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राज्य नाफरमानी पर उतरे - तो क्या मोदी के लिए खुद को तानाशाह के रुप में साबित करने का सही वक्त आ गया है!

Soumitra Roy
दिल्ली में हर शाम स्वास्थ्य मंत्रालय की ब्रीफिंग होती है- फ़र्ज़ी आंकड़ों के साथ. पूरा देश 4 हिस्सों में बंट गया है- एक जो ज़िंदा हैं, कोविड से बचे हैं. दूसरे वो जो कोविड संक्रमित हैं. तीसरे वो जो अस्पताल में या उसके बाहर मौत से जंग लड़ रहे हैं. और चौथे वे जो मरकर भी सम्मान पूर्वक विदाई के इंतज़ार में हैं.

तकरीबन हर चौथे घर में मायूस, ख़ौफ़ज़दा चेहरे नज़र आते हैं. इन हालात को हवा में यूं नहीं उड़ा सकते. जैसा कल प्रधानमंत्री और रोज़ स्वास्थ्य सचिव करते हैं. प्रधानमंत्री और उनकी जमात के झूठ और निकम्मेपन का पर्दाफ़ाश हो चुका है. देश के नाम संदेश में मोदी की लड़खड़ाती जुबां इस सच को बयां कर गई.

कोविड की पहली लहर में जो शख़्स खुद को सामने रखकर लड़ रहा था, उसने अब राज्यों के पाले में गेंद डालकर पीठ दिखा दी है. अवाम को अब समझ आ रहा है कि उसने एक ग़लत इंसान को सत्ता सौंप दी है, क्योंकि उनके अपनों की लाशें जल रही हैं.
कमोवेश यही हाल राज्य सरकारों का है. एमपी में बसों के किराए बेतहाशा बढ़े हैं. ऐसा आगे भी होगा. क्योंकि नए भारत में कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता. फ्री वैक्सीन की वसूली कहीं से तो होगी.

कोई नहीं जानता कि कोविड की दूसरी लहर कब थमेगी? अगर यह जून तक खिंचती है तो समझिए खेल खत्म. पहली और दूसरी लहर के बीच महज़ 60 दिन की मोहलत थी. तो तीसरी लहर शायद इतना भी वक़्त न दे. क्योंकि बंगाल में कल कोविड का नया स्ट्रेन पकड़ में आया है.
भारत का स्वास्थ्य तंत्र ध्वस्त है. भारत की सांसें टूट रही हैं. कहीं भी देखें, बस मौत का ही मंज़र है. अपनों को खो रहे लोग बदइंतज़ामी के लिए सरकारों को कोस रहे हैं. बाकियों को भी पता है कि कल उनकी भी बारी आ सकती है. जलती चिताएं लोगों को भविष्य दिखा रही हैं. लेकिन मोदी सरकार अब वैक्सीन बेचने पर उतर आई है.

हम जिस लोकतंत्र के झूठे ख़्वाब में जी रहे हैं, वह दरअसल सत्तावाद है. यह सत्तावाद इस समय दुनिया की 64% आबादी पर हुकूमत कर रहा है. हिटलर और मुसोलिनी ने इसे आहिस्ता से तानाशाही में बदल दिया था - सिर्फ फ़र्ज़ी नस्ली श्रेष्ठता के दावे पर. लोग झूम गए, पिस गए, ग़ुलाम बनकर मर भी गए.

हिटलर ने खुद को गोली मार ली और मुसोलिनी की लाश एक चौराहे पर उलटी टंगी थी. वह तानाशाह जिसकी सभाओं में बिना फोटोशॉप वाली भीड़ आती थी. मोदी भी भीड़ देखकर आपा खो बैठते हैं. शायद उन्हें सत्तावाद मज़बूत होता दिखता है. मगर, मौजूदा हालात में यही सत्तावाद आगे 2024 तक कैसे मज़बूत रहेगा? ये सवाल मोदी को भी जवाब तलाशने पर मजबूर कर ही रहा होगा. क्या उनके लिए अब खुलकर खुद को एक तानाशाह के रूप में स्थापित करने का वक़्त नहीं आ गया है?ये बड़ा सवाल है. उनकी ही अपनी सरकार की महंगी वैक्सीन को उनकी ही पार्टी की राज्य सरकारें मुफ़्त में बांटें तो इसे क्या कहेंगे? बगावत? जी हां.

लॉकडाउन के विकल्प को अंतिम मानने के प्रधानमंत्री के आग्रह के बाद भी राज्य बेधड़क लॉकडाउन लगाएं तो इसे क्या कहेंगे? उनकी ही पार्टी के राज्यों के नेता यही मांग करे या लागू करे, तो इसे क्या कहेंगे? नाफरमानी? जी हां.
भारत की जिस संघीय गणराज्य के रूप में परिकल्पना की गयी थी, वह टूटकर बिखर रहा है. मोदी और आरएसएस यही तो चाहते थे. केंद्र से उलट राज्यों की चाल कितने दिन चल सकेगी? राज्यों में सिकुड़ती बीजेपी-आरएसएस के एकाधिकारवाद को भी कहीं न कहीं चुनौती तो देती ही है.

यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि देश तेज़ी से राष्ट्रपति शासन व्यवस्था की तरफ बढ़ चला है. मोदी को ऐसा करना ही करना पड़ेगा. डंडे या फिर ज़रूरत पड़े तो गोली के जोर पर भी. क्योंकि उनका तिलिस्म टूट रहा है. बाकी बची ताक़त वे जख्मी दिलों में राष्ट्रवाद का एक आखिरी उफ़ान लाने में करना चाहेंगे.

लेकिन उससे पहले उन्हें अपनी अवाम को इस तरह से पीसना, कुचलना होगा कि वे आवाज़ न उठाएं, बल्कि दया की भीख मांगें. मोदी इस काम में बखूबी माहिर हैं. देश उसी दिशा में बढ़ रहा है.

डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.

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