SriNivas
जब बहुमत किसी कीमत पर अपनी बात थोपने पर आमादा हो जाये, तब लोकतंत्र कमजोर होता है. विकृत होता है. भारत में हम इसका भयावह रूप इमरजेंसी के रूप और दौर में देख चुके हैं. और ऐसा लगने लगा है, मानो बिना किसी घोषणा के उसी दौर की वापसी हो रही है.
और वर्तमान सरकार को तो सही मायनों में ‘बहुमत’ का समर्थन भी हासिल नहीं है. हम जानते हैं कि वर्तमान चुनाव प्रणाली में वास्तविक बहुमत के बिना भी किसी दल या गंठजोड़ को विधायिका में बहुमत मिल सकता है. एक चुनाव क्षेत्र में भी अनेक प्रत्याशी होने बहुत कम मत पाकर भी कोई विधायक या सांसद बन सकता है. इसी आधार पर सरकारें बनती भी रही हैं. पर वर्तमान सरकार को तो मात्र लगभग 34 फीसद मतदाताओं का समर्थन हासिल है. लेकिन उसके समर्थक और मुरीद राजनीतिक पंडित भी इसे ‘प्रचंड जनादेश’ वाली सरकार बताते हैं. यदि सत्ता पक्ष को 55 प्रतिशत वोट भी मिले हों, तब भी विपक्ष 45 प्रतिशत का जन समर्थन रहता है. उसे आप इग्नोर कैसे कर सकते हैं? आप निर्वाचित हैं, अत: पूरे देश का प्रतिनिधि होने का दावा कर सकते हैं, पर संपूर्ण देश का समर्थन हासिल होने का नहीं. पता नहीं इतनी सी बात ये, प्रधानमंत्री सहित, क्यों नहीं समझ पाते!
वैसे यह कोई विशेष चिंता की बात नहीं है. सत्ता का मद तो होता ही है. मगर यह महज बहुमतवाद नहीं है. इसके पीछे बहुसंख्यकवाद का घातक उन्माद है, जो देश की बहुलता को रौंदने पर आमादा है. राजनीतिक बहुमत तो परिवर्तनशील होता है. मगर धार्मिक ध्रुवीकरण और धार्मिक आधार पर बना बहुमत स्थायी हो जाता है, जो लोकतंत्र की मान्यता के ही विरुद्ध है. और सरकार की तमाम विफलताओं और ज्यादतियों के बावजूद देश-(हिन्दू) समाज का अल्पसंख्यक, मगर मुखर और सबल तबका सरकार के समर्थन में और आक्रामक अंदाज में नजर आ रहा है, वह एक अनिष्टकारी भविष्य का संकेत है.
सीएए, एनपीआर और एनआरसी के मुद्दे पर सरकार उसके उग्र समर्थकों के रवैये में भी यह दिखा था. उन काले कानूनों के विरोध में हुए आंदोलन को दबाने और बदनाम करने के लिए दिल्ली में हुई नियोजित हिंसा की जांच और कार्रवाई के नाम पर दिल्ली पुलिस ने जो एकतरफा रवैया दिखाया, उसका सच भी अब सामने आ रहा है.
वह दौर फिलहाल स्थगित है, कोरोना से निजात मिलते ही पुनः शुरू होगा. और भाजपा से असहमत लोगों, उसके आलोचकों और एक ख़ास तबके के लिए वह निश्चय ही दहशत और खौफ का दौर होगा.
आज जो हो रहा है,और जो होने वाला है, इसे राजनीतिक विश्लेषक विजय कुमार दुबे ने अपने लेख ‘बहुसंख्यकवादी राष्ट्र बनने जा रहा है भारत’ में सटीक ढंग से रखा है- ‘..लोकतंत्र के केंद्र में पुलिस, फौज, अर्द्धसैनिक बलों और सरकार के आज्ञापालन का विचार स्थापित करने की प्रक्रिया जोर पकड़ रही है. प्रतिरोध, व्यवस्था-विरोध और असहमति के विचार लगभग अवैध घोषित कर दिये गये हैं.
एक नया भारत बन रहा है, जिसमें उस भारत की आहट भी नहीं है, जिसे गांधी-नेहरू कल्पनाशीलता ने बनाना शुरू किया था…’ हम उम्मीद करें कि श्री दुबे की भविष्यवाणी गलत सिद्ध होगी.
निश्चय ही भारत अम्बेडकर, गांधी, नेहरू और पटेल आदि के सपनों से उलट देश बनने की दिशा में अग्रसर दिख रहा है. तो क्या ये आसुरी शक्तियां सफल हो जायेंगीं? इनकी कोशिशों का शांतिपूर्ण प्रतिकार करना तो हर विवेकवान नागरिक का कर्तव्य है. मगर अंततः तो यह देश के बहुसंख्यक समुदाय को ही तय करना है कि क्या इस तरह का विभाजित भारत, जिसके नागरिक धर्म और जाति के नाम पर एक दूसरे के शत्रु की तरह आमने सामने होंगे, बनाना ही उनका लक्ष्य है, कि क्या ऐसे ही यह महान देश विश्व गुरु बनेगा?
इस खतरे के प्रति डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी बहुत पहले आगाह कर दिया था कि यदि राजनीतिक बहुमत की जगह धार्मिक बहुमत ले लेगा, तो वह लोकतंत्र नहीं होगा. उन्होंने कहा था ‘…अगर हिन्दू राज हक़ीकत बनता है तो यह इस देश के लिए सबसे बड़ी तबाही का दिन होगा.’ वह तबाही कब तक टाली जा सकेगी, हमारे सामने यह बड़ी चुनौती है.