Sachin Kumar Jain
इस साल (वर्ष 2020 में) अमेरिका अपने 20 लाख किसानों को 51.2 अरब डॉलर (3.58 लाख करोड़ रुपये) की सब्सिडी दे रहा है. एक अमेरिकी किसान को औसतन 17.88 लाख रुपये की सब्सिडी मिलेगी. यह अब तक की सबसे बड़ी कृषि सब्सिडी मानी जा रही है.
भारत 14 करोड़ किसानों को अभी लगभग 2.35 लाख करोड़ रुपये (34अरब डॉलर) की सब्सिडी दे रहा है. एक भारतीय किसान के लिए मात्र 16821 रुपये की सब्सिडी का प्रावधान है.
वर्ष 2020 में एक अमेरिका के किसान की वार्षिक आय 86992 डॉलर (61 लाख रुपये) होगी, जबकि एक भारतीय किसान की औसत सालाना आय 1717 डॉलर (1.20 लाख रुपये).
विकसित देशों और डब्ल्यूटीओ चाहते हैं कि भारत जैसे देश किसानों को प्रत्यक्ष सहायता (उर्वरक सब्सिडी, बीज सब्सिडी, बिजली सब्सिडी, न्यूनतम समर्थन मूल्य आदि) देने के बजाये नकद हस्तांतरण कर दें. इस व्यवस्था का नियमन नहीं होना चाहिए. और फिर किसान खुले बाज़ार से बीज, बिजली, पानी ले और वहीं की कीमतों पर अपनी उपज बेंचे.
यह हम कैसे भूल जाते हैं कि किसानों को दी गयी सब्सिडी के कारण ही हमें गेहूं-चावल खुले बाज़ार में स्थिर कीमतों पर मिलते हैं. यदि यह सब्सिडी न हो, तो कीमतें लगभग 20 प्रतिशत ज्यादा होंगी.
वर्ष 1991 से भारत में एक मुहावरा चल रहा है, जिसका मतलब भारत के राजनीतिक दल और सरकारें समझ ही नहीं पायी हैं – सब्सिडी हटाने से देश का विकास होगा; इस मुहावरे का व्यवहारिक अर्थ है सब्सिडी हटाने से किसान आत्महत्या करेगा और देश भूखे मरेगा. किसानों और उपभोक्ताओं को मिलने वाली सब्सिडी को ख़तम करने का पूरा काम बहुत सुनियोजित ढंग से हो रहा है. वर्ष 1995 में हुए डब्ल्यूटीओ के समझौते में खाद्य सुरक्षा और खेती के लिए दी जाने वाले सब्सिडी अच्छी और खराब सब्सिडी में बांटा गया था – हरे रंग के डब्बे में रखी सब्सिडी (कृषि शोध, ढांचागत विकास, बिजली व्यवस्था, जनकल्याणकारी और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों के लिए खर्ची जाने वाली राजकीय सहायता); सरकार जितनी चाहे उतनी ग्रीन बाक्स सब्सिडी दे सकती है, लेकिन शर्त यह है कि इससे “बाज़ार को नुकसान” नहीं पहुंचना चाहिए.
दूसरी सब्सिडी होती है नीले/अम्बर बाक्स की सब्सिडी. इस बाक्स में बाज़ार को नुकसान पहुंचाने वाले सब्सिडी कहा गया है. इसका मतलब यह है कि सरकार निर्यात के लिए सीधे इतनी सब्सिडी न दे कि इससे खुले बाज़ार की कीमतें प्रभावित हों. विकसित देश ऐसी बहुत सब्सिडी देते हैं.
भारत के सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि भारत में आंतरिक खाद्य सुरक्षा और देश की सुरक्षा के नज़रिए से अनाज भण्डार बनाए रखने के लिए किसानों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर की जाने वाली कृषि उपज खरीदी को “बाज़ार को नुकसान” पहुंचाने वाली सब्सिडी माना जा रहा है. अमेरिका, यूरोपीय यूनियन आदि डब्ल्यूटीओ में भारत के खिलाफ केस दर्ज कर रहे हैं कि भारत निर्धारित मानकों से ज्यादा खाद्य सुरक्षा सब्सिडी खर्च कर रहा है, अतः इसके खिलाफ कार्यवाही की जाए.
ये मानक हैं क्या? कृषि समझौते का मानक कहता है कि कोई भी विकासशील देश कृषि और खाद्य सुरक्षा के लिए दी जाने वाली सहायता (कृषि और खाद्य सुरक्षा सब्सिडी) को राष्ट्र के कुल कृषि उत्पादन के मूल्य के अधिकतम 10 प्रतिशत के बराबर रखेंगे और विकसित देशों के लिए यह सीमा 5 प्रतिशत है. इसमें बहुत चतुराई से यह बिंदु जोड़ा गया है कि खाद्य सुरक्षा सब्सिडी की गणना के लिए आधार (एक्सटर्नल रिफरेन्स प्राइस-ईआरपी) माना जाएगा, यानी इन वर्षों में खाद्यान्नों की कीमत/सरकारों द्वारा तय मूल्य के बराबर की राशि को सरकार द्वारा तय वर्तमान कीमतों में से घटा कर रियायत की गणना की जायेगी और इसके लिए सन्दर्भ वर्ष 1986-88 माना गया.
