Premkumar Mani
जिस दिन नालंदा अंतरराष्ट्रीय यूनिवर्सिटी के नये परिसर का प्रधानमंत्री ने उद्घाटन किया, उसी दिन आयोजित यूजीसी की नेट परीक्षा के रद्द होने की खबर सुर्खियां बनीं. कदाचार की जांच सीबीआई करेगी. यह हमारे मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के हाल की बानगी है. प्राचीन नालंदा के भग्नावेश को निहार रहे प्रधानमंत्री की एक तस्वीर अख़बारों में है. ऐसा प्रतीत होता है प्रधानमंत्री भावनाओं में डूबे हैं और कुछ संकल्प कर रहे हैं. सुना है ऐसा ही संकल्प देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी किया था, जब वह 1955 में इसे देख रहे थे. उनके मन में उसी स्तर का एक विश्वविद्यालय बनाने की बात आई थी. उनके इस सपने को उनकी बेटी इंदिरा ने पूरा किया. उनके ही नाम पर दिल्ली में एक यूनिवर्सिटी बना कर. यह जेएनयू है. लेकिन जेएनयू और इस नवीन नालंदा यूनिवर्सिटी में बड़ा अंतर है. जेएनयू का संकल्प भारतीय संसद में 1969 में पारित हुआ. दस वर्ष के भीतर यह विश्वविद्यालय दुनिया भर में चर्चित हो गया, लेकिन कोई पंद्रह साल गुजर जाने के बाद आज इस नालंदा के नवीन केंद्र का क्या हाल है, छुपा नहीं है.
दुनिया की तो बात ही छोड़ दीजिए, बिहार के विश्वविद्यालयों में भी यह फिसड्डी ( बिहार के चौबीस विश्विद्यालयों में अठारहवें नंबर पर ) है. विश्वविद्यालय का महत्त्व उसके भवन और परिसर से नहीं, उसकी गुणवत्ता और ज्ञान से होता है. इस मामले में यह संस्था कहीं से भी उल्लेखनीय नहीं है. विश्वविद्यालय ज्ञान का केंद्र होता है. हमारे मनीषियों ने कहा है कि यह व्यक्ति को विनम्र और मुक्त (आज़ाद ) बनाता है. ( विद्या ददाति विनयम और सा विद्या या विमुक्तये ). जब तक भारत ज्ञान का केंद्र रहा यह दुनिया के एक बड़े हिस्से का गुरु रहा. तब का ज्ञात संसार छोटा था. लेकिन जितना ज्ञात था, उसमें भारत का सम्मान था. अनेक देशों के लोग यहां ज्ञान हासिल करने आते थे. ह्वेनत्सांग और धर्मकीर्ति बाहर से आए थे, लेकिन उनका व्यक्तित्व नालंदा ने निर्मित किया. मैं हमेशा कहता रहा हूं, उच्चतम ज्ञान हमें स्थानीय नहीं, वैश्विक बनाता है. ऐसा वैश्विक जिसका केंद्र हमेशा व्यक्ति का अपना स्थान होता है.
रवीन्द्रनाथ टैगोर, गांधी, नेहरू, आम्बेडकर ऐसे ही लोग थे, जिन्होंने अंध-राष्ट्रवाद को कभी नहीं स्वीकार किया. वे मिजाज से वैश्विक थे. किन्तु उनके विश्व का केंद्र भारत था. कोई व्यक्ति यदि ब्रिटिश या चीनी है तो उसके विश्व का केंद्र उसका अपना देश होना चाहिए. नालंदा ने यह चेतना आज से हजार-डेढ़ हजार साल पहले दी थी. यह बुद्ध की ज्ञान-चेतना है.
नालंदा पर सोचता हूं तो मेरी भावनाएं उमड़ती हैं. उन्नीस की उम्र में भाग कर नालंदा पहुंचा था भिक्षु जगदीश काश्यप जी से मिलने. उनका शिष्यत्व प्राप्त हुआ. वह आधुनिक भारत के तीन ( राहुल सांकृत्यायन, आनंद कौशल्यायन और जगदीश काश्यप ) बौद्ध विद्वानों में एक थे. जितना सीख सकता था सीखा. उन्होंने प्राचीन नालंदा महाविहार के पुनर्स्थापन का संकल्प लिया था. आज़ादी मिलते ही वह इस उजाड़ जगह पर आ गए, जहां पीने के लिए पानी मिलना भी मुश्किल था. एक जमींदार, जो मुसलमान थे, की परती जमीन थी, जिसपर उनका ध्यान जमा.
