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नुक़्ते के हेर-फेर से खुदा जुदा हो गये

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बैजनाथ मिश्र


अभूतपूर्व से भूतपूर्व बन गए हैं उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़. एक हफ्ता बीत गया उन्हें इस्तीफा दिये हुए. लेकिन न वह कुछ बोल रहे हैं, न सरकार. खबर सिर्फ इतनी है कि उनकी सेहत इतनी खराब हो गई थी कि संसद के चलते सत्र में वह सभापति (उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होता है) का बोझ उठाने में असमर्थ हो गये थे. लेकिन उनका इलाज कौन कर रहा है, कहां हो रहा है, इस बारे में न तो वह कुछ बता रहे हैं, न सरकार की ओर से कोई सूचना मिल रही है.

 

न तो उनका विदाई भाषण हुआ, ना ही कोई समारोह आयोजित हुआ. इसलिए बहुरंगी मीडिया में मनोहर कहानियां और सत्यकथाएं परोसी जा रही हैं. उनमें कितनी सत्यतता है या कितनी कपोल कल्पना की उड़ान अथवा लफ्फाजियां, इसके बारे में सिर्फ धनखड़ साहब बता सकते हैं या फिर सरकार. लेकिन इतना तय है कि उन्होंने इस्तीफा दिया नहीं है, उनसे इस्तीफा लिया गया है. वह तो दो हफ्ते पहले 2027 अगस्त में अपने विधिवत रिटायरमेंट की घोषणा कर रहे थे. 

 

धनखड़ ने राज्यसभा सदस्य घनश्याम तिवाड़ी की एक कहावत को सदन में अपने हिसाब से उद्धृत करते हुए कहा था कि अनपढ़ जाट पढ़े-लिखे के बराबर होता है और पढ़ा-लिखा जाट खुदा के समान होता है. वह जाट तो हैं ही और काफी पढ़े लिखे भी हैं. इसलिए वह खुदा बन गये थे. वह ज्युडिशियल एक्टिविज्म और राजनीतिक गतिविधियां साथ-साथ चला रहे थे.

 

वह न्यायपालिका पर लगातार हमले बोल रहे थे. इससे सरकार असहज थी. सरकार न्यायपालिका से टकराव नहीं चाहती है. कोई भी सरकार नहीं चाहेगी. न्यायपालिका को लग रहा था कि संवैधानिक पद पर बैठे धनखड़ के जरिये सरकार ही सबकुछ कर करा रही है. लेकिन धनखड़ बेलगाम स्वेच्छाचारी बन गये थे. वह मंत्रियों को कह देते थे कि नन कैन डेयर टू डिक्टेट मी. 

 

उनके सिर पर प्रोटोकोल का भूत भी सवार हो गया था. कायदे से वह देश के दूसरे संवैधानिक पद पर थे. प्रोटोकॉल के हिसाब से प्रधानमंत्री तीसरे नंबर पर आते हैं. लेकिन व्यावहारिक रुप से प्रधानमंत्री पहले नंबर की सुविधाएं प्राप्त करते रहे हैं. धनखड़ साहब इससे खिन्न थे. वह अपने काफिले में प्रधानमंत्री सरीखा लाव लश्कर चाहते थे. सरकारी कार्यालयों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के साथ अपनी यानी उपराष्ट्रपति की भी तस्वीर देखना चाहते थे. वह उम्दा गाड़ियों और विदेश यात्रा पर भी बेहतर जहाज के आकांक्षी थे. 

 

वह अमेरिकी उपराष्ट्रपति बैंस के साथ गुफ्तगू के लिए तड़प उठे थे, जबकि वह अपने राष्ट्रपति का संदेश प्रधानमंत्री को पहुंचाने आए थे. ईरान के दिवंगत राष्ट्रपति की मातमपूर्सी पर गये तो वहां बेहतर होटल और गाड़ी के लिए भारतीय दूतावास के अधिकारियों पर बिफर पड़ें. वह सार्वजनिक मंचों से सरकार की आलोचना करने लगे थे. कृषि मंत्री शिवराज सिंह को तो भरे मंच से नसीहत ही दे डाली. वह किसान नेता बन रहे थे. जाटों को संगठित कर रहे थे. वह संसद टीवी के अघोषित मालिक और संपादक बन बैठे थे. 

 

 

उनकी नजदीकियां अरविंद केजरीवाल से भी बढ़ गई थी. केजरीवाल उन्हें दूसरा अन्ना हजारे बनाकर भाजपा के खिलाफ इस्तेमाल करने की योजना बना रहे थे. विपक्षी नेताओं से उनकी बनने-छनने लगी थी. विपक्ष ने उनकी कार्यशैली से आहत होकर पिछले दिसंबर में उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया था. लेकिन विपक्ष के कुछ नेता उनकी रुखसती से आहत हैं. 

