Dr. Santosh Manav
एक पुरानी कहावत है कि मेढ़कों को तौलने की तरह है समाजवादियों में एकता कायम करना, ठीक वैसी ही है विपक्षी एकता की बात. एक मेढ़क को तराजू पर रखेंगे, तो दूसरा कूद पड़ेगा, वैसे ही एक विपक्षी पार्टी को साथ जोड़ेंगे, तब तक दूसरी पार्टी क्षुब्ध हो जाएगी. यह जांचा-परखा, सुना-देखा जा चुका सच है. देश और राजनीति के किसी कालखंड में आधी-अधूरी एकता हो भी गई हो, पर आज की तारीख में यह असंभव नहीं, तो भारी कठिन जरूर है.
आखिर विपक्षी दलों में एकता की बात उठ क्यों रही है? लगभग सभी विपक्षी दलों की विचारधारा, कार्यक्षेत्र और नेतृत्व का मिजाज अलग है, तो उन्हें एकता क्यों चाहिए? एकता हो भी गई तो कितने दिनों तक टिकेगी? देश ने देखा है कि 67, 77 या 89 में विपक्षी एकता की बात जोर-शोर से चली. सीमित क्षेत्र या आधी-अधूरी एकता हुई, तो वह कितने दिनों तक चली. जनता पार्टी का प्रयोग कितना विफल रहा. 76-77 की जनता पार्टी के कितने टुकड़े हुए? उससे ज्यादा हुए, जितना एकता/एका/विलय से पहले थे. अंतत: जमीन-आसमान की दूरी वाली एकता कितने दिनों तक चलती. समान विचार के लोग/पार्टी एक हो सकती है, उनमें स्थायी एकता हो सकती है. पर असमानता में एकता बहुत कठिन है. किन्हीं परिस्थितियों में हो भी गई, तो टूटने में कितना समय लगेगा? नींबू और दूध को एक कैसे कर सकते हैं आप?
जो लोग/नेता विपक्ष में एकता की बात कर रहे हैं, उसमें उनका निजी हित है, अगर देशहित है तो महज सुनने-सुनाने के लिए. कथा-प्रवचन के लिए. जनता को बताने के लिए. आखिर नीतीश कुमार को एकता क्यों चाहिए? इसलिए कि खुद के दम पर प्रधानमंत्री नहीं बन सकते हैं, संभव है कि विपक्षी एकता भजते-भजते काम बन जाए! एक अरविंद केजरीवाल की बात छोड़ दें, तो विपक्षी एकता की बात कौन कर रहे हैं: नीतीश कुमार, शरद पवार, कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव. तीनों की दमित इच्छा है पीएम का पद. नीतीश खुलकर नहीं बोलते, उनके ल़ोग बोलते हैं. शरद पवार नहीं बोलते, उनके लोग बोलते हैं. तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के सर्वेसर्वा चंदशेखर राव ने अपनी पार्टी का नया नाम भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) प्रधानमंत्री बनने की योजना अनुसार ही रखा है.
प्रधानमंत्री पद की दमित इच्छा रखने वाले दो नेता और हैं. ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल. राहुल गांधी तो खैर स्वाभाविक और खुल्लम खुल्ला हैं. कांग्रेस को सत्ता मिली, तो कांग्रेस किसी भी हालत में विकल्प पर विचार नहीं करेगी. राहुल पीएम पद के प्राकृतिक दावेदार हैं. कह सकते हैं कि पीएम इन वेटिंग हैं. उम्र है अभी. ऐसे में कभी न कभी सत्ता सुंदरी जयमाला तो डालेगी ही. इसलिए भी कि राजनीति तो चक्र है. बारी-बारी अधिकतर को मौका मिल ही जाता है. एक-दो एलके आडवाणी या अर्जुन सिंह जरूर रह जाते हैं.
एक और दावेदार ममता बनर्जी इन दिनों चुप हैं. प्रधानमंत्री के प्रति उनका ‘एग्रेशन’ भी छूमंतर है. कारण कई हो सकते हैं. सीबीआई का डर कि कोयला घोटाले में भतीजा-बहू को जेल जाना पड़ सकता है, मोदी के रहते पीएम बनना संभव नहीं है, केंद्र से पंगा लेकर राज्य का विकास नहीं हो सकता है या और भी कुछ. यह भी हो सकता है कि समय पर देखा जाएगा, अभी तो लोकसभा चुनाव को डेढ़ साल हैं. पर यह साफ दिख रहा है कि वे शांत हैं. कह सकते हैं कि पीएम पद की जागृत भावना को रणनीति के तहत उन्होंने विराम दे दिया है. एक अरविंद केजरीवाल हैं, जो इच्छा तो रखते हैं पर अदृश्य और कल्पित एकता की फिराक में नहीं रहते. वे खुद की छवि चमकाने और पार्टी के विस्तार पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैं.
इधर, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का विपक्षी उम्मीदवार घोषित करने की सलाह दे दी है. ऐसे में नीतीश, राव, पवार या किसी दूसरे के पास इतनी ताकत नहीं है कि प्रस्ताव का विरोध करें. नीतीश कुमार ने स्थिति देखकर कह दिया कि वे पीएम पद के दावेदार नहीं हैं. मिल-बैठकर सब तय कर लेंगे. वे कमलनाथ या बघेल के प्रस्ताव का विरोध नहीं कर पाएं. कर भी नहीं सकते. कांग्रेस के ही एक और नेता जयराम रमेश ने यह कहकर विपक्षी एकता की हवा निकाल दी है कि कांग्रेस दो सौ सीटों पर लड़े, यह नामुमकिन है. वे यह भी कह रहे हैं कि कांग्रेस ही एकमात्र राष्ट्रीय विकल्प है. ऐसे में कहां की और कैसी एकता? फिर इलाके का भी सवाल है. एकता के नाम पर ममता बंगाल में कांग्रेस या वामपंथी दलों को फिर ‘हरा’ होने का मौका क्यों देगी या चंदशेखर राव कांग्रेस को तेलंगाना में क्यों ‘मोटा’ होने देंगे?
एक खास तरह की विपक्षी एकता जनता के दबाव में होती है. जनता किसी खास दल की सत्ता से जब ऊब जाती है, तो वह उस दल विशेष को सत्ता से हटाने के लिए दलों पर दबाव बनाती है कि सब एक हो जाओ और इस सरकार को हटाओ. अभी देश में उस तरह का माहौल नहीं दिखता. 40 से 50 फीसदी जनता बीजेपी और नरेंद्र मोदी को वोट दे रही है और राज्यों में उनकी सरकार बनवा रही है. पिछले दो लोकसभा चुनावों से देखा जा रहा है कि लोकसभा के चुनाव में बीजेपी के वोट बढ़ जाते हैं. यानी जन दबाव तो पड़ने से रहा. और वैसी एकता तो नुकसानदेह ही होगी, जो सिर्फ और सिर्फ पी.एम पद के लिए हो. ऐसे में आप चाहें तो पूछ सकते हैं कि विपक्षी एकता, तुम कहां हो?
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
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