Faisal Anurag
असहमति को आतंक के रूप में समझा जाता है. प्रियंका गांधी के इस कथन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. खासकर किसी भी विरोधी दल को सड़क पर उतरने के पहले ही रोकने की कोशिश सरेआम हो रही है. सवाल चाहे किसानों का हो या हाथरस में दलित लड़की के साथ हुए रेप कर हत्या का. उत्तर प्रदेश और दिल्ली में राजनैतिक विरोध के रास्ते अवरोधों से भरे हुए हैं. मुरादाबाद से दिल्ली कूच करने वाले किसानों के साथ जिस तरह का व्यवहार यूपी पुलिस ने किया, वह पुलिसराज का ही नमूना है. इसी तरह कुछ दिनों पहले समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव को कन्नौज जाने से रोका गया. सवाल यह है कि सरकार की नीतियों का विरोध करना देशद्रोह क्यों मान लिया जाता है. जिस तरह किसानों को देशद्रोही, खालिस्तानी, पाकिस्तानी बताया जा रहा है, वह बेहद गंभीर है. किसानों को सुनने के बजाय उन्हें खारिज करने की प्रवृत्ति दुनियाभर में आलोचना का विषय बनी हुई है.
कोविड काल को सत्ता ने जिस तरह निरंकुश होने का अवसर माना है, उससे लोकतंत्र ही संकटग्रस्त होता जा रहा है. शासकों ने कोविड काल को आर्थिक सुधारों के नाम पर कॉरपोरेट राज के रूप में बदलने का प्रयास किया है. उन देशों में, जहां लंबे समय से आर्थिक सुधारों की सुस्ती की चर्चा होती रही है, वहां आर्थिक सुधार आम लोगों के लिए परेशानी का सबब बनकर उभरा है. भारत भी इन्हीं देशों की श्रेणी में शामिल है. लातिनी अमेरिका के अनेक देशों में प्रतिरोध के बड़े आंदोलनों से सुधारों का विरोध किया जा रहा है.
दुनिया के प्रभावी कॉरपोरेट समूहों के लिए एशिया,अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के राजनैतिक प्रतिरोध बाधा बने हुए हैं. तीनों कृषि कानूनों को भारत में आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी बताया जा रहा है. नरेंद्र मोदी ने 2014 में कहा था कि वे भारत की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह मुक्त करना चाहते हैं और इस लक्ष्य को हासिल करेंगे. भूमि अधिग्रहण विधेयक की मौत के बाद सरकार को लगा कि आर्थिक सुधार की राह आसान नहीं है. 2014 से 2019 तक आर्थिक सुधारों की गति तेज करने में भी जनदबावों के कारण सक्षम नहीं हो पाये. 2019 के चुनाव में बहुमत पाने के बाद आर्थिक सुधारों गाड़ी को पटरी पर दौड़ा दिया गया है.
आर्थिक क्षेत्र का कोई ऐसा सेक्टर नहीं है, जिसे बदलने के लिए कदम नहीं उठाये गये हैं. लाभ देने वाले सरकारी कंपनियों को भी निवेश के नाम पर कॉरपोरेट घरानों को देने की प्रक्रिया जारी है. एयरपोर्टों को जिस तरह अडाणी घराने को दिया गया है, वह इसकी मिसाल है. तिरूअनंतपुरम एयरपोर्ट के निजीकरण का केरल की सरकार ने भरपूर विरोध किया. लेकिन उसकी बात नहीं सुनी गयी. निजीकरण की रफ्तार को तेज करने की प्रक्रिया में न तो विपक्ष को सुना जा रहा है और न ही संसद में लंबी चर्चा करायी जा रही है.
भारत की त्रासदी यह है कि ज्यादातर राजनैतिक दलों का आर्थिक एजेंडा समान है. यही कारण है कि पक्ष और विपक्ष अनेक अवसरों पर आर्थिक सवालों पर तीखा संघर्ष से बचते हैं. लेकिन भारत में श्रमिकों और किसानों ने विपक्षी दलों को पीछे छोड़ते हुए प्रतिरोध को नया तेवर दिया है. श्रमिकों के देशव्यापी हड़ताल के बावजूद श्रम सुधारों का मुद्दा बड़ा नहीं बन पाया है. लेकिन किसानों ने देश को यह सोचने के लिए मजबूर किया है, सरकार की नीतियों के खिलाफ वे निर्णायक लड़ाई के लिए क्यों कमर कस चुके हैं.
किसानों ने एक बार फिर केंद्र को दो टूक जबाव दिया है कि वे किसी भ्रमजाल के शिकार नहीं होने जा रहे हैं और न खानापूर्ति वाली वार्ताओं के लिए राजी हैं. कृषि मंत्री के वार्ता आमंत्रण को ठुकराते हुए किसानों ने कहा है कि केंद्र किसानों के बीच भ्रम पैदा नहीं करे, वह ठोस प्रस्ताव पेश कर बताये तीनों कानून रद्द किये जाएंगे या नहीं. देश में किसानों का समर्थन जिस तरह बढ़ रहा है, उससे केंद्र की चिंता बढ़ी तो है, लेकिन उसे भरोसा है कि वह आंदोलन को लंबा खींचकर कमजोर कर देगी.
प्रधानमंत्री देश के कई हिस्सों में किसानों को संबोधित कर रहे हैं, लेकिन किसानों का भरोसा नहीं जीत पा रहे हैं. भाजपा ने अपने पोस्टरों में पंजाब के जिस किसान की तस्वीर छापी है, वह सिंधु बॉर्डर पर आंदोलन में शामिल है. इसी तरह एमएसपी और ठेका खेती के फायदे की पोल खुलती जा रही है. मध्यप्रदेश के कई उदाहरण समाने आ चुके हैं.
किसानों का सवाल केंद्र के आर्थिक सुधारों की राह में रोड़ा बनता जा रहा है. आंदोलन जितना लंबा होगा, सुधारों को लेकर उतना ही विरोध बढ़ेगा. यह साफ महसूस किया जा सकता है. इतिहास गवाह है कि विरोध के लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलना बड़े आंदोलन की जमीन तैयार करता है.