 

खबर तो यह भी है कि वह चंद्रबाबू नायडू को मोदी सरकार से समर्थन वापसी के लिए कुछ नेताओं के जरिये उकसा रहे थे. वह कोटा (राजस्थान) एक कार्यक्रम में गये तो ओम बिड़ला (लोकसभा स्पीकर) की जड़ों में मट्ठा डाल आए. बिड़ला वहीं से लगातार तीसरी बार सांसद हैं. धनखड़ साहब के ऐसे अफसाने हजारों हैं.

 

लेकिन उबाल बिंदु रहा जस्टिस यशवंत वर्मा के रिमूवल के लिए पेश किया गया प्रस्ताव. वह प्रस्ताव लोकसभा में पक्ष-विपक्ष के सांसदों के हस्ताक्षर से स्पीकर को दिया जा चुका था. लेकिन धनखड़ साहब ने सत्तापक्ष को बताए बिना विपक्षी सांसदों का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और उसकी घोषणा भी कर दी. इससे सत्ता पक्ष स्तब्ध रह गया. 

 

यह घटना मॉनसून सत्र के पहले दिन अपराह्न चार बजे की है. सवेरे ही उन्होंने मल्लिकार्जुन खड़गे को ऑपरेशन सिंदूर पर बहस के प्रस्ताव के बहाने गैर जरुरी भाषण करवा लिया. इस पर जेपी नड्डा बिफर गये थे. ऊपर से शाम वाली घटना. इसलिए धनखड़ की बुलायी बैठक में न नड्डा गये ना किरेन रिजिजू. बैठक अगले दिन के लिए टाल दी गई. 

 

कांग्रेस नेता जयराम रमेश के ट्वीट पर गौर करें तो वह शाम पांच बजे तक धनखड़ जी के साथ थे. फिर सात बजे उन्होंने उन्हें फोन क्यों किया ? शायद वह यह चाहते थे कि यशवंत वर्मा के साथ जस्टिस शेखर यादव का मामला भी जोड़ दिया जाये, जिनके खिलाफ विपक्ष फरवरी में ही प्रस्ताव दे चुका था और धनखड़ ने तकनीकी आधार पर उसे रोक दिया था. हालांकि शेखर यादव को सुप्रीम कोर्ट से क्लीन चिट मिल चुकी है और उन पर भ्रष्टाचार का आरोप भी नहीं है. उन पर मिसकंडक्ट का आरोप था जो उनके रिमूवल का आधार नहीं है. 

 

फिर क्या था ! सरकार सक्रिय हुई. धनखड़ के पास संदेश भेजे गये. वह नहीं माने. फिर उनसे कहा गया कि इस्तीफा दे दीजिए नहीं तो अविश्वास प्रस्ताव से हटा दिया जाएगा. इसलिए खुदा बन बैठे धनखड़ को इस्तीफा देना पड़ा. इसके लिए उन्होंने अपनी सेहत का बहाना बनाया. वह आनन-फानन राष्ट्रपति भवन पहुंचे, बिना पूर्व सूचना के. इसलिए आधा घंटा इंतजार करना पड़ा. राष्ट्रपति आयी, इस्तीफा लिया और काम तमाम. न किसी ने मनाया न सान्त्वना दी. इसे कहते हैं बड़े बेआबरु होकर कूचे से निकलना. 

 

भारत के संसदीय इतिहास की यह पहली घटना है और उम्मीद है कि यह अंतिम ही रहे. यह रिकॉर्ड टूटे नहीं. यही होता है जब अहंकार और लोभ का सम्मिश्रण का नशा किसी को विचारशून्य बना देता है. वह भूल गये थे कि जिसने उन्हें बनाया है, वह उन्हें हटा भी सकता है. इसलिए लक्ष्मण रेखा नहीं लांघनी चाहिए थी. 

 

 

 

इन्हीं हालात पर किसी ने ठीक ही कहा है- 

जिन पत्थरों को हमने तराशा सनम

वे खुदा बन गये देखते-देखते.

 

 

अब ये खुदा जुदा हो गये हैं. सिर्फ एक फैसले (नुक़्ते) के हेर-फेर से. देखना है कि वह कब मुंह खोलते हैं, खोलते हैं तो क्या बोलते हैं, कितना एसिड फैलाते हैं और नरेंद्र मोदी सरकार और उनकी पार्टी को कितना जलाते हैं. 

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