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ममता को भी पेंशन मिलेगी, सुनीता को भी

Shyam Kishore Choubey शीर्षक से भ्रम न पालें. ममता और सुनीता झारखंड की सामान्य जन नहीं हैं. ममता देवी रामगढ़ सीट से विधायक रह चुकी हैं. वे एक आपराधिक मामले में फिलहाल जेल-बंद हैं. दो साल से अधिक सजायाफ्ता होने के कारण वे विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य करार दे दी गईं. उपचुनाव हुआ तो जीतकर सुनीता देवी ने 14 मार्च को सदन की सदस्यता ग्रहण की. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. कुछ ही अरसा पहले बंधु तिर्की को सजा हुई तो उपचुनाव में उनकी बेटी विधायक चुनी गईं. उदाहरण और भी हैं. ममता मामले में फर्क इतना ही है कि तीन साल पहले उन्होंने जिस सुनीता को हराया था, वे ही सुनीता उपचुनाव में ममता के पति को हराकर विजयी हुईं. अब ममता को वैसे ही विधानसभा से पेंशन मिलेगी, जैसे विभिन्न मामलों में अयोग्य करार दिये गये अन्य विधायकों को मिल रही है. सुनीता तो खैर उपचुनाव जीतकर ही आई हैं. पेंशन पर उनका हक बनता है. जो लोग निजी संस्थाओं में जवानी तबाहकर बूढ़े हुए और ईपीएफओ से दो-चार हजार पेंशन पा रहे हैं, वे इस भ्रम में न रहें कि दिन-दो दिन के विधायक भी उनकी ही श्रेणी में हैं. माननीयों को 40 हजार से एक लाख 25 हजार तक अच्छी खासी पेंशन मिलती है, यात्रा के लिए सालाना चार लाख के कूपन मिलते हैं और मुफ्त इलाज भी. अव्वल तो विधायक, सांसद जितनी मर्तबा सीधे या प्रातिनिधिक माध्यम से चुने जाते हैं, उसी अनुपात में उनकी पेंशन मोटी होती चली जाती है. पंजाब का मुख्यमंत्री चुने जाने के बाद भगवंत सिंह मान ने सिंगल पेंशन पॉलिसी लागू की तो राजनीतिक हल्के में सन्नाटा छा गया. राजनीति शास्त्र की एक उक्ति ‘लॉ मेकर्स आर अबव लॉ’ यादकर जनता जनार्दन ने मौन साध लिया. लगे हाथ एक अन्य वाक्या भी कम महत्व का नहीं. कभी मंत्री रह चुके सीनियर विधायक भानु प्रताप शाही ने पिछले सोमवार को सदन में मांग की कि मंहगाई को देखते हुए विधायकों का वेतन बढ़ाया जाना चाहिए, फिलहाल वे लोग 40 हजार के बेसिक पे पर सेवा दे रहे हैं. किसी को भी यह सुनकर लगेगा कि कहलाते माननीय हैं और दरमाहा पाते हैं केवल 40 हजार. यह शायद हर किसी को पता भी न हो कि माननीयों को मिल रहे भत्तों को जोड़ दिया जाय तो उनको हर महीने प्राप्त होने वाली रकम करीब सवा दो लाख हो जाती है. मुफ्त सुसज्जित मकान, सरकारी अंगरक्षक, पीए आदि अलग से. फिर भी वे महंगाई से पीड़ित हैं. उनका क्या हाल होगा, 58-60 पार के जो लोग ईपीएफओ से मिल रही दो-चार हजार रुपये पेंशन पर गुजारा कर रहे हैं? माननीय भानु जी ने या जैसा कि सदन में उन्होंने कहा कि तन्ख्वाह बढ़ोतरी पर पक्ष-विपक्ष के विधायक सहमत हैं, उन सभी ने क्या यह कभी सोचा कि जिस जनता ने उनको ‘जनार्दन’ बना दिया, उसको महंगाई कितना डंस रही होगी? वे खुद को संवेदनशील भी कहते हैं. काश! एक बार भी उस बेचारी जनता के नाम आंदोलन किया होता. आंदोलन न भी किया तो मांग उठाई होती. वर्तमान प्रधानमंत्री खुद को प्रधान सेवक कहते हैं. इस लिहाज से विधायक/सांसद गण सेवक हुए. इन महानुभावों ने सेवकाई का सबूत दिया होता तो यह दिल बल्लियों उछलता. लगता राजनीति शास्त्र में बेमतलब पढ़ाया जाता है, ‘किंग कैन डू नो रांग’. स्थिति उलट है. जनता केवल चुनाव के समय नारा सुनने को अभिशप्त है, बहुत हुई महंगाई की मार.. हम कैसे भ्रम में जी रहे हैं? राजतंत्र या प्रजातंत्र जैसे लेबल बदल देने से किंग खत्म नहीं हो जाते. जनता है तो किंग रहेंगे. हम उन्हें चुनकर बनायें या वे जन्मना हों. हम तो पत्थर में देवत्व ढूंढ लेनेवाले लोग हैं. जीते-जागते मनुष्य को किंग चुन लेना कतई अजूबा नहीं. पदवी चाहे जो दे दें. तीसरा वाक्या. इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इम्पलॉयमेंट पॉलिसी, जो सदन में पेश नहीं की गई है, के मसले पर अति महत्वपूर्ण कहे जानेवाले बजट सत्र के गुजरे दिन हंगामे में गुजार दिये गये. हम इन मॉडर्न किंग्स को चुनकर सदन में क्यों भेजते हैं? इसीलिए कि वे सदन चलाएं. जनता के बीच जाकर उनकी समस्याएं समझें, सदन में पेश करें, विमर्श करें और उनका समाधान निकालें. हाल कुछ और है. सत्र छोटे से छोटे किये जा रहे हैं. बहुमत के दम पर सरकार अपना बिजनेस पास करा लेती है, चाहे हंगामा होता रहे. राजा बनानेवाली जनता का सवाल छूट जाता है. दरअसल, ट्रेजरी बेंच सदन चलाना नहीं चाहता, अपोजिशन बेंच सदन चलने नहीं देना चाहता. रांची से लेकर दिल्ली तक का एक ही हाल है. वास्तविकता के धरातल को छोड़ जाति-पाति, तरंगित मायावी बातों और कोरी भावनाओं के आधार पर जनप्रतिनिधि नामक राजा चुनने की परिपाटी यही परिणाम देगी. लौटते हैं पेंशन की ओर. सरकारी नौकरियों का बड़ा आकर्षण पेंशन भी है. 2004-05 से पेंशन को ओल्ड फैशन बता एनपीएस लागू कर दिया गया. उस काल के बाद हुई बहालियों का पेंशन मसला कौन सा रूप ग्रहण करेगा, अभी कहना मुश्किल है. लेकिन राजा स्वरूप माननीयों की पेंशन पर कोई आंच नहीं. जब चाहें अपने वेतन-भत्तों पर भी खुद ही फैसला ले लें. है न कमाल की बात! आखिर वे ही तो 80 करोड़ लोगों को रुपया किलो राशन देकर जिला रहे हैं. इनमें से कई को कृपापूर्वक एक हजार पेंशन भी दे रहे हैं. लेबल बदल गया है. जनता जनता है, उसके द्वारा चुना गया प्रतिनिधि जनार्दन. किसी ने सच कहा है : वही कातिल वही मुंसिफ अदालत उस की वो शाहिद. बहुत से फैसलों में अब तरफ-दारी भी होती है. डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं. [wpse_comments_template]
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