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मोदीजी धीरे चलना, बड़े खतरे हैं सियासत की इस राह में

जिस समाज को लेकर पितृ संगठन की अपनी दृढ़ नकारात्मक धारणाएं हैं, उन धारणाओं को पीएम कैसे बदलेंगे या पितृ संगठन को कैसे मनाएंगे?

by Lagatar News
05/08/2022
in ओपिनियन, राजनीति

DR. Santosh Manav

सुना है कि अपने प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के लोगों से कहा है कि वे पसमांदा [गरीब, वंचित] मुसलमानों को पार्टी के साथ जोडें. प्रधानमंत्री ने किसी मंच या कैमरे के सामने यह नहीं कहा है. यह बंद सभागृह की बात है, जहां सिर्फ पार्टीजन यानी बीजेपी के बड़े-बड़े नेता थे. वहीं से खबर फूटी या कहें कि प्रचारित-प्रसारित करवाई गई या हुई ? अगर पीएम ने सच में ऐसा कहा है, तो उनकी तारीफ होनी चाहिए. इसलिए कि ‘राजा’ को प्रजा-प्रजा में भेद नहीं करना चाहिए. अगर वह भेद करेगा, तो समाज का उपेक्षित वर्ग कुंठित होगा और कुंठित लोग प्रगति में सहायक नहीं होते. पिछले कुछ वर्षों में देश की एक बड़ी आबादी को जिस तरह अलग-थलग करने की कोशिश हुई है या कहें कि जिस तरह उनके प्रति नफरत का भाव बढ़ाया गया है, वैसे हालात में प्रधानमंत्री की बात सुकून देती है. उनका यह प्रयास ‘एक भारत-नेक भारत’ को बल देगा. समाज विशेष की कुंठा-हताशा कम होगी. देश-समाज में एकता होगी. प्रधानमंत्री की भावना की सच्चाई को परखने – जांचने की कोशिश न करते हुए यह जानना दिलचस्प होगा कि उनकी नेक भावना की राह में कितने खतरे हैं? कहीं उनकी भावना बीजेपी की ढलान का कारण न बन जाए?

सत्ता और संगठन में हिस्सेदारी के लिए तैयार हैं ?

1980 में गठित बीजेपी पर हिंदूवादी पार्टी की मुहर लगी है. मोटे तौर पर यही माना जाता है कि यह पार्टी हिंदू समर्थक है. मुसलमानों के लिए कटु बोल-वचन और जालीदार टोपी तक से परहेज करने वाले इसके नेता कैसे मुसलमानों को जोड़ेंगे? और जोड़ना भी चाहें तो उसका असर कितना गहरा होगा? फिर जोड़ेंगे कैसे? लोकसभा में बीजेपी के तीन सौ से ज्यादा सदस्य हैं. इसमें एक भी मुसलमान नहीं है. राज्यसभा में अब भी बीजेपी के 91 सदस्य हैं. इनमें भी कोई मुसलमान नहीं है. एम जे अकबर, मुख्तार अब्बास नकवी, जफर इस्लाम रिटायर हो चुके हैं. 28 राज्यपाल, पांच उप राज्यपाल में एक केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान मुसलमान हैं. सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाले राज्यों में एक उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया. 12 में अकेले और 5 में सहयोगियों के साथ यानी 17 राज्यों में बीजेपी की सत्ता है. इसमें एक भी मुख्यमंत्री मुसलमान नहीं है. पार्टी के 12 उपाध्यक्ष, 8 महासचिव, 13 सचिव में एक भी मुसलमान नहीं है. और तो और मोदीजी जिस सरकार के प्रधान हैं, उस सरकार में ही कोई मुसलमान नहीं है. कहने का आशय यह कि जब आप जोड़ेंगे, तो समाज प्रतिनिधित्व मांगेगा. क्या आप सत्ता और संगठन में उनकी हिस्सेदारी के लिए तैयार हैं? और अगर तैयार हैं, तो क्या इससे हिंदू हिस्सेदारी कम नहीं होगी? क्या आप इससे समर्थकों में उपजी नाराजगी झेलने को तैयार हैं. क्या इससे आपका आधार वोट नहीं खिसक सकता?

