alt="" width="600" height="400" /> लूट थोड़ी और बढ़ेगी. आहिस्ता-आहिस्ता गला रेता जाएगा. इसलिए तेल के दाम में 30, 50, 80 पैसे की बढ़ोतरी पर शोक न मनाएं. 60% वोट फिर भी बीजेपी को ही मिलेंगे. यही पॉजिटिविटी अवाम को बीजेपी की तरफ झुकाए हुए है. भारत को अभी और नीचे गिरना है - लेकिन गिरते हुए भी यह सोच कि हम नीचे गिरकर भी टॉप पर रहेंगे - क्योंकि हमारा नज़रिया स्केल को उल्टा देखने का है. जैसी की उम्मीद थी- संपादक जी का जवाब था- देश तरक्की कर रहा है. ज़ाहिर है, उनकी नौकरी बची है. कार, मकान का लोन जा रहा है. बच्चों की फ़ीस, घर का राशन भी. संपादक जी भी भारत के उन 8.5 करोड़ नौकरीपेशा लोगों में है, जो तनख्वाह पाते हैं. 140 करोड़ में से 10 करोड़ की आबादी से गुलज़ार है देश का विकास. संपादकजी 10-20$ से ज़्यादा की दिहाड़ी कमाते हैं. ऊपरी दलाली अलग से. सो वे भारत के 6.6 करोड़ मध्यम वर्ग में भी नहीं आते, जो कोविड के दौर से पहले 13.4 करोड़ हुआ करते थे. लाज़िम है कि उनका विकास हुआ है. वे 50$ रोज़ाना कमाने वाले तबके से आते हैं, जिनके लिए तेल, अनाज, फल-सब्ज़ियों के दाम बढ़ना ज़्यादा मायने नहीं रखता. दलाली के कमीशन में 1% का इज़ाफ़ा सब एडजस्ट कर देता है.
alt="" width="600" height="400" /> मतलब, भारत की 20 करोड़ आबादी के लिए देश खुशहाल है. तरक्की कर रहा है. 20 करोड़ मूर्ख, बहके हुए, भक्त, धर्मांध लोगों को और मिला लें तो 40 करोड़ की आबादी मज़बूती से तमाम तथ्यों, आंकड़ों, दलीलों को खारिज़ कर एक ऐसे व्यक्ति के साथ खड़ी है, जो इत्तेफ़ाक से देश का प्रधानमंत्री है.
alt="" width="600" height="400" /> इतना सब सुनने के बाद तमतमाये संपादक जी का कहना था- तुम नहीं सुधर सकते. तकरीबन यही क्लोजिंग स्टेटमेंट आपको हर उस व्यक्ति से सुनने को मिलेगा, जो धार्मिक श्रेष्ठता की अफीम खाकर सुन्न हो चुका है. मुझे यकीन है कि मुझे फ़ोन लगाना संपादक महोदय की आखिरी ग़लती थी, जो फ़िर दोहराई नहीं जाएगी. वे भी मुझे अर्बन नक्सल, लिब्रांडू, कांगी, वामी, देशद्रोही वगैरह में से किसी एक से पहचानते ही होंगे. डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं. [wpse_comments_template]