उन्होंने जमींदार महोदय से अनुरोध किया- आपके पूर्वजों ने इस ज्ञान केंद्र को जला दिया, आप उसे पुनर्स्थापित करने केलिए अपनी जमीन दान देकर प्रायश्चित कर सकते हैं. जमींदार ने ग्यारह एकड़ जमीन दे दी. काश्यप जी ने अपने मित्र सर्वपल्ली राधाकृष्णन के सामने सारी बातें रखीं. तब बिहार में जगदीशचंद्र माथुर जैसे विद्वान भारतीय प्रशासनिक सेवा में थे. तेजी से काम बढ़ा और 1951 में नवनालंदा महाविहार की नींव तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा रखी गई. आज यह संस्थान एक डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा प्राप्त कर चुका है. केंद्र के मामले में अंतरराष्ट्रीय यूनिवर्सिटी से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. ज्ञान की एक परंपरा होती है. सातत्य होता है. विकास-क्रम को समझना हमें विनयशील तो बनाता ही है, प्रबुद्ध भी बनाता है.
नालंदा हमारी आधुनिक ज्ञान चेतना का प्रतीक बन सकता था. इसका प्रकाशमान इतिहास है. पुराने ज़माने के जाने कितने विद्वानों का नाम इस से जुड़ा है. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री ‘ का आरम्भ ही नालंदा की चर्चा से किया है. यह 1930 की बात है. नेहरू तब कांग्रेस अध्यक्ष थे और नैनी के जेल में बैठे अपनी बिटिया के जन्मदिन पर पत्र लिख रहे थे. चिट्ठियों का यह सिलसिला ही पूरी किताब है. नीतीश जी जब 2005 में मुख्यमंत्री बने तब एक मित्र के तौर पर मैंने बिहार को ज्ञान की ऊंचाइयों पर ले जाने का सुझाव दिया. लगभग रोज ही बातें होती थीं. मेरा मानना था कि पहले से ही स्थापित संस्थाओं का अपेक्षित विकास हो और तब नयी संस्थाओं का निर्माण हो. नालंदा के मामले में मेरा मानना था कि नवनालंदा महाविहार का ही विस्तार कर अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाया जाय. लेकिन मैंने अनुभव किया नीतीश जी को नयी संस्थाएं बनाने में रुचि अधिक है. वह उस क्षेत्र में एक नये विश्वविद्यालय को विकसित करना चाह रहे थे. उन दिनों मुचकुन्द दुबे बिहार में कॉमन स्कूल सिस्टम की रिपोर्ट तैयार करने में लगे थे.
पूर्व नौकरशाह और उन दिनों राज्य सभा सदस्य एनके सिंह, तत्कालीन शिक्षा आयुक्त मदनमोहन झा आदि नीतीश जी के इस विचार को पंख देने केलिए दिल्ली से संपर्क साधे हुए थे. उन्हीं दिनों हमारे मित्र शैबाल गुप्ता ने अमर्त्य सेन को आमंत्रित किया और नीतीश जी से उनका संपर्क हुआ. फिर बात तेजी से बढ़ती चली गई. 2007 में बिहार विधान मंडल से इस विषयक प्रस्ताव पारित हुआ और 2010 में भारतीय संसद ने भी इसे पारित कर दिया. तत्कालीन सरकार ने इसके स्वरूप को इतना अंतरराष्ट्रीय कर दिया कि यह विदेश मंत्रालय के अधीन आ गया.
कल विद्वान प्रोफ़ेसर पंकज मोहन जी ने एक महत्वपूर्ण पोस्ट लिखा है. वह इस संस्था से जुड़े रहे हैं और कुछ समय तक अन्तरिम कुलपति भी रहे. उन्होंने विश्वसनीय ब्यौरा दिया है. इशारों में ही उन्होंने बताया है कि वहां आपाधापी किसी को नजरअंदाज करने और स्वयं श्रेय लेने की है. ज्ञान-चेतना इसकी इजाजत नहीं देता. किसी को इग्नोर करना और स्वयं को स्थापित करना विनय-विरुद्ध आचरण है. चैतन्य महाप्रभु के बारे में एक कथा है कि एक बार जब वह नौका पर सवार हो नदी पार कर रहे थे और अपने मित्र को न्यायशास्त्र पर रचित पुस्तक का पाठ सुना रहे थे तब एक तीसरा यात्री रोने लगा. चैतन्य ने कारण पूछा तो उसने बताया कि मैंने भी इस विषय पर एक किताब लिखी है,किन्तु अब आपकी किताब जब आ जाएगी मेरी किताब को कौन पूछेगा. मेरा परिश्रम बेकार गया, इसीलिए रो रहा हूं. चैतन्य ने उस महानुभाव से चुप रहने का अनुरोध करते हुए एक झटके में अपनी किताब नदी में फेंक दी. कहा, बंधुवर अब मुझे जो कहना होगा आपकी किताब की मीमांसा के रूप में कहूंगा. ताकि आप का परिश्रम और इस विषय पर किये गए काम को विस्मृत न किया जा सके.