Anita Rashmi
हर मन वर्तमान के साथ आगत-विगत में उलझता ही है. अवसर किसी पर्व का हो, तो और भी ज्यादा. ऊपर से होली… यादों के पिटारों को खोलने का सतरंगी पर्व! आज जब शहरों, कस्बों या शहर सरीखे गांवों में फाग पर परंपरा का निर्वाह नहीं के बराबर होता है, फाल्गुनी गीतों का स्थान गाली-गलौज ने ले ली है, ऐसे में चतरा के इटखोरी के पकरिया पंचायत के रंग पर्व के बारे में हमारे भाई साहब ( ननदोई ) विनय सिन्हा जी ने बताया था. मैंने अखबार द्वारा मांगने पर उन पीले पड़ गए पन्नों को निकाला, जो लिखे गए थे कहीं भेजने के लिए, पर अब तक भेजे नहीं गए. कैसा सुखद संयोग उस दिन मैं चतरा में ही थी और ये पन्ने मेरे साथ थे, फटने से पूर्व मोबाइल पर सहेजने के लिए ले गई थी.
अपनी परंपरागत होली के कारण यह गांव वर्षों चर्चित रहा है. यहां बहुत कम घर स्वर्णों के हैं. बावजूद फगुआ में स्वर्णों-हरिजनों की आपसी ठिठोली फिजां में एक नवीन रंगत घोल देती है. इस परंपरागत रससिक्त होली में अपनी संस्कृति की गहरी जड़ों का आभास होता रहा है हमें, सबको
फगुआहट की धुन में प्रायः हर पकरियावासी फाल्गुनी बयार के चलते ही मन-तन से अपने ग्राम की रंगीली धरती पर पहुंचने के लिए छटपटा उठता है. टुहुक लाल, काईवाले हरे, तीखे पीले, चटख गुलाबी, शक्ति के प्रतीक काले रंग और ऐसे ही खूबसूरत, सुगंधित गुलाल उन्हें बुलाने लगते हैं. जोगी का तन तो रंगाता ही है, मन भी रंगा जाता है जैसे. विनय जी की याद की धरती पर जमी होली की धुरखेर हमारे सामने बिखर-बिखर जाती. होलिका दहन के दिन पकरिया और सोनपूरा गांव के लोग भी मिलकर अगजा जलाते हैं. घर-घर से प्रेमपूर्वक मांगी गई लकड़ियों या फिर छिपकर उठाकर लाई गई चौकी, टूटी खाट के पायों, लकड़ी के द्वार, चौखटादि को एक साथ जलाते हुए मानो बीते दिनों की गर्दिशों के साथ दुश्मनी के राक्षस को भी राख कर दिया जाता.
कच्ची रसोईघर में पकते बर्रे-धुसके, बचके तथा बूट की नई झाड़ का प्रसाद चढ़ाया जाता अगजे की अग्नि को. नये साल का स्वागत अगजे की राख से….बड़ों के पांवों पर भभूत रखकर आशीर्वाद अक्षत की कामना, बच्चों के भाल पर भस्मी टीके से आशीषों की बारिश… भीग उठता न सारा तन-मन रंगों में भीगने से पूर्व ही. पहले धुरखेर होता अर्थात धूल से जमकर होली खेली जाती. जैसे धूलकणों के दिन फिर गए हों. परास भी अपना रंग दान देने को तत्पर. प्राकृतिक रंग में ढल जाता किंशुक का खूबसूरत नारंगी पुष्प. जगह-जगह खिलनेवाला परास ( पलाश) इठला उठता अपनी उपयोगिता पर और हमें सिखाता दूसरों के लिए खुद को होम कर पूरी दुनिया को वर्णमय कर डालने का पाठ. अन्य कई रंग भी प्रकृति से उधार मांगे जाते.
फिर बारी के इंतज़ार में गीली होली! पुड़िया के पुड़िया, शीशी की शीशी सूखे रंग घोल दिए जाते पानी से भरे ड्रम में. कुएँ की जगत, रस्सी, लाठ-कुंडी ( कुएँ से जल भरने का साधन ) सहित बाल्टी-लोटा, तसला-कठौती सब रंग के नशे में चूर-चूर! महीनों लग जाते उन पर चढ़े रंग को उतारने में। पुए की लोर, धुसके के घोल भी अपना धर्म निभाते. गालों-बालों में रच-बस जाते. आंगन, बड़े-बड़े चौकोर बरामदे, दालान, कमरे सब रंगों से सराबोर!… सामने के विभिन्न गाछ और चबूतरे भी. पतली उगी टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ, खेतों की क्यारियाँ, मेड़ें, नीम तले का पतझड़ी बिछौना. और रच जाती अद्भुत सर्व वर्ण की मनोहारी पेंटिंग कच्ची सड़कों पर भी.
तीन अलग-अलग झुंडों में जुट आते पुरुष, नारी, बच्चे. कोई भी तो पहचान में नहीं आता. इस मदमाते त्यौहार पर स्त्री-पुरुष की भीड़ दूर-दूर रहती… आखिर इसी उत्सव में ना बुढ़वा देवर लगने लगता है, होश खोकर जश्न मनाया जाता रहा है. रंग नशा बनकर चढ़ता और सचमुच में रंग-गुलाल का नशीला जादू बिन भंग पिए भी बदहोश कर देता. जो जमकर होली खेलते हैं, वे जानते हैं केवल रंग से भी नशा चढ़ता है. उधर मलाईदार, पौष्टिक ठंडई और भांग का नशा वातावरण को भी नशीला बना देता.
पुरुषों की दो सौ तक की भीड़ जुट जाती. गले मिल खोरी ( गली ) की ओर चल पड़ती बहती सरिता सी. भीड़ के हाथों में ढोल, झांझ, मंजीरा ! होठों पर फाग, होरी गीत! धुरखेर के साथ हा ऽऽऽ!…हाऽऽऽ!! ठीऽऽ…ठीऽऽऽ! ! बहती जाती सरि दूसरी छोर तक एक-दूसरे पर धूलि डारती. उमंग से नाचते-गाते आबालवृद्ध! जा पहुंचते वहां, जहां धराचुंबी बरगद का गाछ. उसके तले स्वागत के लिए पहले से ही तैयार रहती हरिजनों की टोली। झाल, मंजीरा, ढोल की थाप के साथ. कोई झंडा पहन अति तरंग में झूमता हुआ, कोई खुद ही धूलि और रंग देह-माथे पर मल रहा है. नृत्यरत भोले बाबा के गणों की मानिंद. वहीं विटप की विशाल छाया तले बैठ सब जिमते. हाँ!… हाँ, जी, हाँ ! एक साथ. खाने-पीने का आयोजन हरिजन टोले की तरफ से. सखुए के पत्तल-दोने, कुल्हड़, माटी के सकोरे-गिलास में… तो ऐसा था, छुआछूत के भयंकर प्रलयंकारी समय में पकरिया का समाज और उनकी मदमाती होरी.
डिस्क्लेमर: लेखिक राइटर हैं, ये इनके निजी विचार हैं.