Dr VINAY BHARAT "हम विश्व मैत्री में विश्वास करते हैं"- यह वाक्य दशकों से भारत की कूटनीतिक आत्मा रहा है. हर मंच पर, हर वार्ता में, भारत ने इसे दोहराया. लेकिन आज, जब हम अपने चारों ओर देखें, तो यह विश्वास अकेला पड़ गया है. शब्द वही हैं, पर उनके पीछे की गूंज अब खाली लगती है. राजनयिक मंचों पर गूंजने वाले आदर्श वाक्य अब खोखले प्रतीत होते हैं. वह आत्मा, जो कभी पूरे विश्व में भारत की छवि को परिभाषित करती थी, अब संदेह के घेरे में है. यह बदलाव अचानक नहीं आया, पर उसे समझना आज की सबसे बड़ी जरूरत बन गया है.
पाकिस्तान- हर नई घटना पुराने जख्मों को और गहरा करती है
पाकिस्तान के साथ तो रिश्ते पहले ही उलझे थे. लेकिन हाल की घटनाओं ने इसमें और कड़वाहट घोल दी. पहलगाम में हमला हुआ. निर्दोष लोग मारे गए. भारत ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ चलाया. हमला करने वालों को जवाब मिला. फिर भी, शांति पास नहीं आई. अमेरिका ने मध्यस्थता की, पर वह भी कुछ घंटों में खत्म होते दिख पड़ा. शांति अभी भी दूर ही है. राजनीतिक और कूटनीतिक बातचीत की जगह अब आक्रोश और अविश्वास ने ले ली है. हर नई घटना पुराने जख्मों को और गहरा करती है. संवाद की संभावनाएं सीमित होती जा रही हैं, और दोनों देशों के नागरिकों के बीच दूरियां बढ़ रही हैं.
नेपाल- कभी भाई जैसा था, अब संकोच में है
2020 में नेपाल ने नया नक्शा जारी किया. कालापानी, लिपुलेख, लिम्पियाधुरा- ये भारत के थे, पर नेपाल ने दावा कर दिया. सीमाओं पर नहीं, दिलों में दीवारें खड़ी हो गईं. कभी खुली सीमाएं और सांस्कृतिक मेलजोल हमारी साझी विरासत थी. लेकिन आज, कूटनीतिक खिंचाव ने उस भरोसे को चुनौती दी है. छात्रों से लेकर व्यापारी तक, सभी को इस दरार का असर महसूस हो रहा है. साझेदारी अब संदेह की नजरों से देखी जा रही है. हमने वर्षों तक रामायण की कथा में जनकपुर और अयोध्या को एक सूत्र में देखा, पर आज वही सांस्कृतिक धरोहरें मौन हैं. इस रिश्ते को पुनः आत्मीय बनाने के लिए मान और संवेदना की जरुरत है.
बांग्लादेश- नई राह चुनी
शेख हसीना की विदाई के बाद नई सरकार आई. भारत पर आरोप लगे- हस्तक्षेप के. वर्षों का विश्वास हिल गया. कई व्यापारिक सौदे संदेह के घेरे में आ गए. भारत की छवि बदलने लगी. बांग्लादेश और भारत के बीच अडानी पावर के विद्युत समझौते पर विवाद बढ़ा है. झारखंड के गोड्डा संयंत्र से बिजली आपूर्ति हेतु हुआ यह करार अब उच्च लागत, पारदर्शिता की कमी और कर लाभों पर संदेह के घेरे में है. बांग्लादेश सरकार ने बिजली दरें अत्यधिक बताते हुए समीक्षा शुरू की है. भुगतान में देरी पर अडानी पावर ने आपूर्ति घटाई, जिससे संकट और गहरा गया. इस विवाद से भारत पर व्यापारिक दबाव और पड़ोसी देशों में उसके इरादों पर संदेह बढ़ा है. संबंधों में संतुलन की जरूरत है.
मालदीव और श्रीलंका- अब अलग स्वर में बोलते हैं
मालदीव में ‘इंडिया आउट’ का नारा सत्ता की आवाज बन गया. सैनिक लौटे. चीन आ गया. भारत की जगह सिकुड़ने लगी. श्रीलंका में भारत ने ऋण दिया, मदद दी. चीन का " बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव" (BRI ) श्रीलंका को हिन्द महासागर में एक रणनीतिक सहयोगी बनाता है. लेकिन वहां की राजनीति बार-बार चीन की तरफ झुकती है. यह केवल रणनीतिक असंतुलन नहीं, बल्कि एक गहरी चेतावनी है कि सहयोग की नींव अब डगमगाने लगी है. कूटनीतिक रिश्ते केवल सहायता से नहीं, सम्मान और सहभागिता से टिकते हैं. इन देशों में भारत की साख अब पुनर्निर्माण की मांग कर रही है.
और अमेरिका? वह तो कभी मित्र था
मोदी-ट्रंप की दोस्ती सुर्ख़ियों में थी. पर अब? अमेरिका पाकिस्तान को सहायता दे रहा है. भारत पर व्यापारिक शर्तें थोप रहा है. उसकी आंख में अब दोस्ती की गर्मी नहीं, हितों की ठंडक दिखती है. पुराने सहयोग कार्यक्रम अब पुनर्मूल्यांकन की स्थिति में हैं. अमेरिका की विदेश नीति अब अधिक यथार्थवादी और हित-आधारित हो गई है. भारत को भी अपनी रणनीति में लचीलापन और दीर्घदृष्टि लाने की जरूरत है, ताकि यह साझेदारी फिर से विश्वसनीय बन सके.
