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इतिहास अपने को दुहराता भी है

Prem Kumar Mani कार्ल मार्क्स की एक उक्ति है `इतिहास अपने को दुहराता है, पहले त्रासदी बन कर, फिर प्रहसन बन कर` (History repeats itself; first as a tragedy, second as a farce.)  यह उक्ति लगभग मुहावरा बन चुकी है. कल पटना में प्रशांत किशोर के सत्याग्रह को लेकर दिनभर का जो राजनीतिक ड्रामा हुआ उसके बीच यह उक्ति मुझे याद आई. ड्रामा शब्द का इस्तेमाल मैंने जान-बूझ कर किया है. घटनाक्रम को देख कर ऐसा प्रतीत होता था, मानो सब कुछ एक लिखे हुए स्क्रिप्ट के अनुसार हो रहा हो. चार बजे भोर में प्रशांत किशोर का पकड़ा जाना, दिन भर इधर-उधर टहलाना, कोर्ट द्वारा हस्तक्षेप, पहले सशर्त, फिर बिना शर्त जमानत और आखिर में रात के आठ बजे की प्रेसवार्ता. प्रशांत का अनशन युवा अभ्यर्थियों की उस मांग के समर्थन में है, जिसमें बिहार लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा को रद्द करने की मांग की गई है. घटना पटना स्थित बापू सभागार परीक्षा केंद्र से जुडी है, जहां बहुत देर से प्रश्नपत्र वितरित किये गए और परीक्षार्थियों को अतिरिक्त समय नहीं दिया गया. पूरा मामला प्रथम दृष्टया आयोग की नाकामी को दर्शाता है. और जैसा कि फिराक साहब की एक पंक्ति है ` बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी…` यह बात भी दूर तक गई. लोक चर्चा में आयोग और दूसरी प्रतियोगिता परीक्षाओं में धांधली, घूसखोरी से लेकर करोड़ों नौजवानों की कई स्तरों पर हो रही तबाही तक गई. राजनीतिक गलियारों में इस बीच एक दूसरा ही ड्रामा चल रहा था कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा. परीक्षा रद्द करने की मांग कर रहे छात्रों पर इस बीच पुलिस ने डंडे बरसाए. बिहार में भीषण शीतलहर चल रही है, लेकिन नौजवान अपनी मांग को लेकर अड़े हुए हैं. इन्हीं युवाओं की मांग के समर्थन में प्रशांत गांधी मैदान में अनशन पर बैठ गए. और फिर वहीँ से पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया. किसी को भी घटना छोटी लग सकती है. एक परीक्षा को रद्द करने का मामला. देश समाज में इतनी सारी समस्याएं हैं. यह तो कोई बड़ा मसला नहीं है शायद लोगों को लग रहा हो यह यूं ही टांय-टांय फिस्स हो जाएगा ! लेकिन मैं अपनी ही स्मृति की कुछ घटनाओं को देख रहा हूं. पहली घटना 1968 की है, जो फ्रांस की है. मई महीने में पेरिस यूनिवर्सिटी के दर्जन भर छात्रों को लगा कि उनका क्लास रूम बहुत छोटा है. दरअसल, जितने छात्रों के लिए ही कक्ष बना था, उससे कहीं अधिक छात्रों का उस सत्र में नामांकन हुआ था. इसलिए कक्ष छोटा पड़ गया. इसे लेकर छात्रों की मांग को जब अनसुना कर दिया गया, तब एक आंदोलन खड़ा हो गया. यह आंदोलन कोई दो महीने चला. प्रसिद्ध लेखक ज्यां पॉल सार्त्र उस आंदोलन से जुड़े और उस का नेतृत्व किया. धीरे-धीरे यह आंदोलन मध्यवर्ग का आंदोलन बन गया. इसमें मांगें जुड़ती गयीं. सुना है जयप्रकाश नारायण इस आंदोलन का बारीकी से अध्ययन कर रहे थे. यह संयोग ही था कि कुछ वर्ष बाद 1973 में  अपने देश के गुजरात प्रान्त में ऐसी ही घटना शुरू हुई. दरअसल बिहार आंदोलन इसी का विस्तार था. दुर्भाग्यपूर्ण है कि गुजरात आंदोलन का ऐतिहासिक अध्ययन उस तरह नहीं हुआ, जैसे बिहार आंदोलन का हुआ. उस आंदोलन को नवनिर्माण आंदोलन कहा गया था, जो कि सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से कहीं अधिक अर्थपूर्ण था. लेकिन जयप्रकाश नारायण के व्यक्तित्व और बाद में आपातकाल की घटनाओं ने इतिहास में जेपी को अधिक स्पेस दे दिया. इतना अधिक कि नवनिर्माण आंदोलन का महत्त्व दब गया. गुजरात आंदोलन का आरम्भ 20 दिसम्बर 1973 को हुआ, जब मोरबी इंजीनियरिंग कॉलेज के मैकेनिकल ब्रांच के 40 छात्रों ने छात्रावास के मेस चार्ज में अचानक हुई बीस फीसदी बढ़ोतरी के खिलाफ कॉलेज प्रशासन से एतराज जताया और कक्षाओं का वहिष्कार किया. कॉलेज प्रशासन ने इन छात्रों के खिलाफ कार्रवाई की. इन छात्रों के समर्थन में कुछ दूसरे कॉलेजों में प्रदर्शन हुए. उस वक्त राज्य में चिमनभाई पटेल के नेतृत्व की कांग्रेस की सरकार थी. 