
एक तस्वीर से उपजे सवाल

Premkumar Mani एक तस्वीर पिछले दो रोज से मेरे दिमाग में घूम रही है. आडवाणी जी को भारतरत्न अवार्ड देने का दृश्य इसमें कैद है. वयोवृद्ध आडवाणी जी कुर्सी पर बैठे हैं. उनके बगल में प्रधानमंत्री मोदी जी बैठे हैं. आडवाणी जी को अवार्ड दिया जा चुका है. उनकी दूसरी तरफ हमारी राष्ट्रपति महोदया विनम्रता से खड़ी हैं. संभव है यह तस्वीर कुछ क्षणों की होगी, जिसमें अवार्ड देने के बाद राष्ट्रपति ने एक फोटो क्लिक के लिए वहां ठहर जाना मुनासिब समझा होगा. यह स्वाभाविक है, लेकिन यह तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुआ. होना भी चाहिए. भारत के नागरिकों को अपने राष्ट्रपति के सम्मान की फ़िक्र है तो यह अच्छी बात है. फोटो मुझे भी अटपटा लगा. राष्ट्रपति जी शालीन और विनम्र दिख रही हैं. आडवाणी और मोदी उनकी तरफ से अनासक्त आपस में बात कर रहे हैं. यह संभव है कि वयोवृद्ध आडवाणी जी खड़े होने में शारीरिक तौर पर अक्षम हों, लेकिन मोदी जी तो अक्षम नहीं हैं. कम से कम फोटो लेते समय और जब तक राष्ट्रपति वहां खड़ी थीं, उन्हें शिष्टाचार के मुताबिक भी खड़े होना चाहिए था. प्रणव मुखर्जी या राधाकृष्णन राष्ट्रपति होते तो क्या प्रधानमंत्री ऐसी जुर्रत कर सकते थे? कोई सोचने के लिए विवश हो सकता है कि राष्ट्रपति जी की यह तौहीन उनके समुदाय की तौहीन है. हमारी राष्ट्रपति जी आदिवासी समुदाय से आती हैं. स्वयं मोदी जी इस बात का ढिंढोरा पीटते रहे हैं कि उन्होंने एक दलित और फिर एक आदिवासी जन को राष्ट्रपति बनाया, लेकिन बना कर राष्ट्रपति लायक सम्मान देना भी तो सीखते मोदी जी! आदिवासियों के सवाल हमारे लोकतंत्र के लिए हमेशा मुश्किल भरे रहे हैं. याद आते हैं जयपाल सिंह मुंडा (1903 - 1970 ) और वर्रिएर एल्विन (1902 - 1964). आज भी भारतीय समाज में बहुत हद तक ये अनजाने नाम हैं. 16 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा में अचानक सन्नाटा छा गया, जब तीन करोड़ आदिवासियों के एकमात्र प्रतिनिधि जयपाल सिंह मुंडा की बेलौस आवाज सभा में गूंजी कि मैं उन करोड़ों लोगों की आवाज हूं, जिन्हें आप एक समुदाय से अधिक एक झुण्ड समझते हो. जंगली कहते हो. मुझे अपने जंगली होने पर अभिमान है. हम इस देश के मूल निवासी हैं और आप सब हमारे लिए बाहरी हो. जयपाल सिंह ने सिंधु घाटी की सभ्यता से आज तक अपने लोगों को खदेड़े जाते रहने की गाथा संक्षेप में सुनायी और यह भी कहा कि लोकतंत्र का पाठ हमें आपसे नहीं पढ़ना. बल्कि आप लोगों को हमसे लोकतान्त्रिक रिवाजों को समझना चाहिए. जयपाल सिंह मुंडा जब बोल रहे थे , तब सभा में कोई दूसरा आदिवासी नहीं था. डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया के लेखक जवाहरलाल नेहरू और अनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट के लेखक भीमराव आम्बेडकर की घिग्घी बंधी हुई थी. किसी ने भी आदिवासियों के प्रश्न को समझने की