भारत अकेला नहीं, पर अकेलापन महसूस कर रहा है
एक वक्त था जब पड़ोसी देश भारत की तरफ उम्मीद से देखते थे. आज वे भारत से असहज हैं. संदेह कर रहे हैं. और, भारत?
शायद आत्मविश्वास में डूबा है. शायद वह सोचता है- जो हम कर रहे हैं, वही सही है. यह आत्मविश्वास अगर संवादहीनता में बदल जाए, तो रणनीतिक भूलें बढ़ सकती हैं. नेतृत्व को यह समझना होगा कि कूटनीति का अर्थ केवल सत्ता प्रदर्शन नहीं, बल्कि संतुलन और सहमति बनाना भी है.
पर सवाल यह है- क्या यह नीति सही दिशा में जा रही है?
जब हर पड़ोसी असंतुष्ट हो जाए, तो यह सोचने का समय होता है. जब मित्र देश भी दूरी बनाने लगें, तो आत्मचिंतन जरूरी होता है. नीतियों की सफलता केवल आंकड़ों से नहीं, बल्कि संबंधों की गहराई से मापी जाती है. भारत को अपनी विदेश नीति की भाषा और भाव दोनों की समीक्षा करनी होगी, ताकि पुराने संबंधों की गर्माहट फिर से लौट सके.
देश के भीतर भी घाव हैं
CAA, NRC जैसे कानूनों ने देश के भीतर की शांति को हिला दिया. सांप्रदायिक तनाव बढ़ा है. समरसता दरकी है. दुनिया देख रही है. दुनिया पूछ रही है- क्या भारत वही है जो गांधी का भारत था? भीतर की अस्थिरता जब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उजागर होती है, तो विश्वसनीयता को आघात पहुंचता है. भारत को अपनी आंतरिक नीतियों में समरसता और सहभागिता को प्राथमिकता देनी होगी, ताकि लोकतंत्र की असली तस्वीर दुनिया के सामने आ सके.
क्या भारत अपनी राह से भटक गया है?
शक्ति की नीति जरूरी है. पर केवल शक्ति से मैत्री नहीं बनती. मैत्री के लिए चाहिए- संवेदना, संवाद और संतुलन. भारत को शक्ति और संवेदना के बीच संतुलन साधना होगा. शक्ति का प्रयोग संयम से हो और संवाद खुले दिल से. जब हम केवल जीतने की सोचें, तो हारने के खतरे बढ़ते हैं- रिश्तों में, भरोसे में और पहचान में.
अब समय है- रुक कर सोचने का
भारत को फिर से अपनी नीति को देखना होगा. मित्रता केवल समझौते नहीं होती. यह भरोसे का ताना-बाना होती है. रिश्तों में जिद नहीं, जमीन चाहिए. केवल `भारत प्रथम` नहीं- `पड़ोसी भी साथ` का भाव चाहिए. आत्मनिरीक्षण से ही नए रास्ते निकलते हैं. एक सशक्त राष्ट्र वही होता है जो अपनी भूलों को पहचान सके और सुधार की दिशा में साहसिक कदम उठा सके. अब वक्त है- आत्मसमीक्षा का, पुनर्निर्माण का.
एक विचार यह भी है- क्या भारत संवाद से भाग रहा है?
हर असहमति को विरोध मानना एक खतरनाक सोच है. आलोचना से डरना कमजोरी है, न कि ताकत. जब सरकारें विरोध को दुश्मनी और नफरत को राष्ट्रवाद मानने लगती हैं, तो दूरियां स्वाभाविक हो जाती हैं. लोकतंत्र की आत्मा संवाद है. संवादहीनता सिर्फ राजनैतिक विफलता नहीं, बल्कि सामाजिक विघटन को जन्म देती है. हर सवाल को दुश्मनी मानने की प्रवृत्ति लोकतंत्र की नींव को कमजोर करती है.
नया भारत बने- जो ताकतवर हो, पर कोमल भी. जो निर्णायक हो, पर संवेदनशील भी.
अगर आज हर तरफ संदेह है, तो समाधान भी हमारे ही भीतर है. हमें रिश्तों को फिर से बुनना होगा. शब्दों से नहीं- आचरण से. राष्ट्र की शक्ति केवल मिसाइलों या अर्थव्यवस्था में नहीं, बल्कि उसके नागरिकों की संवेदनशीलता में भी होती है. नया भारत तभी बनेगा जब वह शक्ति के साथ-साथ करुणा, सह-अस्तित्व और समरसता को अपनाएगा.
मैत्री की राह कठिन हो सकती है, लेकिन वह ही एकमात्र रास्ता है.
मैत्री एक आंतरिक मूल्य है, केवल रणनीति नहीं. यह संकल्प मांगती है, साहस और धैर्य भी. आज के जटिल अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में, अगर कोई राह टिकाऊ है तो वह सहयोग की है. भारत को अपने कूटनीतिक आचरण में अधिक लचीलापन, संवाद और भागीदारी को स्थान देना होगा, ताकि संबंधों की बुनियाद मजबूत हो. "भारत प्रथम, फिर पड़ोसी" की जगह "पड़ोसी पहले, फिर हम" की नीति अपनानी होगी.