Pramod Pathak
यदि यह पूछा जाए कि इस सदी की सबसे बड़ी बीमारी क्या है, तो निसंदेह लोग कोविड-19 बताएंगे. लेकिन, क्या सचमुच ऐसा है? गहराई से सोचने पर शायद यह समझ आए की बीमारी तो कुछ और है , कोरोनावायरस तो बस एक लक्षण है. आज इस नाम से महामारी को जाना जा रहा है, कल किसी और नाम से जाना जाएगा. वैसे भी एक के बाद एक वैरिएंट तो नए नाम के साथ आ ही रहे हैं. वास्तविकता यह है कि असली बीमारी है लोभ. बड़ी -बड़ी फार्मा कंपनियों का गोरखधंधा, एकबारगी शायद समझ ना आए, लेकिन यदि हम इस पूरे कोरोना प्रकरण की पूरी गंभीरता से विवेचना करें, तो एक अलग ही तस्वीर दिखाई देगी. आइए, पहले हम इस पूरे घटनाक्रम की ठीक से समीक्षा करें, तब जाकर निष्कर्ष मिलेगा.
आज जब कोरोना ने फिर से दुनिया को अपने प्रकोप में समेट लिया है तो यह सोचने की जरूरत है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? यह तीसरा वर्ष है ? 2019 में शुरू हुई कोरोना महामारी ने जब दुनिया भर में तबाही मचाने की शुरुआत की थी, तब शायद ही किसी को अंदाजा रहा होगा कि यह महामारी इतने व्यापक पैमाने पर इतना लंबा चलेगी. महीना, दो महीना, चार महीना या शायद एक साल. इतना ही चलने का अनुमान लगाया गया होगा या कहें कि लगाया गया था . हालांकि 100 साल पहले इसी तरह की एक महामारी, जिसे स्पेनिश फ्लू नाम दिया गया था, वह दो सवा दो साल चली थी. ऐसे में कुछ लोग शायद यही मान रहे होंगे कि इस बार भी उतना ही लंबा चलेगी यह बीमारी.
लेकिन वहीं एक तर्क यह भी था कि उन दिनों यानी 1918 में जिस वक्त स्पेनिश फ्लू महामारी ने अपना प्रकोप दिखाया था, उस वक्त चिकित्सा विज्ञान आज जैसी मजबूत स्थिति में नहीं थी. उस समय विश्व स्वास्थ्य संगठन या सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल जैसी विश्व स्तरीय स्वास्थ्य प्रबंधन के लिए बनाई गई विशेष संस्थाएं थी और न तब वैश्विक स्वास्थ्य पर अरबों डॉलर खर्च करने का प्रावधान था. शोध और विज्ञान भी बहुत विकसित नहीं थे.
बड़ी-बड़ी फार्मा कंपनियां अपने टीकों का ढिंढोरा पीट रही है. सभी दावा कर रहे हैं कि उन्हीं की दवा कारगर है. बाजारवाद के इस दौर में बीमारी कोरोना नहीं लोभ है. अतृप्त लोभ. और इस लोभ में लोग पिस रहे हैं. यह सिलसिला कहां थमेगा बताना मुश्किल है. बीमारी से कम लोग प्रताड़ित हुए, ज्यादा तो भय और भ्रम का शिकार हुए.
एंटीबायोटिक दवाओं का भी आविष्कार नहीं हुआ था और एंटीवायरल दवा जैसी कोई बात ही नहीं थी. चिकित्सा का बुनियादी ढांचा भी बहुत विकसित नहीं था. जाहिर है यह लगा कि 2019 में हम बहुत बेहतर स्थिति में इस तरह की महामारी का सामना करने के लिए हैं. किंतु जैसे – जैसे इस बीमारी का प्रकोप बढ़ता गया, यह सोच कमजोर पड़ती गयी की हम इस तरह की महामारी का सामना करने में पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा सक्षम हो गए हैं. संभवतः इसके पीछे भी कुछ अलग सोच थी. भय बढ़ाने का अपना अलग अर्थशास्त्र है. लिहाजा महामारी का प्रकोप तो बढ़ता ही गया, उसका दायरा भी फैलता गया. रोकथाम के प्रयास सफल नहीं साबित हो पा रहे थे.
पूरा वर्ष यानी 2020 अफरा तफरी में ही बीता और कोई ठोस वैज्ञानिक सोच नहीं उभर पायी, सिवाय इसके कि मास्क और सामाजिक दूरी कारगर साबित हो रहे थे. यानी सौ साल पहले की सोच ही कारगर थी. दवा का जहां तक सवाल था, तो सब कुछ कयास पर चल रहा था. भूल, भय एवं भ्रम पर आधारित. फिर कुछ दिनों के लिए प्रकोप कुछ थमा. शायद स्वयं. तब यह उम्मीद बंधी की 2021 में यह महामारी समाप्त हो जाएगी. थोड़े समय के लिए ऐसा लगा कि महामारी नियंत्रित हो गई और हमें मुक्ति मिल गई.
