Pravin Kumar
Ranchi: यूं तो साल का पहला का दिन हर किसी के लिए खुशियों भरा होता है. लेकिन झारखंड में इसी दिन एक अमिट दाग लगा. साल था 1948. घटना इतनी भयावह थी कि इसे आजाद भारत का जलियावाला बाग कांड का नाम दे दिया गया. झारखंड के स्टील सिटी जमशेदपुर से करीब साठ किलोमीटर की दूरी पर आदिवासी बहुल कस्बा है खरसावां. भारत की आजादी के लगभग पांच महीने बीत जाने के बाद जब देश एक जनवरी, 1948 को आज़ादी के साथ-साथ नये साल के जश्न में डूबा था, तभी खरसावां में ‘आज़ाद भारत के जलियांवाला बाग कांड’ की घटना घटी.उस दिन साप्ताहिक हाट का था. ओडिशा सरकार ने पूरे इलाके को पुलिस छावनी में बदल दिया था. खरसावां हाट में करीब पचास हजार आदिवासियों की भीड़ पर ओडिशा मिलिट्री पुलिस गोली चला रही थी. इस घटना में कितने लोग मारे गये इस पर अलग-अलग दावे हैं. पुराने जानकारों की मौत के आंकड़े को लेकर अलग-अलग राय है. कोई एक हजार आदिवासियों के मारे जाने की बात करता है, तो कोई दो हजार आदिवासियों की मौत की बात करता है. वहीं तात्कालिक ओडिशा सरकार की ओर से मौत का आंकड़ा 32 बताया गया था. वहीं बिहार सरकार के आंकड़े में 48 लोगों की ही मौत बतायी गयी थी. लेकिन स्थानीय लोगों का मानना है कि करीब 2 हजार से ज्यादा लोगों की मौत खरसावां गोलीकांड में हुई थी.
घटना के तुरंत बाद ओड़िशा सरकार ने सिर्फ 35 आदिवासियों की मारे जाने की पुष्टि की. लेकिन पीके देव की एक पुस्तक ‘मेमायर ऑफ ए बाइगोर एरा’ (चेप्टर 6 पेज नंबर-123) में दो हजार से भी ज़्यादा आदिवासियों के मारे जाने का ज़िक्र है. कोलकाता से प्रकाशित अंग्रेज़ी दैनिक ‘द स्टेट्समैन’ ने 03 जनवरी 1948 के एक अंक मे छापा ’35 आदिवासीज़ किल्ड इन खरसावां.’
इस गोलीकांड का अभी तक कोई निश्चित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है. गोलीकांड की जांच के लिए ‘ट्रिब्यूनल’ का गठन भी किया गया था, मगर आज तक उसकी रिपोर्ट कहां है, ये किसी को नहीं पता. इस भयानक गोलीकांड के बाद खरसावां हाट में ‘शहीद स्मारक’ बनाया गया. हरे साल 01 जनवरी को बड़ी संख्या मे झारखंडी यहां इक्कठा होते हैं. खरसावां का यह ‘शहीद स्मारक’ झारखंड की राजनीति का एक बड़ा केंद्र भी माना जाता है.
‘खरसावां गोलीकांड’ हुए एक अरसा बीत गया. कई कमिटियां भी बनी और जांच भी हुई. लेकिन आज तक इस घटना पर कोई रिपोर्ट नहीं आया. ‘जलियांवाला बाग कांड’ के असल विलेन ‘जनरल डायर’ को तो पूरा विश्व जानता है, लेकिन ‘खरसावां गोलीकांड’ में मारे गए हज़ारों झारखंडियों की हत्या करने वाला असली डायर कौन था, इसपर आज भी पर्दा पड़ा हुआ है.
विलय का हो रहा था विरोध
स्वतंत्रता के बाद जब राज्यों का विलय किया रहा था, तो बिहार और ओडिशा में सरायकेला व खरसावां सहित कुछ अन्य क्षेत्रों के विलय को लेकर विरोध की स्थिती बन गयी थी. ऐसे समय क्षेत्र के आदिवासी अपने को स्वतंत्र राज्य या प्रदेश में रहने की इच्छा जाहिर कर रहे थे. 25 दिसंबर 1947 को चंद्रपुर जोजोडीह में नदी के किनारे एक सभा आयोजित की गयी थी. जिसमें ये तय किया गया था कि सिंहभूम को ओड़िशा में ना मिलाया जाये. बल्कि यह अलग झारखंड राज्य के रूप में रहे. दूसरी ओर सरायकेला खरसावां के राजाओं ने इसे ओडिशा में शामिल करने पर सहमति दे दी थी.
झारखंडी जनमानस खुद को स्वतंत्र राज्य के रूप में अपनी पहचान कायम रखने के लिए गोलबंद होने लगे थे. जिसके बाद ये तय हुआ कि एक जनवरी को खरसावां के बाजारताड़ में सभा आयोजित की जायेगी. उस सभा में जयपाल सिंह मुंडा भी शामिल होंगे. इस रैली और सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने आने की सहमती भी दी थी. जयपाल सिंह को सुनने के लिए तीन दिन पहले से ही चक्रधरपुर, चाईबासा, जमशेदपुर, खरसावां, सरायकेला के ग्रामीण क्षेत्रों के युवा, बच्चे, बूढ़े, नौजवान और महिला पैदल ही सभास्थल की ओर निकल पड़े थे.