फर्स्ट इम्प्रेशन इज लास्ट इम्प्रेशन !

फिर आपकी छवि का क्या होगा. जो हिंदू हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा के नारे का क्या होगा? क्या आप जालीदार टोपी पहनेंगे? मुसलमानों को जोड़ने से पहले आपको कायाकल्प करना होगा. क्या आप इसके लिए तैयार हैं? आप तैयार हो गए, तो आपके उन्मादी समर्थकों का क्या होगा. सबसे बड़ा सवाल- आपने पितृ संगठन से पूछ लिया है? क्या वे आपको ऐसा करने देंगे? अंग्रेजी में एक कहावत है-फर्स्ट इम्प्रेशन इज लास्ट इम्प्रेशन यानी पहला प्रभाव अंतिम प्रभाव होता है. आपने पिछले 42 वर्षों में जो छवि बनाई है, उसे टूटते हुए देख पाएंगे? वह छवि टूटेगी भी कैसे. याद कीजिए इसी पार्टी के एक नेता पाकिस्तान गए थे. भूल से या किसी योजना के तहत जिन्ना को सेक्यूलर कह आए. इस एक बयान ने उनकी ‘गति’ कर दी. पितृ संगठन की नाराजगी उन्हें भारी पड़ी. वे नजरों से गिर गए, ऐसा गिरे कि फिर उठ न पाए. जिस समाज को लेकर पितृ संगठन की अपनी दृढ़ नकारात्मक धारणाएं हैं, उन धारणाओं को पीएम कैसे बदलेंगे या पितृ संगठन को कैसे मनाएंगे?

चौबेजी गए थे, छब्बे बनने, दुबे बनकर लौटे!

कांग्रेस पार्टी की एक छवि थी. उसने उसे तोड़ने की कोशिश की. लोगों ने कहा- यह सॉफ्ट हिंदुत्व है. राहुल मंदिर-मंदिर मत्था टेकने लगे. साथ प्रियंका वाड्रा हो लीं. घाट-घाट नहा आईं, परिणाम घर-घाट दोनों से गए. लोगों ने इसे पसंद नहीं किया. कांग्रेस के कमलनाथ सरीखे नेता हनुमान चालीसा से सत्यनारायण कथा तक करवा चुके. करवा रहे हैं. अपने निर्वाचन क्षेत्र में भव्य मंदिर बनवाया. दूसरे नेता भी यह प्रयोग कर रहे हैं. पर क्या हुआ? छवि का कबाड़ा हो गया. चौबेजी गए थे, छब्बे बनने, दुबे बनकर लौटे! बनी-बनाई छवि टूटती नहीं. टोटल मेक ओवर (कायाकल्प) कठिन होता है.

सत्ता गंवाने तक का खतरा 

यानी पीएम की सदइच्छा की राह में अनेक खतरे हैं. खतरा उनकी पार्टी और खुद उनके लिए है. यह खतरा वोट बैंक कम होने, घटने का है. पितृ संगठन की नाराजगी का है. छवि खंडित होने का खतरा है. सत्ता गंवाने तक का खतरा है. लेकिन, उनका यह प्रयास देशहित में होगा. क्या प्रधानमंत्री पार्टी हित के ऊपर देशहित को रखेंगे, उनके प्रयास-घोषणा, समझाइश, आदेश-निर्देश, प्रेरणा के समक्ष यही एक बड़ा सवाल है- पहले देश या पार्टी? चयन मोदीजी को करना है. {लेखक भास्कर सहित अनेक अखबारों के संपादक रहे हैं. फिलहाल लगातार मीडिया में स्थानीय संपादक हैं }

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राज कुमार
राज कुमार
1 year ago

.मोदी के कदम से मोदी को नही उनको ज्यादा खतरा है जो अल्पसंख्यक समुदाय को मोदी के नाम से डराते आये हैं।

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यह भी पढ़ें : जा रहा है राजनाथ का मौसम !

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