Satyendra Ranjan
पिछले साल महीनों तक चले लॉकडाउन के बावजूद दुनिया में राजनीतिक हिंसा और राजनीतिक कारणों से हुए दंगों की संख्या में बढ़ोतरी हुई. ये बात अमेरिकी गैर-सरकारी संस्था- द आर्म्ड कॉनफ्लिक्ट लॉकेशन एंड इवेन्ट प्रोजेक्ट (एसीएलईडी) की 2020 के पहले छह महीनों के बारे में आई रिपोर्ट से जाहिर हुई है. इस संस्था के मुताबिक राजनीतिक हिंसा का क्रम 2010 के बाद से तेज हो गया है. एसीएलईडी ने बताया कि 2010 में दुनिया में 2,226 राजनीतिक दंगें हुए.
2020 के पहले छह महीनों में ही ये संख्या पांच हजार पार कर चुकी थी. पिछले एक दशक से ऐसी घटनाओं के बढ़ने का सिलसिला चल रहा है, इसलिए ताजा आंकड़ों से ज्यादा हैरत नहीं हुई है. दरअसल, राजनीति-शास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ये बहस कई वर्षों से चल रही है कि आखिर दुनिया में राजनीतिक हिंसा क्यों बढ़ रही है.
अमेरिका में कैलिफोर्निया स्थित राजनीति-शास्त्री मार्क कुकिस ने एसीएलईडी के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए हाल में एक वेबसाइट पर लिखा कि पारंपरिक समझ के मुताबिक राजनीतिक हिंसा तब बढ़ती है.
जब कोई सरकार इरादन या गैर-इरादतन समाज के किसी समूह को हाशिये पर धकेलने लगती है. हाशिये पर धकेले गए समूह तब अपनी मांग को विरोध प्रदर्शनों या हिंसा या इन दोनों ही माध्यमों से सामने रखते हैं. अहिंसक तरीके से रखी गई मांगों को सुनने में अनिच्छुक सरकारें विरोधियों के खिलाफ हिंसा शुरू कर देती हैं.
उनके प्रदर्शनों पर हमला किया जाता है, और कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया जाता है. कुकिस ने कहा कि इस रूप में राजनीतिक अशांति के लिए जिम्मेदार सरकार होती है. इसी सिलसिले में कुकिस ने लिखा- “राजनीतिक टकराव का यह बुनियादी मॉडल आज टर्की, फिलीपीन्स, भारत और अन्य जगहों पर काम करता दिख रहा है.”
समाज-शास्त्रियों ने इस सिलसिले में किसी समाज में मौजूद खुशी की भावना का उल्लेख भी किया है. खासकर 2011 में ट्यूनिशिया, मिस्र और अन्य अरब देशों में हुई सियासी उथल-पुथल के बाद इस पहलू पर ध्यान देने की शुरुआत हुई.
इसका कारण यह था कि जो देश उस दौरान राजनीतिक अशांति का केंद्र बने, उनकी आर्थिक स्थिति मोटे तौर पर बहुत से ऐसे देशों से बेहतर थी.
जहां वैसी अशांति के लक्षण नहीं दिखे. तब कई सर्वेक्षणों के जरिए आई इस सच्चाई पर ध्यान दिया गया कि अरब देशों में भले आर्थिक खुशहाली ज्यादा थी, लेकिन वहां के लोग अपनी जिंदगी में खुशी और संतोष का अनुभव अपेक्षाकृत कम करते थे.
तब से संयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवलपमेंट सोल्यूशन्स नेटवर्क की तरफ से हर जारी होने वाली विश्व खुशी सूचकांक रिपोर्ट को खास गंभीरता से लिया जाने लगा है. ये रिपोर्ट कैंट्रिल लैडर की विधि से किए गए सर्वे के जरिए तैयार की जाती है.
इसमें सैंपल सर्वे के दौरान लोगों से पूछा जाता है कि जीवन की अपनी कल्पना की कसौटी को सामने रखते हुए एक से दस पैमाने पर बताएं कि वे खुद को कितना खुश महसूस करते हैं. अब ये गौर करने की बात है कि इस सूचकांक में हाल के वर्षों में भारत का दर्जा गिरता चला गया है. 2020 की रिपोर्ट में 156 देशों के बीच भारत को 144वें नंबर पर रखा गया.