कोशिश नहीं की थी. आम्बेडकर के दलित प्रश्न सवर्णों से अनुसूचित जातियों के आपसी भेदभाव के प्रश्न थे. उनकी स्थिति महाभारत में कर्ण जैसी थी. लेकिन मुंडा के प्रश्न एकलव्य और शम्बूक के प्रश्न थे. वे भारतीय समाज के स्वीकृत घेरे के बाहर थे. क्यों भारतीय समाज में आज तक जयपाल सिंह मुंडा को वैसा सम्मान और महत्व नहीं मिला, जैसा आम्बेडकर को नसीब हुआ. इसका जवाब हमें ढूंढना चाहिए. जयपाल सिंह ने ऑक्सफ़ोर्ड से अर्थशास्त्र में स्वर्णपदक हासिल किया था. 1927 में इंडियन सिविल सर्विस की प्रतियोगिता में वह चुने गए, लेकिन खेल के लिए आईसीएस का त्याग कर दिया. 1928 ओलम्पिक में हॉकी में देश के लिए स्वर्णपदक हासिल किया. अपनी टीम के वह कप्तान थे. ध्यानचंद उनकी टीम के सदस्य थे. 1938 में वह राजनीति में सक्रिय हुए. संविधानसभा में आदिवासी हितों की वकालत की. व्यंग्यपूर्वक कहा हमें अधिक नहीं उतना ही दे दीजिए, जितना अपने ही समुदाय के अनुसूचित जातियों को आपने दिया है. आज़ादी के बाद उन्होंने झारखण्ड पार्टी बनाई और 1952 के चुनाव में बिहार में सोशलिस्टों से कहीं अधिक सफलता हासिल की. नेहरू और कांग्रेस के झांसे में आए और कुल जमा उन्तीस रोज के लिए 1963 में बिहार के प्रथम उपमुख्यमंत्री भी हुए. अलग झारखंड की मांग उठाने के कारण बर्खास्त कर दिए गए. 1970 में जिस रोज कांग्रेस से अलग हुए उसके सातवें रोज संदिग्ध परिस्थितियों में मृत पाए गए. अनुसूचित जातियों की तरह आदिवासी गांव-गांव में बिखरे नहीं हैं. वे कुछ खास प्रक्षेत्रों में सिमटे हैं. उनका नेता गांव-गांव में वोट प्रभावित नहीं कर सकेगा. इसलिए भी उन्हें आम्बेडकर की तरह सम्मान और महत्व नहीं हासिल हुआ ऐसा लगता है. उनकी राजनीति का हाल समझना हो तो हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास ` मैला आंचल ` पढ़िए. उस उपन्यास का वर्णित गाँव है मेरीगंज. उसमें बारहों बरन के लोग रहते हैं. राजपूत टोली, गुआर टोली और कायथ टोली में मतभेद और संघर्ष होते रहते हैं. लेकिन जैसे ही बगल में रह रहे संथालों का प्रश्न उठता है राजपूत , यादव, कायस्थ और अन्य सभी बारहों बरन के लोग इकट्ठे हो कर संथालों को कुचल देते हैं. बहुत कम लोगों को मालूम है कि आज़ादी के बाद बिहार का पहला नरसंहार खरसामा में हुआ था, जो जलियांवाला बाग काण्ड से अधिक भयावह था. 1971 में बिहार के प्रथम खूनी भूमिसंघर्ष में भी चौदह आदिवासियों को क़ुरबानी देनी पडी थी. महामहिम राष्ट्रपति महोदया ! आप बोलें न बोलें आपकी वह मासूम तस्वीर बहुत कुछ बोल रही है. जिस रोज मुल्क का सही इतिहास लिखा जाएगा आपका दर्द उसमें रेखांकित होगा. आदिवासी केवल एक प्रतीक नहीं हैँ. उसकी अपनी परंपरा, विरासत और संस्कृति है. सामाजिक बराबरी का बोध उनके जीवन में है. इस नजरिए से भी तस्वीर को देखने परखने की जरूरत है. डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं. [wpse_comments_template]