Dr. Pramod Pathak
हाल फिलहाल के रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के परिपत्र द्वारा घोषित ₹2000 के नोट का परिचालन नोट बंदी है या नोट वापसी यह बहस का मुद्दा नहीं. बहस का मुद्दा है इस फैसले का समग्र बाजार पर क्या प्रभाव पड़ेगा. इस बाजार का सबसे महत्वपूर्ण अंग होता है उपभोक्ता. आर्थिक नीतियों में सिर्फ तकनीकी परिभाषाएं बाजार को प्रभावित नहीं करतीं. बाजार को प्रभावित करती है उसकी सामाजिक मनोवैज्ञानिक संरचना. किसी भी आर्थिक नीति के बदलाव का इस बाजार पर क्या असर होगा यह उपभोक्ता की सोच और उसके व्यवहार पर निर्भर करेगा. और यह व्यवहार पूरी तरह से सामाजिक मनोवैज्ञानिक परिधि का विषय है. इसीलिए आज कल अर्थशास्त्र में मनोवैज्ञानिक व्यावहारिक पक्ष को अधिक महत्व दिया जाता है. इसी व्यावहारिक अर्थशास्त्र पर उनके शोध के लिए रिचर्ड थेलर को नोबेल पुरस्कार भी दिया जा चुका है. दरअसल शास्त्रीय अर्थशास्त्र में यह माना जाता रहा है कि उपभोक्ता जो है वह पूरी तरह से तार्किक होता है. लेकिन ऐसा नहीं है. बाद के शोध यह बताते हैं कि वह मनोभाव के प्रभाव में भी निर्णय लेता है. इस लिहाज से बहस तो इस बात पर होनी चाहिए कि अर्थव्यवस्था, विशेष कर मौद्रिक नीति, में इस तरह के औचक और जल्दी जल्दी किये गये फेरबदल उपभोक्ता की मनःस्थिति पर क्या प्रभाव डाल सकते हैं.
पिछली बार की नोटबंदी अभी भी लोगों के ज़ेहन में ताज़ा है. उस फैसले के बाद यह देखा गया था कि आम लोग एक प्रकार से आशंकित थे कि उनके पास जो 500 और 1000 के नोट थे, वह बर्बाद न हो जाए. यही नहीं, उन्हें यह भी चिंता थी कि आगे और क्या होगा. और यह चिंता सामान्य वर्ग के लोगों में ज्यादा थी. विशेष कर निम्न मध्यम वर्गीय लोगों में. क्योंकि उसकी तो खून पसीने से कमाई गई जमा पूंजी का सवाल था. गृहणियों ने घर खर्च के मद में मिले पैसों से पेट काटकर जो बचाए थे, उसके जाने की आशंका से चिंतित थीं. नोट बदलने की अफरा-तफरी और लाइन में लगे लोगों की बेचैनी यही दर्शाती थी. वे अपने बचाए हुए पैसों को खोना नहीं चाहते थे. यह काला धन तो नहीं था. नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था में बहुत हद तक एक अच्छे खासे अर्से के लिए अस्थिरता बनी रही.
काला धन कितना आया और अर्थव्यवस्था को कितनी मजबूती मिली यह बताना तो मुश्किल है, लेकिन कई उद्योग धंधे चौपट हो गए. कई रोजगार खत्म हो गए. यह धारणा पूरी तरह से भ्रामक है कि कैश इकॉनमी पूरी तरह से ब्लैक इकोनामी है. आज भी बहुत से लोग और धंधे नकद पर आधारित हैं. और पूरी तरह से कैशलेस अर्थव्यवस्था बनाना न तो संभव है और न ही तर्कसंगत. खासकर भारत जैसे देश में जिसकी 140 करोड़ आबादी में से डिजिटल लेनदेन में शायद एक बड़ा हिस्सा सक्षम नहीं होगा. जहां 90 प्रतिशत रोजगार धंधे असंगठित क्षेत्र के हों वहां यह उम्मीद करना भी अतिशयोक्ति होगी. घर का कामकाज संभालने वाली महिलाएं अपना अधिकतर कार्य नकद लेनदेन से ही करती हैं. और इसकी एक वजह तकनीकी दक्षता की कमी भी है. अभी लोग नोटबंदी को पूरी तरह भूल भी नहीं पाए थे कि रिजर्व बैंक की तरफ से एक नया निर्देश जारी हुआ ₹2000 के नोट को लेकर जिसको बाजार में आए मुश्किल से छः साल हुए. इस कदम का न तो घोषित उद्देश्य समझ में आया न ही अघोषित. यही नहीं एक बार फिर से लोगों के मन में आशंका बैठ रही है कि आगे क्या होगा. खासकर इस आलोक में कि हमारे देश में अशिक्षा और वित्तीय जागरूकता अभी भी काफी हद तक विद्यमान है. साथ ही किसी मजबूत सुरक्षा जाल के अभाव में भविष्य के प्रति आशंका लोगों में बचत की प्रवृत्ति बढ़ाती है.
आर्थिक नीतियां यदि लोगों में अविश्वास बढ़ाएं तो यह अर्थव्यवस्था के लिए भी ठीक नहीं और लोगों के हित के लिए भी. तमाम तरह की अफवाहें बाजार में चल रही हैं और इनका असर भोले भाले नागरिकों पर पड़ना स्वाभाविक है. मौद्रिक नीति अर्थव्यवस्था की एक मजबूत कड़ी है और इस पर लोगों का विश्वास बहुत जरूरी है. 2000 के नोट आज भी जनचेतना में नोट बंदी से जुड़े हैं और इतनी जल्दी इसका परिचालन रुकना एक प्रकार से लोगों को फिर से उसी तरह का अनुभव देगा. नीतियों का स्थायित्व बहुत जरूरी होता है. आर्थिक क्षेत्र में तो और भी ज्यादा. अर्थव्यवस्था के दूरगामी सेहत के लिए लोगों को नीतियों की स्थिरता पर विश्वास होना चाहिए. आर्थिक सुधार और उनके अपेक्षित परिणाम तभी मिलेंगे, जब लोग आर्थिक नीतियों के प्रति आश्वस्त रहेंगे.
वह विश्वसनीयता बचाए रखना ज्यादा जरूरी है. यदि आम आदमी को यह चिंता सताती रहेगी कि उसका पैसा सुरक्षित नहीं है तो इससे मौद्रिक मजबूती भी प्रभावित होगी और आर्थिक स्थिरता भी. रुपए का परिचालन अर्थव्यवस्था में तेजी लाता है लेकिन लोग खर्च तभी करते हैं, जब वे भविष्य को लेकर आश्वस्त हों. 2000 के सारे नोट काले धन के रूप में हैं यह सोच तो बिल्कुल ही भ्रामक है. बहुत से लोग 2000 के नोट इसलिए भी रखते हैं कि यात्रा में उन्हें लेकर चलने में सुविधा होती है. घरों में गृहणियां भी 2000 के नोट की शक्ल में सहूलियत के लिए पैसे रखती हैं. व्यावहारिक रूप से तो 2000 के नोट वैसे भी नहीं चल रहे थे. इस निर्णय का बहुत औचित्य नहीं था. नोटबंदी का विफल प्रयोग यह साबित कर चुका है कि काला धन इस तरह के नीतिगत फैसलों से नहीं निकाला जा सकता है. काला धन तो कई रूप में मिलता है. हर हिंदुस्तानी गलत तो नहीं हो सकता.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.