अनाज और पारंपरिक हथियारों से लैस होकर पहुंचे थे हजारों आदिवासी परिवार
अपने साथ सिर पर लकड़ी की गठरी, चावल, खाना बनाने का सामान और बर्तन भी साथ में लेकर आये थे.एक जनवरी 1948, गुरुवार का दिन हाट-बाजार का था. आसपास की महिलाएं बाजार करने के लिए आयी थीं. दूर-दूर से आये बच्चों एवं पुरुषों के हाथों में पारंपरिक हथियार और तीर-धनुष थे. वहीं रास्ते में सारे लोग नारे लगाते जा रहे थे और आजादी के गीत भी गाये जा रहे थे.एक ओर राजा के निर्णय के खिलाफ पूरा कोल्हान सुलग रहा था, दूसरी ओर सिंहभूम को ओडिशा राज्य में मिलाने के लिए, ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय पाणी भी अपना षडयंत्र रच चुके थे. ओडिशा राज्य प्रशासन ने पुलिस को खरसावां भेज दिया. लेकिन पुलिस चुपचाप मुख्य सड़कों से न होकर अंधेरे में 18 दिसंबर 1947 को खरसावां पहुंची. इसमें शस्त्रबलों की तीन कंपनियां थी, जो खरसावां मिडिल स्कूल में जमा हुईं. आजादी के मतवाले इन बातों से बेखबर अपनी तैयारी में लगे थे. सभी ‘जय झारखंड’ का नारा लगाते हुए जा रहे थे और साथ ही ओडिशा के मुख्यमंत्री के खिलाफ भी नारा लगा रहे थे. झारखंड आबुव: उड़ीसा जारी कबुव: रोटी पकौड़ी तेल में, विजय पाणी जेल में – का नारा बुलंद किया गया. एक जनवरी 1948 की सुबह, राज्य की मुख्य सड़कों से जुलूस निकाला गया. इसके बाद कुछ नेता खरसावां राजा के महल में जाकर उनसे मिले और सिंहभूम की जनता की इच्छा बतायी थी.
इसपर राजा ने कहा कि इस विषय पर भारत सरकार से बातचीत करेंगे. दो बजे दिन से चार बजे तक सभा हुई. सभा के बाद आदिवासी महासभा के नेताओं ने सभी को अपने-अपने घर जाने को कहा. सभी अपने-अपने घर की ओर लौट गये. लेकिन कुछ लोग सभास्थल पर ही रुके रहे. सभा समाप्त होने के आधे घंटे के बाद बिना चेतावनी के गोलीबारी शुरू कर दी गयी. आधे घंटे तक गोली चलती रही. गोली चलाने के लिए आधुनिक हथियारों का भी प्रयोग किया गया. इस गोलीकांड में आदिवासी और मूलवासी कटे पेड़ की तरह गिरने लगे. घर लौटते लोगों पर भी ओडिशा सरकार के सैनिकों ने गोलियों की बौछार कर दी. इस गोलीकांड से बचने के लिए बहुत से लोग सीधे जमीन पर लेट गये. वहीं लोगों के भाग जाने के बाद भी सैनिकों की ओर से बेरहमी से गोलियां चलायी जाती रहीं. कई लोग जान बचाने के लिए पास के कुआं में भी कूद गये, जिसमें सैकड़ों लोगों की जान चली गयी.
महिला,पुरूष और बच्चों की पीठ पर दागी गईं गोलियां
महिला-पुरुषों के अलावा बच्चों की पीठ पर भी गोलियां दागी गयीं. यहां तक कि घोड़े, बकरी और गाय भी इस खूनी घटना के शिकार हुए. गोलियां चलने के बाद पूरे मैदान में लाशें बिछ गयी थीं. वहां कई घायल गिरे पड़े थे. लाशों को ओडिशा सरकार के सैनिक ने चारों ओर से घेर कर रखा था. सैनिकों ने किसी भी घायल को वहां से बाहर की ओर जाने नहीं दिया और घायलों की मदद के लिए भी किसी को अंदर आने की अनुमति नहीं दी. घटना के बाद शाम होते ही ओड़िशा सरकार के सैनिकों ने निर्ममता पूर्वक नरसंहार के सबूत को मिटाना शुरू कर दिया था. गोलीबारी के बाद सैनिकों ने शव को इकट्ठा किया और 10 ट्रकों में लादकर ले गये. सभी शवों को सारंडा के बिहड़ों में फेंक दिया गया. इस घटना में महिला-पुरुष और बच्चों का भी बेरहमी से नरसंहार किया गया. इतना ही नहीं घायलों को सर्दी की रात में पूरी रात खुले में छोड़ दिया गया और उन्हें पानी तक नहीं दिया गया.
ओड़िशा सरकार ने की घटना को दबाने की कोशिश
इसके बाद ओडिशा सरकार ने बाहरी दुनिया से इस घटना को छिपाने की भरपूर कोशिश भी की. बहादुर उरांव के अनुसार, ओडिशा सरकार नहीं चाहती थी कि इस नरसंहार की खबर को बाहर जाने दें. यहां तक कि बिहार सरकार ने घायलों के उपचार के लिए चिकित्सा दल और सेवा दल भी भेजा, जिसे वापस कर दिया गया. साथ ही पत्रकारों को भी इस जगह पर जाने की अनुमति नहीं थी. मतय हेंब्रम, हरी सरदार, मानकी पा, खेरसे पूर्ति, मड़की सोय, लखन हेंब्रम, धनेश्वर बानरा, कुंबर डांगिल, रघुनाथ पांडया, सुभाष हेंब्रम, बिटू राम सोय, मोराराम हेंब्रम, सूरा बोदरा, बुधराम सांडिल आदि. इसी पर सर्वसम्मति और आंदोलन को लेकर खरसावां हाट मैदान पर विशाल आम सभा 1 जनवरी को रखी गयी थी. 50 हजार से ज्यादा आदिवासियों की भीड़ पर ओड़िशा मिलिटरी पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग की थी. इस घटना के शोक में कोल्हान के लोग आज भी नया साल नहीं मनाते हैं.