Faisal Anurag
यह टिप्पणी कितनी सार्थक है कि जब देश भर में बेशुमार शव जलाये जा रहे हैं, उस समय प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की रैलियां जुगुप्सा ही पैदा कर रही हैं. राहुल गांधी के बाद अब ममता बनर्जी ने भी चुनावी रैलियां नहीं करने का एलान कर दिया है. वाममोर्चा पहले ही अपनी रैलियों को बंद कर चुका है. द टेलीग्राफ ने एक बेहद मार्मिक शीर्षक दिया है: When pyres burned , Modi rallied
pyers एक प्राचीन ग्रीक प्रतीक से लिया गया शब्द है. जो शवों को अधिकता में जलाये जाने और उससे उठते अंधेरे के लिए इस्तेमाल किया जाता है. किसी सरकार के लिए यह टिप्पणी बेहद गंभीर है. इस बीच केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी ने मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दूसरे साल का जश्न मनाने का फैसला किया है. हालांकि आलोचनाओं के बाद अब कहा गया है कि जश्न पर ज्यादा शोरशराबा नहीं होगा और उसे यथासंभव डिजिटल रखने का प्रयास किया जायेगा. इस जश्न में कोविड को लेकर सरकार की सेवाओं का प्रचार किया जायेगा. यह योजना ऐसे समय में बनायी गयी है, जब देश के लोग तबाही के मंजर से खौफजदा हैं. यह कहना तो दुहराव ही है कि देश अस्पतालों, बेड, चिकित्सा स्टाफ, जीवनरक्षक दवाओं के अभूतपूर्व संकट के दौर में है. लेकिन आपदा को अवसर बनाने वालों के ही इस समय भी जश्न के लिए सोचना यह बताता है कि संवेदनाएं किस तरह पत्थरदिल हो गयी हैं
मौतों पर उन लोगों के आंसू की एक बूंद तक नहीं बही हैं, जो संसद में अनेक मौकों पर केवल न केवल भावुक बल्कि रुआंसे भी हो गये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसमें शामिल हैं. प्रख्यात बुद्धिजीवी अपूर्वानंद ने ठीक ही कहा है कि प्रधानमंत्री मोदी की प्रशंसा करने से पहले याद कर लें कि जिस समय वे कुंभ में जमावड़े से बचने की अपील कर रहे थे, उसी समय बंगाल में अपनी सभाओं में जनता को आमंत्रित कर रहे थे. क्या वह भीड़ संक्रमण से सुरक्षित है. क्या यह अधिकार प्रधानमंत्री या उनके गृह मंत्री को है कि वे कोरोना संक्रमण फैलने की आशंका के बीच उस संक्रमण के प्रसार का पूरा इंतज़ाम करें. राष्ट्रीय आपदा कानून इसकी इजाजत तो नहीं ही देता है, क्योंकि उसमें तो इस तरह का कृत्य अपराध की श्रेणी में आता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 18 मार्च के बाद से बंगाल में 18 रैलियां की हैं. उस समय भी जब आंकड़े ढाई लाख से ऊपर गये और श्मशान में चिताओं के जलने के धुओं से पूरा देश सहम गया है, उनकी रैली का सिलसिला जारी है. अमित शाह के रोड शो और रैलियां रविवार को भी जारी रहीं. अभी तीन दौर का चुनाव शेष है और रैलियों के कार्यक्रम तय हैं.
दरअसल इस समय देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल बना हुआ है, उसमें केंद्र के शासकों को पूरा भरोसा है कि तमाम विपरीत हालातों के बीच उनके वोट शेयर घटने नहीं जा रहे है. उनके पास एक ऐसा तुरुप का पत्ता है, जिसमें जादुई शक्ति है. बंगाल के संदर्भ में इसे ज्यादा गहराई से समझा जा सकता है. जिस बंगाल ने आजादी के बाद कभी जाति या धर्म के आधार पर वोट नहीं डाला, आज उसका वहां जोरशोर से प्रचार है. नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने बंगाल के सांस्कृतिक संदर्भ को ही बेमानी करने का प्रयास किया है. रवि ठाकुर या सत्यजीत राय या लालन फकीर के बंगाल के राजनीतिक अस्तित्व और उसकी ताकत की इस समय सबसे बड़ी परीक्षा हो रही है. केवल बंगाल ही नहीं, असम और दक्षिण के राज्य भी इसी कठिन परीक्षा का सामना कर रहे हैं. कोविड के बीच शासकों ने संविधान के संघात्मक प्रावधानों के बावजूद एकतंत्रीय शासन की मजबूत नींव बना दी है. कोविड को इसे अमल में लाने की गारंटी के रूप में लिया जा रहा है. विपक्ष की साख को तो मीडिया ने पहले ही धूमिल कर शासकों के लिए राह को सुगम बनाने का प्रयास किया है. किसानों का आंदोलन जरूर इसमें अपवाद है, जो एक बड़ी चुनौती के रूप में खड़ा होकर लोकतंत्र की रक्षा का उपक्रम कर रहा है. केंद्र ने राज्यों की स्वायत्तता पर भी हमला किया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह दूसरी लहर के बीच राज्यपालों से सीधे बातचीत की, वह बेहद खतरनाक कदम है. तो क्या आने वाले दिनों में राज्य सरकारें कागजी भूमिका के लिए नहीं छोड़ दी जायेंगी. डबल इंजन शासन के मुहावरे को गहराई से समझने की जरूरत है.
पिछले सात सालों में भारतीय जनता पार्टी ने राजनीतिक विविधता पर प्रचार कर सारे एजेंडे को ही बदलने का प्रयास किया है. यह एजेंडा कोविड की भयावहता के बीच भी जारी है. दुनिया ने अनेक ऐसे शासकों को देखा है, जिनके लिए आमलोग केवल वोटर भर हैं. उनके नागरिक होने के अधिकार का उनके लिए कोई मतलब नहीं है. यदि गैर भाजपाई सरकारों के दर्द को देखा जाये, तो इस दूसरी लहर में उनकी बेचारगी साफ दिख रही है. हर एक चीज के लिए उनकी केंद्र पर निर्भरता है. झारखंड के मुख्यमंत्री ने बांग्लादेश से रेमडेसिविर के 50 हजार वायल की बात की है. लेकिन इसकी आपूर्ति और आयात के लिए केंद्र पर ही उसकी निर्भरता है. ऐसा जान पड़ता है कि केंद्र नहीं चाहता कि उस पर से राज्यों की निर्भरता कम हो. ऑक्सीजन उत्पादन बढ़ाने की बात प्रधानमंत्री ने भी की है, लेकिन अनेक राज्यों के वे प्रस्ताव अब भी स्वीकृति के इंतजार में हैं, जिसके मिलने के बाद ही वे नयी इकाइयों को खोल सकते हैं.
राजनीतिक संघर्ष संघात्मकता बनाम एकात्मकता में बदल गया है. दूसरी तरफ कोविड की रोकथाम और त्वरित इलाज और जांच के लिए लोग छटपटा रहे हैं. आनेवाले भारत में राजनीतिक विविधता, राज्यों की स्वायत्तता और सांस्कृतिक विविधता के सवाल महत्वपूर्ण होंगे. लेकिन क्या पता तब तक कोविड केंद्र को पूरी तरह निरंकुश अधिकार हासिल करने का बहाना साबित हो.