Prafulla kolkhyan
आज-कल भारत में शक्ति की बहुत चर्चा है. सामने आम चुनाव है. लोकतंत्र में चुनाव शक्ति संयोजन का अवसर होता है. चुनावी राजनीति में इतनी हलचल के पीछे शक्ति का ही तो खेल होता है. सभी राजनीतिक दल बढ़-चढ़कर अपनी-अपनी क्षमताओं का उपयोग शक्ति पाने के लिए ही तो करते हैं! लेकिन शक्ति का खेल केवल चुनाव से सीमित नहीं होता है. जीवन में क्रिया का महत्व होता है. जब तक सांस है, तब क्रिया है. निष्क्रियता भी क्रिया है. निष्क्रियता को क्रिया शून्यता नहीं कहा जा सकता है. निष्क्रियता को अधिक-से-अधिक क्रिया की सुषुप्तावस्था कहा जा सकता है. क्रिया बिना शक्ति के संभव नहीं हो सकती है. तो जितनी तरह की क्रियाएं होती हैं, उतनी ही तरह की शक्तियां भी होती हैं. थोड़ा ठहर कर और थोड़ा समझकर शक्ति के संदर्भों पर बात करना जरूरी होता है. संबंध कोई भी हो उसमें किसी-न-किसी क्रिया का संदर्भ होता ही है. सारे संबंध शक्ति संबंध होते हैं. असल में सभ्यता विमर्श के मूल में शक्ति विमर्श ही होता है! एक बात यहीं टांक रखना जरूरी है. एक मामले में अपनी शक्ति को वह दूसरे मामले में भी लगा देता है, क्योंकि शक्ति ऐसा करने का अवसर बना देती है. जो अभिनय में, खेल आदि में सशक्त होता है, उसे राजनीति में भी शक्ति-सम्मान मिलता है. जो राजनीति में सशक्त होता है, वह कला, साहित्य, विज्ञान, अर्थशास्त्र आदि से संबंधित सभी विषयों पर ज्ञान देने की शक्ति रखता है.
भारत में शक्ति ‘हस्तांतरणीय’ होती है. सबसे बड़ी शक्ति तो पैसा होता है! इसीलिए तो पैसा के लिए इतनी मारा-मारी होती है. लोग कहते भी हैं, ‘बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुप्पैया’. हरि अनंत, हरि कथा अनंता की तरह कहा जा सकता है कि शक्ति का रूप अनंत, शक्ति की कथा अनंत. बहुत हल्के तौर पर, लगभग ठिठोली की तरह कहा जाता है कि स्त्री का सौंदर्य उसकी शक्ति होती है और पुरुष की शक्ति उसका सौंदर्य होता है. विद्वान लोग कहते हैं कि तर्क में अपनी शक्ति होती है. समझदार लोग यह जानते हैं कि शक्ति का अपना तर्क होता है. शक्ति का संबंध संतोष से भी होता है. शक्ति का संबंध न्याय से भी होता है. देवता अपनी शक्तियों के कारण पूजे जाते हैं. नेता अपनी शक्तियों के कारण पूछे जाते हैं. लोकतंत्र में देवता बन गये नेता पूजे भी जाते हैं और पूछे भी जाते हैं. भारत के लोकतंत्र में आज बड़ा जबरदस्त और खौफनाक सवाल यह है कि इसमें कोई नेता देवता बन कैसे जाता है जबकि नागरिक इंसानी जिंदगी के लिए तबाह क्यों रहा करता है.
