Shyam Kishore Choubey
जिन लोगों को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के जेल भेजे जाने के बावजूद इस्तीफा नहीं देने पर आपत्ति है, उनका ही अन्य राज्यों में रवैया बदला हुआ है. केजरीवाल के कदमों की आलोचना नैतिकता के नाम पर की जा रही है, क्योंकि कोई ऐसा स्पष्ट प्रावधान नहीं है कि मुख्यमंत्री जेल से अपना सिक्का चला सकता है या नहीं. जब संविधान लिखा जा रहा था, तब नैतिकता और आदर्श का जुग-जमाना था. जितने बलिदानों, त्याग-तपस्या और आंदोलनों से संविधान बनाने का अवसर आया था, लोगों ने सोचा ही न होगा कि वह जमाना भी आएगा, जब राज पुरुषों को आपराधिक मामलों में जेल जाना पड़ेगा. केजरीवाल की गिरफ्तारी के 12 दिन पहले 16 मार्च को देश में चुनाव की घोषणा की जा चुकी थी. इस कारण यह राजनीतिक मुद्दा बन गया. क्या पता, यह राजनीतिक विषय हो भी, क्योंकि युद्ध और प्रेम में हर कदम जायज माना जाता है. यूं, नैतिकता बेचारी 22 अप्रैल को सूरत में और 29 अप्रैल को इंदौर में किसी कोने में जा छिपी, जब दल विशेष के प्रत्याशी इस्तीफा कर दूसरे दल की गोद में जा गिरे, ताकि प्रतिद्वंद्वी का मार्ग आसान हो जाय. ऐसे विलक्षण इस्तीफों का अर्थ निकालते रहिए.
दूसरा पक्ष देखिए जो कुछ-कुछ दिल्ली मामले जैसा नैतिकता के ताने-बाने में लिपटा हुआ है. केवल 14 संसदीय सीटों वाले झारखंड में अबतक 11 विधायक प्रत्याशी बनाये गये हैं. इनमें मनीष जायसवाल, ढुल्लू महतो और सीता सोरेन एनडीए पक्ष के हैं, जबकि समीर मोहन्ती, जोबा मांझी, विनोद कुमार सिंह, जेपी भाई पटेल, प्रदीप यादव, नलिन सोरेन और मथुरा प्रसाद महतो इंडिया ब्लॉक के हैं. चमरा लिंडा बागी बनकर खड़े हैं. इनमें से सीता सोरेन ने 19 मार्च को विधायक पद से मार्फत मेल स्पीकर को इस्तीफा भेजा, जिसकी वैधता पर सवाल बना हुआ है. अभी भी वक्त है, सांसद चुने जाने की ललक में कुछ और विधायक दांव खेल सकते हैं. एक विधानसभा क्षेत्र गांडेय में उपचुनाव हो रहा है. चूंकि इस सीट पर 31 जनवरी तक मुख्यमंत्री रहे हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन भी प्रत्याशी हैं, इसलिए इसका महत्व बढ़ा हुआ है. जिन विधायकों ने दीगर दलों से अपनी उम्मीदवारी का पर्चा दाखिल किया है, गंभीर सवाल उन पर है. जब कोई सरकारी कर्मी चुनाव मैदान में उतरता है तो उसको अपना पद त्यागने की बाध्यता होती है. दूसरी ओर जब किसी एक सदन का सदस्य, दूसरे सदन के चुनाव में किस्मत आजमाता है तो उस पर यह बाध्यता क्यों नहीं लागू की जाती?
