर है और सेतु बनाने की ज़िम्मेदारी उसी पर आयद होती है. पर, हमने एक बार भी प्रधानमंत्री को उस भावना के साथ बात करते नहीं सुना.
उन्होंने बार-बार यह कहा कि वे हर नागरिक की हिफ़ाज़त करेंगे और वे अपने द्वारा उठाए गए हर क़दम की जवाबदेही अपने ऊपर लेंगे. एक निर्धन पृष्ठभूमि से आने के कारण उन्होंने भारत के सबसे निचले सामाजिक पायदान पर स्थित लोगों की कठिन जीवन-स्थितियों को समझने का दावा किया. पर, अब उनकी बातें सुनते हुए लगता है कि कोई हमें बच्चों की तरह बहला रहा है.
‘मन की बात’ में वे पहले से स्वीकृत प्रश्नों के ही उत्तर देते हैं और सिर्फ़ ऐसे साक्षात्कार देते हैं जिनकी पटकथा पहले से लिखी जा चुकी है. आपने एक खुली प्रेस कांफ्रेंस करने के लिए उनसे कभी क्यों नहीं कहा? मोदी को छोड़कर हर विश्व-नेता प्रेस का सामना कर रहा है.
जब कोविड-19 ने हम पर हमला बोला, मोदी सभी पार्टियों को एक साथ बिठाकर निर्णय और काम-काज का बोझ बांट सकते थे. महामारी सदियों में एकाध बार होनेवाली चीज है जिसके लिए कोई पहले से प्लानिंग करके नहीं रख सकता. पर, हम साथ मिलकर इससे लड़ ज़रूर सकते थे. हम, इस देश के नागरिक, यह भूल गए हैं कि हम सांसदों का चुनाव करते हैं. राजनीतिक दलों का नहीं. मोदी वह स्टेट्समैनशिप दिखा सकते थे. जो आप चाहते हैं कि हम उनमें देखें.
मुश्किल सवाल पूछने का सही समय खोजते रहिएगा तो वह कभी नहीं आएगा. आपके मौन व्रत का हर दिन बहुत सारी ज़िंदगियों के खत्म होने का दिन भी होगा. अब हम जानते हैं कि फ़ौरन हस्तक्षेप के बिना, तत्काल प्रभाव से लागू होनेवाली सकारात्मक प्रशासकीय पहल के बिना हम और भी भयावह मंज़र देखने जा रहे हैं.
अगर आप भारत की परवाह करते हैं तो इस समय आप ज़रूर बोलेंगे.
अनुवादः संजीव कुमार ने इस पत्र का अनुवाद किया है.