बड़ी सख्त जान है हिन्दी की. पूरे साल हम कितना इसे खत्म करने की कोशिश करते हैं फिर ज़िंदा हो जाती है. कितना मज़ाक उड़ाते हैं – हिन्दी दिवस मनाने का क्या औचित्य है? बताइए इंग्लिश डे मनाया जाता है क्या? हर साल पितृपक्ष में ही हिन्दी पखवाड़ा क्यों होता है? हिन्दी का श्राद्ध करते हैं क्या? -वगैरह वगैरह. लेकिन हिन्दी है कि बेशर्मी से जिए जा रही है बल्कि मुटाती जा रही है. यहां तक कि हिन्दी की कहावत से ही जवाब भी दे देती है -गिद्धों के कोसने से कहीं ढोर मरते हैं. कितनी कोशिश की आज़ादी की लड़ाई के समय से ही कि हिन्दी और उर्दू अलग है. हिन्दी हिन्दुओं की है उर्दू मुसलमानों की है लेकिन न जाने कहां कहां से निकाल ले आए -अमीर खुसरो, कबीर, रहीम,रसखान – तुलसीदास के रामचरितमानस तक में उर्दू के कई शब्द खोज लिए. और एक था वह गांधी – गुजराती होकर हिन्दी हिन्दी करता रहता था. जोर लगा दिया कि हिन्दी ही राष्ट्रभाषा हो सकती है. बल्कि तमाम दक्षिण भारतीयों को, बांग्ला भाषियों को भी राज़ी करवा लिया हिन्दी के नाम पर. एकदम एंग्री यंगमैन की तरह कह दिया कि दुनिया वालो को बता दो, गांधी अंग्रेजी नहीं जानता है और देश भर के लोगों से हिन्दी में बतियाने लगा.
तब तो इतना जरिया भी नहीं था – न टीवी चैनल, न सोशल मीडिया, लेकिन एक आवाज पर दूर दराज के गांव के लोग भी अनशन करने लगते थे. कहते हैं कि इसमें हिन्दी का भी बड़ा हाथ था. हिन्दी वाले बड़े शातिर होते हैं – अंग्रेजों को कम परेशान थोड़े ही किया – ऐसी ऐसी विस्फोटक कविताएं कहानियां लिखी कि जनता एकदम बेचैन हो गई. भगाकर ही दम लिया. हालांकि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने नहीं दिया अभी तक. राह में रोड़े भी अटकाने रहते हैं लेकिन… विज्ञान तकनीक कानून आदि ने अभी किले ढहने नहीं दिए हैं. दिमाग में तो बिठाया है कि हिन्दी में यह सब नहीं हो पाएगा. कुछ हिन्दी वाले भी लगे हैं कि हिन्दी ज़्यादा नहीं बढ़े. ऐसा अनुवाद, ऐसे ऐसे शब्द कि जीभ अकड़ जाए. एक हिन्दी का अंडरवर्ल्ड भी है जो हिन्दी के नाम पर विदेश यात्राएं करते रहते हैं. लेकिन लोगों का क्या किया जाए? बाज़ार तो नहीं मानता है न. उसे तो बस एक सौ चालीस करोड़ उपभोक्ता, ग्राहक नज़र आते हैं जो दुर्भाग्य से हिन्दी बोलते समझते हैं. जिसके टेंट में पैसा, जैसा बोले वैसा. टीवी, सिनेमा सबने अलग हिन्दी फैला रखा है. मजबूत देश की एक भाषा होनी है और यह हिन्दी होगी यह तय है. कितनी भी कोशिश कर लें लगता है हिन्दी मारे नहीं मरेगी.