भले ही संविधान में ऐसी व्यवस्था नहीं है, लेकिन विधायक, सांसद भी तो तनख्वाह पाते हैं, टीए-डीए उठाते हैं, पारिवारिक पेंशन लेते हैं और इसके अलावा भी अनेक सुविधाओं का उपभोग करते हैं. चुनाव लड़ना निहायत व्यक्तिगत या दलीय मामला है और इस दौरान भी मैदान में जमे माननीय को वेतनादि सुविधाएं मिलती हैं. इस समयावधि में उन पर यह खर्च क्यों किया जाय? बाध्यता हो कि दूसरे सदन के चुनाव में जाने से पहले माननीय इस्तीफा करें तो शुचिता पदर्शित होगी. हम देख रहे हैं, कांग्रेस सांसद गीता कोड़ा भाजपा की प्रत्याशी बनाई गई हैं और भाजपा विधायक जेपी भाई पटेल कांग्रेस प्रत्याशी हैं, झामुमो विधायक सीता सोरेन भाजपा प्रत्याशी हैं, झामुमो विधायक चमरा लिंडा निर्दलीय प्रत्याशी हैं और एंटी डिफेक्शन का केस झेल रहे प्रदीप यादव कांग्रेस प्रत्याशी हैं. नैतिकता की गुहार यहां भी मचनी चाहिए न! संविधान इस विषय पर भले ही मौन हो, लेकिन स्पीकर सब देख रहे हैं न! सवाल यह भी है कि चुनाव लड़नेवाले सांसदों को भी उक्त अवधि का वेतनादि लाभ क्यों मिलना चाहिए?
फर्ज करिये कि दूसरे दल से चुनाव लड़ रहे एमएलए हार जाते हैं तो क्या वे अपने वर्तमान पद को इन्जॉय करेंगे, इस्तीफा करेंगे या उन पर एंटी डिफेक्शन का मामला चलाया जाएगा? लोकसभा चुनाव का परिणाम आने के पांच महीने के अंदर झारखंड विधानसभा के चुनाव की आचार संहिता लागू हो जाएगी. ऐसे में आशंका बनती है कि कुछ महानुभाव न तो खुद कोई रिस्क उठाएंगे, न ही उन पर एंटी डिफेक्शन आरोपित किया जाएगा. बहुत हुआ तो संबंधित दल कुनमुना-भुनभुनाकर उनके शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार चुनावी टिकट दे सकते हैं. शक्ति-सामर्थ्य कहें तो धनबल, जनबल और किंचित बाहुबल भी. 2019 में झारखंड विधानसभा के चुनाव के तीन-चार महीने पहले से कई विधायकों ने पाला बदल प्रारंभ कर दिया था. उस वर्ष भी अप्रैल-मई में लोकसभा चुनाव हुआ था, जिसमें एनडी अलायन्स ने तकरीबन 63 विधानसभा क्षेत्रों में अपना परचम फहराते हुए राज्य की 12 लोकसभा सीटें जीत ली थीं. संभवतः इस परिणाम को देखकर कई विधायकों ने दल-बदल किया था, लेकिन न तो किसी दल ने इस पर ध्यान दिया, न ही तत्कालीन स्पीकर ने कोई जहमत उठाई. दल-बदल मामले में स्पीकर स्वतः संज्ञान लेने के सक्षम प्राधिकार हैं.
परिस्थितियां बता रही हैं कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था विरोधाभासों से भरी हुई है. इलेक्टेड लोकसेवकों के लिए कुछ और कायदा-कानून और सेलेक्टेड लोकसेवकों के लिए कुछ और. इलेक्टेड लोकसेवक प्रजातंत्र के आधुनिक राजा-महाराजा हैं, सेलेक्टेड लोकसेवक उनके अधीनस्थ. इन लोगों को आराम कुर्सी मुहैया करानेवाली प्रजा तो बेचारी प्रजा है. पांच साल में उसी प्रजा को अधिकार मिलता है कि वह लोक शक्ति का प्रदर्शन करते हुए जिसे चाहे लोकसेवक चुनकर महिमामंडित करे. प्रजातंत्र और लोकतंत्र की प्रजा और लोक में अंतर है. संयोग से हम लोकतांत्रिक चुनावी दौर से गुजर रहे हैं. हमें वोट डालने की नैतिकता दिखानी चाहिए.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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