Faisal Anurag
चुनावी शिकस्त का ही असर है कि कोरोना, वैक्सीन और आर्थिक हालात से निपटने के बजाय नरेंद्र मोदी हुकूमत ममता बनर्जी को सबक सिखाने में लगी हुई है. अलपान बंदोपाध्याय ने सेवा विस्तार लेने से इंकार कर रिटायर होना पसंद किया. इसके कुछ ही घंटो बाद केंद्र सरकार ने अलपान बंदोपाध्याय को एक सख्त शो कॉज नोटिस भेज दिया. केंद्र ने नोटिस में कहा है केंद्र के आदेश की अवज्ञा करने के कारण उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी. सवाल केवल बंगाल तक ही सीमित नहीं है. केरल के मुख्यमंत्री ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर लक्षद्धीप की संस्कृति, बायोडायवर्सिटी और केरल के साथ लक्षद्धीप के सांस्कृतिक अपनत्व पर हमला करने का आरोप लगाया है. इस पत्र में लक्षद्धीप के प्रशासक के साथ ही केंद्र सरकार को भी निशाना बनाया गया है. केरल में भी धाराणा है कि केंद्र उससे बदले की राजनीति कर रहा है. आने वाले दिनों में केरल भी बंगाल की राह पर चल सकता है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने भी लक्षद्धीप के प्रशासक को हटाने की मांग कर दिया है. तमिलनाडु भी केंद्र को लेकर सशंकित है.
केंद्र और राज्य सरकार के बीच एक अधिकारी को लेकर पहली बार ऐसा टकराव हुआ है. इस टकराव के दूरगामी असर की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है. बंगाल ही नहीं देश के अनेक आइएएस अधिकारी पूरे घटनाक्रम को ले कर बेचैन है. बंगाल के कुछ अखबारों ने खबर प्रकाशित किया है. इस खबर के अनुसार, आइएएस अधिकारी के व्हाट्सअप ग्रूप में हो रही चर्चाओं से अधिकारियों की बेचैनी साफ महसूस की जा सकती है. इस संदर्भ के स्रोत को अखबारों ने सूत्रों का हवाला देकर बताया है.
बंगाल में ममता बनर्जी की जीत मछली के कांटे की तरह केंद्र को चुभ रही है. जिस तरह के कदम उठाए जा रहे हैं उसका असर प्रशासिनक सेवा पर पड़े बगैर नहीं रह सकता है.
यह तो पहल से ही स्पष्ट है. ब्यूरोक्रेसी के बड़े हिस्से की राजनैतिक दलों के साथ रिश्तों ने साख और कानून सम्मत कार्यप्रणाली को नुकसान पहुंचाया है. राजनैतिक आकाओं को खुश करने का ही नतीजा है कि भारत की अनेक संवेक संस्थाओं को लेकर सवाल उठते रहे हैं. बंगाल विवाद के बाद उत्पन्न हालात राज्यों में पदस्थापित अफसरों के कार्यप्रणाली की प्रतिबद्धता, साख और विधिसम्मत विधिसम्मत भूमिका की राह में बाधा है. एक ऐसे दौर में जब हर तरफ संदेह और साजिश हावी है इस तरह के माहौल के नकारात्मक असर की संभावना प्रबल है.
इतना तो तय ही है कि जिन हालातों में रिटारमेंट की तारीख से केवल तीन दिनों पहले बिना राज्य से विचार विमर्श किए अलपान बंदोपाध्याय का तबादला किया गया. वह अब तक की मान्य परंपराओं, संवैधानिक सीमाओं और राजनैतिक बदले की भावना की ओर इशारा करता है. राज्य कैडर के आइएएस और आइपीएस किसके आदेश का अनुपालन करें, इस विवाद ने इस सवाल को भी गंभीर बना दिया है. यही नहीं जिस तरह अब केंद्र जिलाधिकारियों से सीधे बात कर करता है, उससे राज्य की सरकारों के लिए कभी भी मुसीबत पैदा हो सकती है. गैर-भाजपा शासित राज्यों के इस अंदेशे को खारिज नहीं किया जा सकता है. केंद्र राज्यों में सीधे हस्तक्षेप कर रहा है. इससे राज्य की सरकारों की अथॉरिटी के देर सबेर प्रभावित होने के खतरे को केवल एक ख्याल भर ही नहीं माना जा सकता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले सात सालों में जिन कुछ बातों पर सबसे ज्यादा जोर दिया है. उस केंद्र राज्य संबंधों के बेहतर तालमेल और सहकारी संघवाद यानी कोऑपरेटिव फेडलिजम प्रमुख है. लेकिन यह सलाहकार संघवाद इस समय सबसे ज्यादा संकट के दौर में जब गैर भाजपा शासित राज्य केंद्र को लेकर जीएसटी हो या वैक्सीन या विकास योजनाओं में परामर्श या तीन कृषि कानून हो या श्रम कानून उपेक्षा का आरोप लगाते रहे हैं. कृषि कानून पर तो राज्यों से विचार विमर्श नहीं करने का आरोप सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने लगाया था. केंद्र राज्य के संबंधों को लेकर 1980 के दशक में भी कई सवाल उठे थे. समस्या के स्थायी निदान के लिए सरकारिया आयोग का गठन हुआ था. लेकिन उस पर कभी अमल नहीं किया गया. बंगाल के संदर्भ में मुकुल राय के पुत्र शुभ्रांशु राय, जो भाजपा के टिकट पर चुनाव हार गए, ने भाजपा को सुझाव दिया है कि वे आत्म निरीक्षण करे और ममता बनर्जी की आलोचना बंद करे.
चुनावी हार जीत तो लोकतंत्र का हिस्सा है, लेकिन एक चुनावी हार की प्रतिक्रिया जिस तरह बंगाल देख रहा है. वह किसी भी संवेदनशील राज्य की अस्मिता के लिए चुनौती ही है.
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