समझौते में प्रावधान है कि विकसित देश वर्ष 1986-88 की सब्सिडी में 20 प्रतिशत की और विकासशील देश 13 प्रतिशत की कमी लायेंगे. धोखा यह है कि विकसित देश 1986-88 में भी भारी सब्सिडी दे रहे थे और भारत जैसे देश बहुत कम सब्सिडी दे रहे थे. अतः अमीर देशों पर इसका असर कम पड़ा.
वर्ष 2013 में इंडोनेशिया के बाली में इस विषय पर चर्चा हुई. इस बात पर सहमति नहीं बन पायी कि भारत जैसे देश खाद्य सुरक्षा सब्सिडी कम कर सकेंगे. डब्ल्यूटीओ में लोक भंडारण और कृषि रियायतों पर भले ही समझौता न हुआ हो, किंतु भारत ने तो पूंजीवाद के अनुशासित और उदार सेवक का रूप दिखाते हुए सब्सिडी कम करना शुरू कर ही दिया है. भारत ने उर्वरक सब्सिडी में 7 अरब डॉलर की सब्सिडी कम कर दी. खाद्य सब्सिडी में भी भारी कमी की गयी है. इसीलिए राशन व्यवस्था में अनाज के बदले नकद हस्तांतरण की व्यवस्था लायी जा रही है.
डब्ल्यूटीओ में सब्सिडी और उसे कम करने के लिए होने वाले समझौते दो काम करते हैं: एक– देशों की नीति-नियम बनाने की प्रक्रिया में दखल देकर सब्सिडी को कम करवाना है और दो- जो देश डब्ल्यूटीओ समझौते से ज़्यादा सब्सिडी दे रहे हैं, उनके ख़िलाफ़ प्रतिबंधात्मक कार्यवाही करना या कार्यवाही का दबाव बनाये रखना. इसका परिणाम यह होगा कि कृषि और खाद्य सुरक्षा पर से सरकार का नियंत्रण कम होगा और निजी क्षेत्र का आधिपत्य स्थापित होगा.
भारत के नीतिकार और सरकार के नुमाइंदे लगातार यह बात कहते हैं कि यदि हमें अपनी खेती को लाभकारी बनाना है और यदि हम चाहते हैं कि देश की आर्थिक उन्नति में कृषि का योगदान बढे, तो हमें अंतर्राष्ट्रीय कृषि बाज़ार की प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार होना होगा. लेकिन वे यह बताना भूल जाते हैं कि विभिन्न देशों की कृषि नीतियों, ख़ास तौर पर बीजों, कृषि शिक्षा, जमीन की उर्वरता के प्रबंधन, सिंचाई, जोखिम से सुरक्षा और किसानों की आय सुनिश्चित करने की ईमानदार पहल यह तय होता है कि उनके कृषि उत्पाद और उत्पादक अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कितना टिक पायेंगे?
अमेरिका अपने एक किसान को कुल मिलाकर 61286 डॉलर, कनाडा 13010 डॉलर, आस्ट्रेलिया 5357 डॉलर, यूरोपीय यूनियन 8588 डॉलर, नार्वे 55697 डॉलर, चीन 1065 डॉलर और और दक्षिण कोरिया 5369 डॉलर की कृषि सब्सिडी प्रदान करते हैं; जबकि भारत में प्रति किसान कुल कृषि सब्सिडी महज़ 282 डॉलर है. जिस देश में जितनी ज्यादा कृषि सब्सिडी दी जाती है, वहां कृषि उपज की उत्पादन लागत उतनी ही कम होती है.
कृषि लागत तथा मूल्य आयोग की रिपोर्ट (2020-21) के मुताबिक़ भारत अभी अन्तराष्ट्रीय बाज़ार में कहीं नहीं ठहरता है. भारत की विश्व बाज़ार में बेहद बुरी हालत है. पूरी दुनिया में होने वाले कृषि उत्पाद निर्यात में अमेरिका, ब्राजील और यूरोप की हिस्सेदारी ७2 प्रतिशत है. और इनका निर्यात बढ़ भी रहा है, वहीं दूसरी ओर भारत का निर्यात में नकारात्मक विकास दर (-0.5 प्रतिशत) रही. विश्व के कुल निर्यात में भारत का हिस्सा केवल 2.2 प्रतिशत (39.3 अरब डॉलर) का ही है. भारत के कुल कृषि निर्यात में चावल (19 प्रतिशत), समुद्री उत्पाद (16.8%), मांस (9.2%), मसाले (8.2%), कच्चा कपास (5.2%), शकर (3.6 प्रतिशत) शामिल हैं. मक्का, गेहूं, ज्वार, मोटे अनाज आदि का निर्यात इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि सब्सिडी कम होने के कारण इनकी उत्पादन लागत और मूल्य ज्यादा है.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.