
रंग-संयोजन को आप कलर कंट्रास्ट भी कह सकते हैं. हिन्दी के कवियों को नीले-पीले का रंग-संयोजन प्रीत करता है. आजकल तो एक ही रंग के कई शेड्स निकल आए हैं – स्टील ब्लू और जाने क्या -क्या! चूंकि यहां नीले-पीले का रंग-संयोजन है, तो कवियों का अभिप्राय गाढ़ा नीला रंग रहा है, इसे हम बैंगनी कह सकते हैं. यह और बात है कि नीले रंग के अलावा हरे रंग के भी बैंगन होते हैं. अस्तु. संप्रति तीन कवियों की पंक्तियां मुझको याद आ रही हैं.
कामायनी में श्रद्धा के रूप- वर्णन क्रम में कवि जयशंकर प्रसाद लिखते हैं —नील परिधान बीच सुकुमार, खिल रहा मृदुल अधखुला अंग /खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ-वन बीच गुलाबी रंग. श्रद्धा ने नील मेषों का चर्म तन पर लपेट रखा है. पीताभ गोरापन है श्रद्धा का. नीले परिधान के बीच से श्रद्धा के तन का गोरापन झांक रहा है.
दूसरा प्रसंग बिहारी लाल के दोहे में मिलता है. “सोहत ओढ़े पीत पट, श्याम सलोने गात /मनो नीलमणि शैल पर आप पर्वतों प्रभात.” पीतांबरधारी कृष्ण स्वयं नीलवर्णी हैं तो कवि उत्प्रेक्षा करता है. ऐसा लग रहा है जैसे नीलम पर्वत पर सूर्य की प्रात:कालीन पीताभ किरणें बिखर रही हैं.
तीसरा प्रसंग सूरसागर से है. श्रीकृष्ण अपनी पट्ट महिषी रुक्मिणी के साथ, लंबे अंतराल पर गोकुल (मथुरा ) पधार रहे हैं. गोपियों को कृष्ण के आगमन की सूचना जैसे ही मिलती है, उनका हुजूम रास्ते पर उमड़ आता है. अभी कृष्ण का रथ दूर है. किंतु रुक्मिणी का कुतूहल रोके नहीं रुक रहा. वह सोचती हैं, गोपांगनाओं की इस भीड़ में कृष्ण की बालप्रिया राधा को भी होना ही चाहिए. वे कृष्ण से कहती-पूछती हैं – “बूझति हैं रुक्मिणी इनमें को वृषभानु -किशोरी/नेकु हमें दिखलावहु अपने बालापन की छोरी.” इस भीड़ में वृषभानुजा कौन है? अपने बचपन की जोड़ी जरा मुझे भी तो दिखाओ! अपनी बालप्रिया को कृष्ण उस भीड़ में भी दूर से ही पहचान रहे हैं- “वह लखि सब जुवतिन महं ठाड़ी, नील बसन तन गोरी!” वह देखो, युवतियों की इस भीड़ के बीच गोरे बदन वाली लड़की, नीले कपड़े पहने.