लेकिन, उस वक्त भी एक बड़ा तबका ऐसा था, जो बार-बार यह चेतावनी दे रहा था कि दूसरी लहर आएगी. मीडिया के द्वारा इस चर्चा को बार-बार बल भी दिया जा रहा था. बड़े-बड़े विशेषज्ञ इस बात को लेकर पूरे दावे के साथ दलील पेश कर रहे थे कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर तय है. साथ ही कंप्यूटर ग्राफिक्स के जरिए मॉडल बनाकर यह साबित भी कर रहे थे कि दूसरी लहर और भयावह होगी. अप्रैल में दूसरी लहर आ ही गई. आ गई या लाई गई, यह एक अलग प्रश्न है. मगर यह लहर पहले से ज्यादा खतरनाक थी.
डेल्टा वैरिएंट के नाम से आई दूसरी लहर में हमें भयंकर तबाही देखने को मिली. भय और अफरातफरी का जबरदस्त माहौल था और तरह-तरह के विचार और विकल्प तथाकथित विशेषज्ञों द्वारा सुझाए जा रहे थे. हर चीज की मारामारी हो रही थी. ऑक्सीजन की मारामारी, अस्पताल में जगह की मारामारी, वेंटिलेटर की मारामारी. पूरी तरह से अफरा-तफरी और शोर-शराबे का माहौल था. इसी दौरान शुरू हुई दवाओं की कालाबाजारी.
व्हाट्सएप और सोशल मीडिया, यहां तक की मुख्यधारा की मीडिया भी भ्रम फैलाने में जाने-अनजाने शामिल हो गई . किसी को कुछ पता नहीं था कि कौन – सी दवा काम कर रही है, लेकिन व्हाट्सएप पर एक प्रिसक्रिप्शन दौड़ता रहा. हाइड्रोक्सी क्लोरो क्वीन और पेरासिटामोल से शुरू हुई कहानी एजिथ्राल और आइवरमेक्टिन के रूप में इलाज के तौर पर प्रचारित की जाने लगी. वैसे यह सवाल किसी ने नहीं उठाया कि यह दवा कैसे कारगर थीं?
बस लोग दवा दुकानों पर इन दवाओं को खरीदने लगे और इनकी कमी हो गई. यह सामान्य दवाएं थी. लेकिन इनकी भी कालाबाजारी हुई. फिर कुछ खास दवाओं का नाम आया, जैसे रेमडेसिविर और मेडराल. फिर इनकी भी कमी हो गई और कालाबाजारी शुरू हो गई. 3000 रु की रेमडेसीविर 30000 रु तक बिकी. हर तरफ भ्रम का माहौल था. पहले एक दवा का नाम चलता था और यह कहा जाता था कि यही दवा है. जब उसकी मारामारी होने लगती, तो अचानक स्थापित स्वास्थ्य एजेंसियां जैसे विश्व स्वास्थ संगठन इत्यादि यह कहती कि यह दवा कारगर नहीं है. फिर एक दूसरी दवा का नाम उछलता. फिर तीसरी, फिर चौथी. कभी स्टेरॉयड, कभी जिंक.
कभी टेस्टिंग लैब तो कभी खुद से जांच. अजीब भ्रामक स्थिति थी. यह कहें कि पैदा की गई थीं , लूट का आलम था और लोग बेहाल – परेशान थे. मगर समाधान कहीं नहीं दिखता था . खैर, अप्रैल 2021 से लेकर सितंबर तक तबाही मचाने के बाद महामारी फिर से थमी. लगा कि बला टल गई. लेकिन फिर भी एक बड़ा तबका भविष्यवाणी करता रहा कि तीसरी लहर आने वाली है. फिर से वही सिलसिला शुरू हुआ. तीसरी लहर आ भी गई. इस बार ओमिक्रान के नाम से. फिर से वही सब हो रहा है. वही दवा है, वही पर्चियां. वही दवा खरीद का सिलसिला.
इस पूरे प्रकरण में कुछ रुझान बड़े साफ दिखे. एक तो यह कि किसी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि किस दवा का प्रभाव सबसे व्यापक और सटीक होगा. टीके भी बने और बहुत हद तक कारगर भी रहे. लेकिन, भ्रम फैलाने का सिलसिला फिर भी जारी है. एक डोज, दूसरी डोज, तीसरी, यहां तक की चौथी की भी वकालत हो रही है. बड़ी-बड़ी फार्मा कंपनियां अपने टीकों का ढिंढोरा पीट रही है. सभी दावा कर रहे हैं कि उन्हीं की दवा कारगर है.
बाजारवाद के इस दौर में बीमारी कोरोना नहीं लोभ है. अतृप्त लोभ. और इस लोभ में लोग पिस रहे हैं. यह सिलसिला कहां थमेगा बताना मुश्किल है. बीमारी से कम लोग प्रताड़ित हुए, ज्यादा तो भय और भ्रम का शिकार हुए. भय फैलाने के इस धंधे में आम आदमी की असली दुर्दशा हुई. दो साल बाद भी भय और भ्रम बरकरार है. असली बीमारी भी वही है.
डिस्क्लेमर : लेखक आईआईटी -आईएसएम, धनबाद के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं, और ये उनके निजी विचार हैं.
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