Dr. Pramod Pathak
यह नई राजनीति का दौर है. नई राजनीति यानी सेवा के लिए नहीं, बल्कि सत्ता के लिए की जाने वाली राजनीति. किसी भी कीमत पर सत्ता मिलनी चाहिए. आज की राजनीति में देश से ज्यादा महत्वपूर्ण सत्ता की लालसा हो गई है. सत्ता ही सब कुछ है. एक पुरानी कहावत है सत्ता भ्रष्ट बनाती है और पूर्ण सत्ता पूर्ण भ्रष्ट बनाती है. यह दिख भी रहा है. दरअसल सत्ता को पचाना बेहद मुश्किल है और जिसने सत्ता पचा लिया, वह संत हो गया. आज से कोई 98 वर्ष पहले 22 अक्टूबर 1925 के यंग इंडिया के अंक में गांधी जी ने अपने आलेख में सात बड़े सामाजिक पापों का जिक्र किया था, जो समाज को विनाश की ओर ले जाते हैं. वैसे तो उन सातों ही पापों का खामियाजा आज का समाज भुगत रहा है, लेकिन उनमें से एक पाप जो आज के भारतीय समाज की सबसे बड़ी त्रासदी है वह है बिना सिद्धांत की राजनीति. बाकी सारी समस्याओं की जड़ में यह सिद्धांत विहीन राजनीति ही है, क्योंकि सत्ता ही हर चीज को चलाती है और सत्ता के पीछे की ताकत राजनीति है. चाहे संस्थाओं में मूल्यों में गिरावट की बात हो या समाज में. सर्वत्र मूल्यों की गिरावट देखी जा सकती है और सब के पीछे कारण राजनीति है. इसलिए आज राजनीति पर चर्चा करने की बहुत जरूरत है. राजनीति में मूल्यों को पुनर्स्थापित किए बिना बेहतर समाज के निर्माण की कल्पना बेमानी है. बेईमानी भी है.
वर्ष 2016 में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने पोस्ट- ट्रुथ नाम के एक शब्द का ईजाद किया था, जिसे उस साल ‘वर्ष का शब्द’ का दर्जा दिया गया. पोस्ट ट्रुथ यानी झूठ के बाद का दौर. उस वक्त तो इसका मतलब समझना थोड़ा मुश्किल लग रहा था, क्योंकि आखिर यह झूठ के बाद का दौर कैसा होगा, यह लोगों की समझ से परे था. लेकिन आज के राजनीतिक हालात को देखकर सहज ही समझा जा सकता है इस शब्द का आशय. वैसे इस शब्द के अस्तित्व में आने से पहले बॉलीवुड के अब तक के संभवत: सबसे बड़े शो मैन राज कपूर ने एक फिल्म बनाई थी मेरा नाम जोकर. शायद राज कपूर की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक. फिल्म में यथार्थ का चित्रण था और इसीलिए बहुत चली नहीं. उसी फिल्म के एक संवाद में झूठ की बड़े सुंदर तरीके से व्याख्या की गई थी. उस संवाद की पृष्ठभूमि थी कि राज कपूर को सर्कस में खूंखार शेरों के करतब दिखाने के लिए रिंग मास्टर की नौकरी लेने के लिए झूठ बोलने का सहारा लेना पड़ा था. लेकिन जल्द ही उसका झूठ पकड़ा जाता है. तब उससे पूछा जाता है कि उसने जान की जोखिम उठाकर भी इतना बड़ा झूठ क्यों बोला. इस प्रश्न के जवाब में राज कपूर ने जो कहा था वह आज के हालात पर सटीक टिप्पणी करता है.
संवाद कुछ इस तरह से था. ‘बड़ा झूठ इसलिए कि आजकल छोटा झूठ और खोटा पैसा चलते ही नहीं. बड़े झूठ का जमाना है साहब. जो औरतें चेहरे पर बड़े झूठ का पेंट पाउडर मलती हैं, उन्हें हसीन और जवान समझा जाता है. जो लोग पब्लिक से बड़ा झूठ बोलते हैं वे नेता और लीडर कहलाते हैं. व्यापार की दुनिया में जितना बड़ा झूठ, तिजोरी में उतना ज्यादा रुपया. मैं तो इस बड़े झूठ के मैदान का छोटा सा खिलाड़ी हूं साहब ‘. शायद सामान्य भाषा में इससे अच्छी व्याख्या आज के इस दौर की नहीं की जा सकती. इस आलोक में देश की राजनीति के बारे में कुछ बात करने की आवश्यकता है. खासकर इसलिए कि देश इलेक्शन मोड में आ चुका है और 2024 के चुनाव के लिए विसात बिछ चुकी है. आज के दौर की राजनीति में डिजिटल का बोलबाला है. डिजिटल यानी इ- राजनीति. आज की राजनीति इस इ यानी इलेक्ट्रॉनिक पर निर्भर है, जो झूठ संचालित करने का सबसे बड़ा माध्यम है. सोशल मीडिया के इस दौर में जो सबसे बड़ा प्रश्न है वह यही है कि इ- राजनीति के इस ताबड़तोड़ हमले में उ- राजनीति यानी उसूलों वाली राजनीति कैसे बचेगी. कैसे बचेगा मतदाता का ईमान जिसको झूठ के जरिए भटकाया जा रहा है. कैसे आएगी राजनीति में शुचिता जिस पर बड़े-बड़े भाषण दिए जा रहे हैं.
फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम के हमलों से मतदाता भ्रमित ही नहीं बल्कि ब्रेन वाश हो चुका है.वह तय नहीं कर पा रहा है कि झूठ क्या है और सच क्या. वैसे यह समझना इतना मुश्किल भी नहीं है.बस यह देखना है कि सोशल मीडिया के यह झूठ फैलाने वाले अस्त्र किसके द्वारा और किसके लिए चलाये जा रहे हैं. हिटलर के प्रमुख सलाहकार गोयेबल्स ने कहा था कि यदि किसी झूठ को बार-बार बोला जाए तो उसे सच समझ लिया जाता है.यदि यह हिटलरी रणनीति नब्बे वर्षों बाद भी कारगर साबित हो रही है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. आने वाले दिनों में झूठ का प्रचार और प्रसार बढ़ेगा इसमें संदेह नहीं लेकिन उसका प्रभाव और प्रकोप अभी देखना बाकी है.
कुल मिलाकर देखने वाली बात यह है की जनता जनार्दन अपने चित्त को कैसे स्थिर रखकर झूठ और सच का फर्क कर पाती है और कैसे स्थित प्रज्ञ रह कर सही निर्णय लेने की क्षमता विकसित करती है. वैसे इतिहास साक्षी है कि जनता ने भूलें जरूर की है लेकिन उन भूलों से सीखा भी है और उन्हें सुधारा भी है. इसलिए उम्मीद बरकरार है. लोग मासूम तो हैं मगर उन्हें मूर्ख समझना सही नहीं. शोर शराबे में भले ही सच्चाई कई बार दब जाती हो लेकिन फिर बाहर भी आ ही जाती है. इ- राजनीति की रफ्तार तेज तो है मगर अनुभव बताते हैं कि यह बहुत टिकाऊ नहीं होती. वैसे भी राष्ट्रीय उच्च मार्गों पर मोटे मोटे शब्दों में लिखा रहता है रफ्तार दुर्घटना का कारण है. देखना है कि इस झूठ के बाद के दौर में उ- राजनीति कितनी कारगर होती है.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.