2019 में भारत 140वें स्थान पर था. यह सचमुच अफसोसनाक है कि पिछले साल भारत इस मामले में पाकिस्तान के भी नीचे आया. मुद्दा यह है कि आखिर भारत में अधिक से अधिक लोग खुद को नाखुश क्यों पा रहे हैं और इसके क्या नतीजे हो सकते हैं? इस क्रम में अमेरिकी गैर-सरकारी संस्था फंड फॉर पीस की फ्रेजाइल स्टेट इंडेक्स (अस्थिर राज्य सूचकांक) पर ध्यान देना महत्त्वपूर्ण हो जाता है. पहले ये रिपोर्ट फेल्ड स्टेट्स इंडेक्स (नाकाम राज्य सूचकांक) के नाम से जारी होती थी.
इस सूचकांक में 2014 के बाद से भारत का दर्जा गिरा है. ये रिपोर्ट 11 कसौटियों को ध्यान में रखते हुए तैयार की जाती है. इनमें सामाजिक सामंजस्य, आर्थिक मजबूती और राजनीतिक वातावरण शामिल हैं. 2020 में आई इस रिपोर्ट में भारत को “बढ़ी हुई चेतावनी” वाले देशों की श्रेणी में रखा गया. इस सूची में कुल 30 देश थे.
लेकिन सिर्फ चार देश- ब्राजील, कोलंबिया, बोलिविया और भारत- ऐसे थे, जिनका दर्जा साल भर पहले की तुलना में गिरा था.
ऐसी रिपोर्टों की बात करें, तो ऐसे और भी सूचकांक हैं, जिनमें गुजरे वर्षों में भारत का दर्जा गिरा है. मसलन, संयुक्त राष्ट्र का मानव विकास सूचकांक, विश्व भूख सूचकांक, विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक आदि का नाम इस सिलसिले में लिया जा सकता है. इसके अलावा गुजरे समय में दुनिया के अनेक अध्ययनकर्ताओं ने भारतीय लोकतंत्र के सिकुड़ने को लेकर चिंता व्यक्त की है.
हम चाहें तो ऐसी रिपोर्टों या चिंताओं को सिरे से खारिज कर सकते हैँ. कहा जा सकता है कि ये समाज और उसकी शांति को देखने का विदेशी नजरिया है. ऐसे ही जवाबी तर्क में कहा जा सकता है कि भारत के लोग खुश और गौरवान्वित हैं. तभी वे लगातार हर चुनाव में आज की सत्ताधारी पार्टी को समर्थन दे रहे हैं.
लेकिन क्या सचमुच जमीनी ऐसी है? अगर सिर्फ कश्मीर जैसे इलाकों पर गौर करें या नागरिकता संशोधन कानून अथवा तीन नए कृषि कानूनों को लेकर जो जन प्रतिक्रिया हुई है, उस पर ध्यान दें, तो ऊपर कही गई कई बातों के प्रमाण हमें यहां ठोस रूप में दिख सकते हैं. इस संदर्भ में यह भी रेखांकित करने की बात है कि लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव नहीं होता. लोकतंत्र अवरोध और संतुलन (चेक एंड बैलेंस) के साथ जनादेश प्राप्त दल और नेताओं को जवाबदेह बनाए रखने की एक व्यवस्था है. अगर असहमति की सुरक्षा और जवाबदेही का तंत्र भंग हो जाए, तो जनादेश की व्यवस्था बहुसंख्यक वर्चस्व का रूप ले लेती है. इस व्यवस्था में सत्ता तंत्र मजबूत और अक्षुण दिख सकता है, लेकिन जमीनी स्तर पर अस्थिरता के लक्षण जाहिर होने लगते हैं.
अब मुद्दा यह है कि बाहर से नजर रखने वाली संस्थाएं, अध्ययनकर्ता और विश्लेषक आखिर अपने पैमानों पर भारत की नकारात्मक छवि क्यों बना रहे हैं? इस सवाल पर देश में गंभीर चर्चा की जरूरत है. अगर उनकी धारणाएं बेबुनियाद हैं, तो इसे तथ्यों और तर्कों से साबित किया जाना चाहिए. वरना, जो तस्वीर वो दिखा रहे हैं, उस पर चिंता करते हुए यह सोचना चाहिए आखिर इस स्थिति से निकलने का समाधान क्या है?
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.