Arvind Jayatilak
नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ की भारत यात्रा ने दोनों देशों के सभ्यतागत संबंधों को मिठास से भर दिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेपाल के साथ संबंधों को हिमालय जितनी ऊंचाई पर ले जाने के संकल्प के साथ सभी विवादित मुद्दों को सहज भाव से सुलझाने की प्रतिबद्धता जाहिर की है. प्रधानमंत्री मोदी ने नेपाल के साथ भारत के शानदार रिश्ते की अहमियत पर बल देते हुए कहा कि उन्होंने 2014 में प्रधानमंत्री का पदभार संभालने के तीन महीने के भीतर नेपाल की पहली यात्रा की और हिट (एचआईटी) फर्मूला (हाईवे, आई-वे और ट्रांस-वे) दिया. प्रधानमंत्री मोदी ने उत्साह व्यक्त करते हुए कहा कि गत नौ वर्षों में दोनों देशों की साझेदारी हिट रही है. दोनों देशों ने सभ्यतागत संबंधों को नई उर्जा देने के लिए कई समझौतों पर सहमति जतायी है. इन समझौतों में नेपाल के शिक्षा एवं जुलाघाट में दो पुल का निर्माण, मोतिहारी अमलेहगंज पाइपलाइन को चितवन तक ले जाने का प्रस्ताव, रुपईडीहा और नेपालगंज में एकीकृत जांच चौकियों का डिजिटल माध्यम से उद्घाटन, पनबिजली में सहयोग, चितवन और झापा में नए स्टोरेज टर्मिनल, नेपाल के लोगों के लिए नए रेलमार्ग, अंतरदेशीय जलमार्ग सुविधा का प्रावधान, भारतीय रेल संस्थानों में नेपाली रेलकर्मियों को प्रशिक्षण, रामायण सर्किट से संबंधित परियोजनाओं में तेजी लाना इत्यादि प्रमुख है.
इसके अलावा बिहार के बथनाहा से नेपाल कस्टम यार्ड के लिए एक मालवाहक रेलगाड़ी को हरी झंडी दिखायी गयी. इन समझौतों पर मुहर लगने के बाद अब दोनों देश एक दूसरे के बेहद करीब आएंगे और कुछ मसलों पर उपजी गलतफहमियां दूर होंगी. वैसे भी भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार कह चुके हैं कि रक्षा व सुरक्षा में भारत नेपाल के साथ है और उसे इत्मीनान हो जाना चाहिए कि नेपाल की शांति व सुरक्षा के लिए कोई भी खतरा भारतीय शांति व सुरक्षा के लिए खतरे जैसा है. यानी नेपाल के मित्र भारत के मित्र हैं और नेपाल के शत्रु भारत के शत्रु हैं. यह सच्चाई भी है कि हिमालय की उपत्यका में बसा नेपाल का भारत से ऐतिहासिक व सांस्कृतिक संबंध रहा है. लेकिन विगत दशकों में दोनों देशों के बीच कुछ मसलों पर दूरियां बढ़ी हैं, जिसकी वजह से चीन को नेपाल के निकट जाने का मौका मिला. यहां ध्यान देना होगा कि चीन द्वारा तिब्बत को हस्तगत किए जाने के बाद से भारत-चीन संबंधों में नेपाल की सामरिक स्थिति का महत्व बढ़ा है.
यही कारण है कि चीन भारत के खिलाफ नेपाल को अपने पाले में खड़ा करने की हरसंभव कोशिश करता है. लेकिन भारत-नेपाल के बीच प्रगाढ़ होते संबंधों के कारण चीन की खतरनाक मंशा पूरी होने वाली नहीं है. उसका कारण यह है कि नेपाल को लेकर भारत की भूमिका सदैव बड़े भाई की रही है. आजादी के बाद से ही भारत नेपाल को हर तरह का प्रशिक्षण, तकनीकी और गैर तकनीकी सहयोग देता आ रहा है. अभी गत वर्ष ही भारत आए नेपाली प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा और भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने हैदराबाद हाउस से हरी झंडी दिखाकर बिहार के जयनगर और नेपाल के कुर्था के बीच चलने वाली ट्रेन को रवाना कर आठ साल से बंद रेल सेवा को पटरी पर दौड़ाया. तब दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने बिजली ट्रांसमिशन लाइन का उद्घाटन और नेपाल में भारत के रुपे भुगतान कार्ड की शुरुआत कर एक नए अध्याय की नींव रखी.
गौर करें तो भारत ने नेपाल की कई परियोजनाओं में बढ़ चढ़कर सहयोग दिया है. इनमें देवी घाट, त्रिशूल करनाली और पंचेश्वर जल विद्युत परियोजनाएं अति महत्वपूर्ण हैं. भारत त्रिभुवन गणपथ, काठमांडू त्रिशूली मार्ग तथा त्रिभुवन हवाई अड्डा के निर्माण में भी सहयोग किया है. इसके अलावा भारत नेपाल के भू वैज्ञानिक अनुसंधान तथा खनिज खोजबीन के काम में भी मदद कर रहा है. भारत ने काठमांडू घाटी के एक उप नगर पाटन में एक औद्योगिक बस्ती की स्थापना कर रिश्ते को उर्जा से भर दिया है. लेकिन यह विडंबना है कि नेपाल के मन में कुछ आशंकाएं हैं. मसलन वह अब भी भारत के संदर्भ में जूनियर भागीदार के मनोविज्ञान से ग्रसित है तथा दक्षिण के पड़ोसी के आधिपत्य की आशंका का भूत उसे सताता रहता है. नेपाल भारत और चीन के साथ समदूरी सिद्धांत के आधार पर संबंधों का निर्वहन करना चाहता है. देखें तो यह उसकी परंपरागत नीति भी है.
1769 में आधुनिक नेपाल की स्थापना के साथ ही उसके निर्माता पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल की विदेश नीति निर्धारित कर दी थी. उन्होंने कहा था कि नेपाल देश दो चट्टानों के बीच खिले हुए फूल के समान है. हमें चीनी सम्राट के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रखने चाहिए तथा हमारे संबंध दक्षिणी सागरों के सम्राट से भी संबंध मधुर होना चाहिए. नेपाल आज भी उसी पुरानी नीति पर कायम है. हालांकि प्रधानमंत्री मोदी लगातार दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ को पिघलाने की कोशिश कर रहे हैं. याद होगा प्रधानमंत्री मोदी ने नेपाल की संसद को संबोधित करते हुए विश्वास दिलाया था कि वह भारत के सवा करोड़ लोगों की ओर से दोस्ती और सद्भावना का संदेश लेकर आए हैं. उनकी इच्छा है कि भारत और नेपाल विकास की डगर पर कंधा से कंधा मिलाकर चले. यह सच्चाई है कि नेपाली शासक और चीन के प्रबल पक्षधर राजा ज्ञानेंद्र को नेपाली जनता द्वारा खारिज किए जाने के बाद भी आज वहां चीन की पक्षधरता वाले लोगों की कमी नहीं है. बदलते परिदृश्य पर गौर करें तो नेपाल में एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया है जो अपने यहां चीन की दखलादांजी को अनुचित नहीं मानता.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.