Faisal Anurag
बंगाल में भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई हो रही है या फिर ममता बनर्जी की सरकार को अपदस्थ करने की कोशिश है. यह सवाल तब बेमानी होता जब सीबीआई की कार्रवाई पारदर्शी होती और नारदा मामले में किसी को भी बख्शा नहीं जाता और हर उसके खिलाफ कार्रवाई होती जिसके वीडियो पैसे लेते दिखे थे. लेकिन मुकुल राय और सुवेंदु अधिकारी को क्यों छोड़ दिया गया. साफ है कि इरादा शायद उस सरकार को अपदस्थ करने की है जिसने हाल ही में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के सपने को बुरी तरह ध्वस्त किया है. सीबीआई ने जिस तरह अब ममता बनर्जी को भी पक्षकार बनाने की अर्जी सुप्रीम कोर्ट में लगायी है उससे तो साफ है कि ममता बनर्जी की पार्टी की जीत ने भारी बौखलाहट पैदा कर दिया है. तृणमूल ने अब सीबीआई के खिलाफ ही एफआइआर दर्ज कराया है. यह विवाद राजनीतिक प्रतिद्वंदिता का एक कदम है, जिससे जांच एजेंसी की भूमिका को और ज्यादा सवालों से घेरते है.
सीबीआई चाहती है नारदा केस की सुनवाई हो दूसरे राज्य में
सीबीआई चाहती है कि नारदा मामले की सुनवाई किसी दूसरे राज्य में की जाए. सीबीआई का तर्क है कि ममता बनर्जी ने सीबीआई दफ्तर पहुंच कर कार्रवाई को बाधित करने का प्रयास किया.सीबीआई का तर्क सही हो सकता है, लेकिन जब उसकी कार्रवाई राजनीति से प्रेरित दिखने के हालात भी तो उसने ही पैदा किये हैं. यह तो हर दिन जाहिर होता है कि बंगाल के राज्यपाल किस तरह की भूमिका निभा रहे हैं. विधायकों को ले कर विधानसभा अध्यक्ष की भी भूमिका होती हे उसे जिस तरह नजरअंदाज किया गया उससे संदेह पुख्ता ही हुआ है. नारदा का विवाद कोई नया नहीं है और न ही सीबीआई को जांच का अधिकार ही अभी दिया गया है. चुनाव के पहले चुप्पी क्यों रही और ममता बनर्जी की जीत के बाद ही त्वरित कदम क्यों उठाया जा रहा है.
अभी ज्यादा समय नहीं गुजरा जब सुप्रीम कोर्ट ने ही सीबीआई को सरकार का तोता कहा था. लेकिन मामला अब केवल इसी तोते तक नहीं दिख रहा है. कर्नाटक चुनाव के समय सीबीआई ने कांग्रेस नेताओं पर ताबड़तोड छापे मारे. फिर जब कुछ कांग्रेस के विधायकों ने मुंबई पहुंच कर तब के महाराष्ट्र के भाजपा मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस की मेजवानी में एक फाइव स्टार होटल में ठहराए, तब भी सीबीआई सक्रिय हुई लेकिन उन नेताओं पर जो उस समय सरकार का हिस्सा थे और नाराज विधायकों को मनाने में लगे थे. इसमें डी के शिवकुमार प्रमुख नाम है. जब कभी कर्नाटक सरकार मुसीबत में फंसती है शिवकुमार के खिलाफ सीबीआई सक्रिय हो जाती है. ऐसे अनेक उदाहरण हैं.
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नरेंद्र मोदी और अमित शाह का यह एजेंडा तो साफ है यदि विधानसभा में कामयाबी नहीं मिली तो उसे दूसरे तरीकों से हासिल कर लिया जाए. हालांकि दिल्ली ही एकमात्र राज्य है जहां अब तक कामयाबी नहीं मिली है. बिहार में नीतीश कुमार की परिघटना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. यही नहीं महाराष्ट्र की ठाकरे सरकार को अपदस्थ करने को लेकर भाजपा नेताओं की सक्रियता थमने का नाम ही नहीं लेती. विपक्ष के साथ सहकार और सहयोग के दौर तो कब के पीछे छोड़े जा चुके हैं, भले ही प्रधानमंत्री बार-बार लोकतंत्र में आलोचना के महत्वपूर्ण होने का इरादा व्यक्त करते रहे हों.
अब निशाने पर बंगाल है. लेकिन राज्यपाल राजभवन से बाहर जिस तरह की भूमिका निभा रहे हैं उसमें उनका संवैधानिक दायित्व कम दिखता है. पिछले तीन सालों के उनके बयानों का यदि अध्ययन किया जाए तो उनके राजनीतिक इरादे स्पष्ट हो जाते हैं. बंगाल में चुनाव बाद हुई हिंसाग्रस्त इलाकों में किया दौरा यदि संवैधानिक तौर पर ऐसा दिखता तो राज्यपाल विवादों से बचते. वैसे भी जगदीप धनखड़ का विवाद से गहरा रिश्ता नया नहीं है. इस समय बंगाल कोरोना की भयावहता के दौर में है बावजूद बंगाल में सत्ता बचाने और उसे अपदस्थ करने का खेल ही खेला जा रहा है.
मैथ्यू सैम्युनल के जिस स्टींग आपरेशन को ले कर नारदा घोटाले में मंत्रियों रिश्वत लेने के तथ्य उजागर हुए उसमें तो सबसे बड़ी राशि मुकुल राय की बातचीत में दर्ज की गयी है. सुभेंदु अधिकारी जो अभी भाजपा विधायक दल के नेता बने हैं पांच लाख लेते हुए दिख रहे हैं. मैथ्यू ने सवाल किया है कि इन दोनों के खिलाफ एफआईआर क्यों दर्ज नहीं की गई है. तृणमूल के जिन नेताओं को गिरफ्तार किया गया हे वे भी तो उसी स्टिंग आपरेशन में दिख रहे हैं. इन दोनों के बीजेपी में शामिल होते ही सीबीआई ने उन्हें क्यों बख्श दिया. यदि बंगाल के लोग यह पूछ रहे हैं तो उन्हें इसका जबाव तो मिलना ही चाहिए. राजनीतिक मामलों में सीबीआई पारदर्शी जांच की भूमिका निभाने से बार-बार चुकाती क्यों नजर आती है, जबकि वह एक तरह की संवैधानिक संस्था है.
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