Shyam Kishore Choubey
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हालिया दो वक्तव्य बहुत मायने रखते हैं. पहला तो लोकसभा में प्रतिपक्ष द्वारा पेश अविश्वास प्रस्ताव पर 10 अगस्त को जवाब देते समय उन्होंने जो कहा और दूसरा, स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले के प्राचीर से राष्ट्र को किया गया संबोधन. लोकसभा में उन्होंने 2.13 घंटे के अपने लंबे वक्तव्य में प्रतिपक्ष पर निशाना साधते हुए कहा, ‘यह इंडिया नहीं घमंडिया गठबंधन है… 2018 में विपक्ष को एक काम दिया था कि वह 2023 में अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए… मैं 2028 के लिए एक और मौका दूंगा’. कुछ इसी अंदाज में लाल किले से डेढ़ घंटे के संबोधन में उन्होंने कहा, ‘मैं अगले साल भी आऊंगा और देश को संबोधित करूंगा’. अगले साल अप्रैल-मई में लोकसभा के चुनाव होने हैं और मोदी आश्वस्त हैं कि इस चुनाव में उनका दल/गठबंधन 2014 और 2019 को दोहरायेगा. वे यह भी मानकर चल रहे हैं कि वे ही प्रधानमंत्री बनेंगे यानी भाजपा या एनडीए में दूसरा कोई नहीं है, जिसे पीएम बनाया जा सके. लोकसभा में उनके वक्तव्य पर गौर करें तो वे प्रतिपक्ष को 2028 में भी उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की चुनौती पेश करते नजर आये. मोदी का जन्म 17 सितंबर 1950 को हुआ था.
अगले साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर वे 74 के होते रहेंगे, जबकि 2028 में 78 वर्ष के. 2014 में पहली मर्तबा प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने ही 75 की उम्र तक सक्रिय राजनीति में रहने की वकालत की थी. इसी आधार पर लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं को राजनीति के क्षेत्र से अलग कर मार्गदर्शक मंडल में स्थान दे दिया गया. इसी आधार पर कड़िया मुंडा, रामटहल चौधरी आदि-आदि अनेक सांसदों को घर बैठा दिया गया. 2024 में भी ऐसे उदाहरण गढ़े जाएंगे. … तो क्या मोदी 78 की उम्र तक राजनीति करेंगे और प्रधानमंत्री पद पर रहेंगे? यह सवाल भाजपा के अंदर मंथन का विषय है या नहीं, यह वही जाने.
लाल किले से अगले चुनाव की तस्वीर गढ़ते हुए मोदी ने परिवारवाद, तुष्टीकरण और भ्रष्टाचार पर निरंतर प्रहार करने की बातें कही. महबूबा मुफ्ती संग सरकार बनाने, शिवसेना और एनसीपी के टूटे धड़ों संग सरकार बनाने, कांग्रेस से तोड़े गए सिंधिया को सरकार में शामिल करने, आजसू संग गठबंधन करने, यहां तक कि झामुमो संग भी सरकार बनाने में न मोदी को कभी एतराज हुआ, न ही भाजपा को. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. अभी 16 अगस्त को जिस विश्वकर्मा योजना की घोषणा करते हुए जिन समुदायों को लाभार्थी लक्षित किया गया, उसमें संभवतः तुष्टीकरण नहीं है! रही बात भ्रष्टाचार की, तो जिस अजित पवार को महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री और वित्त मंत्री बनाया गया, उनके विषय में खुद मोदी और फडणवीस क्या-क्या नहीं कहते रहे थे. ऐसे ही जिस बिना पर मणिपुर के मुख्यमंत्री एन वीरेन सिंह को क्लिनचीट दे दी गई और उसके बाद नूंह, मेवात केंद्र सरकार की चिंता के मसले नहीं लगते, उसका निहितार्थ किसी तुष्टीकरण का संकेत देता है या नहीं? चूंकि अगले चुनाव के लिए अभी से फील्डिंग की जाने लगी है, अवाम की चिंता महंगाई, बेरोजगारी से हटाकर कहीं और ले जाने की कोशिशें हो रही हैं. इस पर अवाम को ही गौर करना होगा, क्योंकि राजनीतिक हित साधने के लिए चहुंओर भावनाओं का भंवरजाल फैलाने का यह दौर है. हर ओर से परिवारवाद जैसे जुमले उछाले जाते हैं और आकर्षक नारे गढ़े-पढ़े जाते हैं.
20 जुलाई से 11 अगस्त तक चले संसद के मानसून सत्र में क्या-क्या न पढ़ा गया, क्या-क्या न सुनाया गया. खुद प्रधानमंत्री 09 अगस्त तक न लोकसभा में गये, न ही राज्यसभा में. गवर्नर द्वारा एक बार हायतौबा मचाने के बावजूद मणिपुर पर ‘डबल इंजन’ का जो रवैया रहा और उसके सापेक्ष सुप्रीम कोर्ट ने 07 अगस्त को जो व्यवस्था दी और उसके पहले भी जो आब्जर्वेशन दिये, दोनों में जमीन-आसमान का अंतर दिखता है. अब तो यह भी एक परिपाटी बनती जा रही है कि अदालतों के फैसले अनुकूल हुए तो फौरन से पेश्तर कह दिया जाय, हमारा न्यायपालिका पर भरोसा है, न्याय मिला. यदि अदालतों ने आकांक्षाओं के विपरीत निर्णय दिया तो उसे पलटने की हरचंद कोशिश की जाय, बशर्ते उतनी कूवत हो.
संसद के हालिया मानसून सत्र में 3 मई से जल रहे मणिपुर पर तीन सवाल उठाते हुए अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था. जैसा कि प्रतिपक्ष ने उस समय कहा कि संख्या बल क्षीण होने के बावजूद वह केवल इसलिए यह कर्मकांड कर रहा है, ताकि प्रधानमंत्री मौन तोड़ें और संसद के अंदर आकर वक्तव्य दें. ऐसा हुआ भी, लेकिन मूल प्रश्न के सापेक्ष 70 साल, अपने समय में आपने क्या किया, परिवारवाद, खानदान, फ्लाइंग किस आदि-आदि अवांतर बातों को अधिक तरजीह दी गई. एक-दूसरे की आवाज दबाने के लिए कौन-कौन से हथकंडे नहीं अपनाये गये और कौन-कौन से जुमले नहीं उछाले गये. संसद लोकमानस के लिए है. लेकिन दलगत और कुछ हद तक व्यक्तिगत तुष्टि के लिए भी लोक का केवल और केवल वोट के रूप में इस्तेमाल करने का तिलिस्म रचे जाने का यह दौर है. राजनीति को निदान के बजाय बवाल का रूप-स्वरूप देने और एक-दूसरे पर सवाल उछालने की विकसित की जा रही प्रवृत्ति आज न कल अत्यंत विध्वंसक साबित होगी, भले ही हम अगले सौ साल या हजार साल के लोकलुभावन जुमले उछालते रहें. राजनेता नहीं रहेंगे, व्यवस्था भी बदलती है लेकिन लोक रहेगा और उसकी संतुष्टि और समृद्धि ही मजबूत देश खड़ा करेगी. आंकड़े हैं, आंकड़ों का क्या! जीडीपी में उछाल लेकिन अवाम की फटेहाल जेब विश्वगुरु नहीं बना सकती.
डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.
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