1972 के विधानसभा चुनाव में कुल 167 में 140 सीटें जीत कर कांग्रेस ने रिकॉर्ड बहुमत हासिल किया था. लेकिन बांग्लादेश युद्ध और कुछ दूसरे कारणों से देश में महंगाई पर काबू पाना कठिन हो गया था. खाद्य सामग्रियों की अचानक से हुई महंगाई के कारण ही मेस चार्ज बढ़ाया गया था. लेकिन छात्रों की अपनी लाचारी थी. उनके माता-पिता अधिक पैसे भेजने में असमर्थ थे. प्रायः होता है कि राजनेता सामाजिक-आर्थिक समस्याओं की गहराई में नहीं जा कर उसका पुलिसिया समाधान ढूंढने लग जाते हैं. गुजरात में यही हुआ था. 1968 की फ्रांसीसी घटनाओं से उत्साहित जयप्रकाश नारायण ने गुजरात आंदोलन में दिलचस्पी ली. उन्होंने यूथ फॉर डेमोक्रेसी शीर्षक से युआओं के नाम एक खुला खत लिखा. इससे गुजरात आंदोलन देशव्यापी चर्चा का विषय बन गया. 29 जनवरी 1974 को कुछ आंदोलनकारी छात्रों पर मीसा (भारत सुरक्षा कानून) के तहत मुकदमा दर्ज करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिए गया. स्थितियां तेजी से बिगड़ती गयीं. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को दिल्ली तलब किया और उन्हें इस्तीफा देने को कहा. 9 फरवरी 1974 को चिमनभाई ने इस्तीफा दे दिया. लेकिन स्थिति संभली नहीं. इस बीच विपक्ष को अवसर मिल गया. 15 फरवरी को संघटन कांग्रेस के सभी पंद्रह विधायकों ने इस मांग के साथ इस्तीफा दे दिया कि विधानसभा भंग की जाय और नया जनादेश लिया जाय. कुछ दिनों में इस्तीफा देने वाले विधायकों की संख्या 95 तक पहुंच गयी. 12 मार्च 1974 को संघटन कांग्रेस नेता मोरारजी देसाई विधानसभा भंग करने की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठ गए. 16 मार्च 1974 को गुजरात विधानसभा भंग कर दी गई. जून 1974 में चुनाव हुए. इस बार संघटन कांग्रेस, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी और सोशलिस्ट संगटनों ने मिल कर जनता मोर्चा बनाया और चुनाव लड़ा. इसी मोर्चे को बहुमत (167 में 88 सीटें) मिला. कांग्रेस सिमट कर 75 पर आ गई. बाबूभाई पटेल नए मुख्यमंत्री बने. 16 मार्च 1974 को गुजरात विधानसभा भंग की गई थी. 18 मार्च 1974 से बिहार आंदोलन की शुरुआत थी. यह सब आकस्मिक भी नहीं था. कम्युनिस्टों के इस कथन में दम था कि बिहार आंदोलन में आरएसएस, जनसंघ की अग्रणी भूमिका थी. दरअसल, भूमिका पूरे विपक्षी दलों की थी जो 1971 के लोकसभा और 1972 के प्रांतीय विधानसभा के चुनाव में बुरी तरह पिट गए थे. जनसंघ इससे अलग कैसे रहता. कोई देख सकता है कि बिहार आंदोलन ठीक-ठीक गुजरात आंदोलन के नक्शे कदम पर चला. यहां तक कि 1977 में गुजरात के जनता मोर्चा की तर्ज पर ही जनता पार्टी का गठन भी हुआ. इंदिरा गांधी ने बिहार में विधानसभा भंग न करने की मांग को केवल इसलिए नाकारा था कि वह गुजरात वाली जल्दीबाजी नहीं करना चाहती थीं. मैंने उपरोक्त वृतांत इसलिए दिए कि आप विचार कर सकें कि कैसे कोई छोटी-सी घटना भी बड़ी राजनीतिक घटना में तब्दील हो जाती है. बिहार के परीक्षार्थी छात्रों की यह मांग छोटी हो सकती है कि परीक्षा रद्द कर फिर से आहूत की जाय. लेकिन ऐसा लगता है कि स्थितियां इसे एक राजनीतिक घटना में तब्दील करने के लिए विवश हैं. मैं इसे गंभीरता से लेने के पक्ष में हूं. डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.
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