Dr. Mukund Ravidas
“जे नाची से बाची” यह कथन झारखंडियों की जुबान पर तो है ही, साथ ही साथ ढोल मांदर की थाप, दूर से बजते नगाड़े की धुन और मधुर स्वर में बांसुरी बजाते हुए घुंघराले लंबे बालों वाले राम दयाल मुंडा की छवि आज भी लोगों के हृदय में बसी हुई है. डॉ. राम दयाल मुंडा का बरबस नाम लेते ही यह छवि आंखों के आगे घूमने लगती हैं. झारखंड की भाषा संस्कृति के प्रति लोगों में स्वाभिमान जाग्रत कराने वाले डॉ. राम दयाल मुंडा का जन्म 23 अगस्त 1939 ई. को झारखंड की राजधानी रांची से करीबन साठ किलोमीटर सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्र ‘तमाड़’ नामक एक गांव में हुआ था. इनके पुत्र का नाम ‘गुंजल इकिर मुंडा ‘ है. डॉ. मुंडा की छवि विशेषकर आदिवासी हक एवं अधिकारों के लिए एक जुझारू, संघर्षशील, नेतृत्व कर्ता के साथ साथ झारखंड की लोक कला, संस्कृति के वाहक के रूप में जाने जाते हैं और यह छवि न केवल राष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है. राम दयाल मुंडा का संपूर्ण जीवन झारखंड की लोक-कला एवं संस्कृति को बचाने तथा पहचान दिलाने को लेकर समर्पित रहा. उनका यह कथन बहुत प्रसिद्ध हुआ “जे नाची से बाची”. देखा जाए तो यह केवल एक नारा ही नहीं है, बल्कि इस उक्ति में झारखंड की संस्कृति का संपूर्ण जीवन दर्शन समाहित है. साथ ही साथ झारखंड की लुप्त होती परंपराएं, संस्कृति, प्रकृति से लगाव, आदिवासी कला-कृति, पाक पाकवान, वेश भूषा, लोक गीत-नृत्य, पर्व- त्योहार, खान-पान आदि की सुरक्षा के लिए जागने और जगाने की जरूरत पर ही विशेष बल दिया गया है. इसलिए भी उन्होंने कहा था कि “हम जागेंगे तो नाचेंगे और नाचेंगे तो ही पाएंगे.”
डॉ. राम दयाल मुंडा की झारखंडी लोक संस्कृति के उन्नायक के रूप में भी विशिष्ट पहचान है. वे एक सफल शिक्षा शास्त्री, समाज शास्त्री के साथ ही साथ लेखक और कलाकार भी थे. उनकी प्रारंभिक शिक्षा तमाड़ में ही अमलेसा लूथरन मिशन स्कूल में हुई थी तथा हाई स्कूल तक पढ़ाई उच्च विद्यालय खूंटी से हुई. उच्च विद्यालय की शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात 1963 ई.में रांची विश्वविद्यालय रांची से ही ‘ मानव विज्ञान’ विषय से स्नाकोत्तर की शिक्षा प्राप्त करने के बाद शोध अध्ययन के लिए शिकागो विश्वविद्यालय अमेरिका चले गए. वहां से भाषा विज्ञान में पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात 1968 से 1971ई. तक दक्षिण एशियाई भाषा एवं संस्कृति विभाग में भी विशेष रूप से शोध अध्ययन कार्य किया. डॉ. राम दयाल मुंडा की प्रमुख रचनाएं हैं -आदि धर्म, सरहुल मंत्र, बहा बोंगा, विवाह मंत्र, दुरानगको, हिसिर, सेलेंद, आदिवासी अस्तित्व और झारखंडी अस्मिता के सवाल आदि के साथ-साथ अन्य अनुवादित संग्रह भी हैं. डॉ. मुंडा एक महान शिक्षाविद व विविध भाषी विद्वान थे. झारखंडी भाषाओं में मुंडारी, नागपुरी, पंचपरगनियां आदि क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा के विशेष विद्वान थे. इन्होंने पद्य साहित्य के साथ साथ गद्य साहित्य में विभिन्न विधाओं में रचनाएं की हैं. झारखंड की लोक कला संस्कृति में इनके बहुमूल्य योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है.
लोक संस्कृति को वे मानव जीवन की सबसे बड़ी संपत्ति मानते थे, क्योंकि संस्कृति ही मानव को सामाजिक प्राणी बनाती है और जीवन की समग्रता हमें संस्कृति से ही मिलती है. लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह मानव निर्मित है. संस्कृति ही हमें बेहतर जीवन जीने की प्रेरणा भी देती है. डॉ. राम दयाल मुंडा आदिवासी, दलित, शोषित, पीड़ित समाज की आवाज थे तथा इनके हक व अधिकारों के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे. साथ ही साथ शिक्षा को सर्वोच्च स्थान देते हुए लोगों को शिक्षित होने के लिए जन जागरण अभियान चलाते रहे. 09 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाने में भी मुंडा जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.
1980 ई में अमेरिका से अध्यापक की नौकरी छोड़कर रांची चले आए तथा यहां के दबे कुचले आदिवासी, दलित, शोषित, पीड़ितों की आवाज बनकर सभी के हृदय की धड़कन बन गए. रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, रांची से जुड़कर जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं की पहचान दिलाते हुए लोक संस्कृति को संरक्षित करने हेतु आजीवन लोगों का मनोबल बढ़ाते रहे. रांची विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर भी आसीन हुए. 1987 ई में सोवियत संघ में आयोजित भारत महोत्सव में ‘पाइका ‘ नृत्य का नेतृत्व भी किया था. 1990 ई में राष्ट्रीय शिक्षा नीति आकलन समिति के सदस्य भी मनोनीत किए गए थे. 1991 से 1998 ई तक झारखंड पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष भी रहे. 2010 ई में उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया था.
30 सितंबर 2011ई. झारखंड का एक सूरज हमेशा हमेशा के लिए अस्त हो गया. डॉ. मुंडा आदिवासी चिंतक वेरियार एल्विन का हमेशा उदाहरण दिया करते थे और लोगों को समझाया करते थे कि आदिवासियों के विकास के लिए मुख्य रूप से तीन मार्ग हैं, जिन्हें अपनाने की जरूरत है -अपने रीति-रिवाजों के साथ अलग रहो, मुख्य धारा के स्थापित धर्मों के साथ घुल-मिल जाओ, उनकी संस्कृति को अपना लो, अपनी शर्तों के साथ ही विकास की मुख्य धारा में शामिल हो जाओ. डॉ. मुंडा तीसरे मार्ग के समर्थक माने जा सकते हैं जो उनकी क्रिया कलापों में भी दिखाई पड़ती है. अतः यह कहना न होगा कि डॉ. राम दयाल मुंडा का संपूर्ण जीवन झारखंड की कला-संस्कृति में ही रचा बसा हुआ था, उनके जीवन का हर राग-लय झारखंड के लिए ही था.
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
Leave a Reply