प्रसंगवश, हालांकि बहुत दिन बाद उन्होंने नकार दिया था, अटल विहारी बाजपेयी ने इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ कहा था. वह उतना ही आपत्तिजनक होना चाहिए था, जितना आपत्तिजनक नरेंद्र मोदी को ‘विष्णु का अवतार’ कहा जाना है. इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ कहे जाने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई, लेकिन नरेंद्र मोदी को ‘विष्णु का अवतार’ कहे जाने पर कई लोग आपत्ति करते हैं. इस के कई कारण हैं. एक कारण तो यह है कि इंदिरा गांधी को विपक्ष के नेता ने ‘दुर्गा’ कहा था. नरेंद्र मोदी को उनके समर्थक ‘विष्णु का अवतार’ कहते हैं. इंदिरा गांधी ने अपने किसी हावभाव से कभी अपने को ‘दुर्गा’ न माना, न मनवाने की कोशिश की; नरेंद्र मोदी अपने हावभाव में लगातार अपने को ‘विष्णु का अवतार’ मनवाने की प्रतीति करवाते रहते हैं, लगता है खुद भी ऐसा ही मानने लगे हैं. भारतीय लोकतंत्र के लिए दोनों प्रसंग अपमानजनक ही हैं.
प्रकृति की शक्ति पर भी बात की जा सकती है, विज्ञान की शक्ति पर भी की जा सकती है. लेकिन यहां व्यक्ति की शक्ति पर बात करना अधिक जरूरी है. अकेला व्यक्ति बहुत कमजोर स्थिति में होता है. इस कमजोरी पर काबू पाने के लिए समूह बना, फिर समाज, फिर राज आदि. ‘योद्धा’ राजा बना गया और राजतंत्र की व्यवस्था शुरू हुई. ‘योद्धा’ में दूसरे व्यक्तियों की तुलना में युद्ध और संघर्ष की शारीरिक शक्ति अधिक होती थी, लेकिन पर्याप्त नहीं होती थी. राजा को “पर्याप्त शक्ति” की जरूरत थी.
लोकतांत्रिक नेता जब अपने को ‘बुनियादी रूप से समान लोगों के समूह में से ही एक या अलग’ होने से कुछ अधिक और इतर मानने लगे तो लोकतंत्र असंतुलन का शिकार हो जाता है. असंतुलन का शिकार लोकतंत्र अपने भीतर तानाशाह को छिपाये रखता है. लोकतंत्र का केवल ढांचा रह जाता है, समय पर चुनाव होते रहते हैं, लेकिन लोकतंत्र कहां! लोकतंत्र के लिए चुनाव जरूरी है, लेकिन समय पर चुनाव का होना लोकतंत्र के होने की गारंटी नहीं है. चुनाव लोकतंत्र की प्रक्रिया है, परिणाम नहीं.
आज-कल चुनावी मौसम में तरह-तरह की गारंटियां दी जा रही है, फिर भी कोई लोकतंत्र की गारंटी नहीं दे रहा है. तरह-तरह से सुख-सुविधा, छूट-छपाट की बात हो रही है, इस-उस की गारंटी की बात हो रही है. बस लोकतांत्रिक मूल्यों की सुरक्षा और संवैधानिक अधिकारों की सतत और निर्बाध उपलब्धता की गारंटी कोई नहीं दे रहा है. महात्मा गांधी ने आजादी के आंदोलन के दौरान क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों को फेल होनेवाले बैंक का “पोस्ट-डेटेड चेक” कहा था. दी जा रही सभी गारंटियों को फेल होनेवाले बैंक का “पोस्ट-डेटेड चेक” ही समझना चाहिए. लोकतंत्र में नेता की शक्ति उसकी व्यक्तिगत या वैयक्तिक शक्ति नहीं होती है.
वह प्रातिनिधिक शक्ति होती है. अन्य उम्मीदवारों की तुलना में विश्वास योग्यता या ऐसे ही आधारों पर मिले मतदाताओं के मत से उसे संवैधानिक पद पर नियुक्ति की आधिकारिकता (Entitlement) से क्षमता प्राप्त होती है. शपथ ग्रहण एवं अन्य औपचारिकताओं के पूरा होने के बाद संवैधानिक पद पर आसीन होने से संवैधानिक शक्ति मिलती है. यह शक्ति पद से मिलती है. पद और कद में निकट का संबंध होता है. लोकतंत्र में पद से बहुत बड़ा कद का होना कई बार अशुभ को आमंत्रित करता है. कई बार पद से कद का बहुत छोटा होना पद की गरिमा में गिरावट का कारण बन जाता है.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.